राणा सांगा की कहानी । राणा संग्राम सिह । Rana Sanga History in Hindi
राणा संग्राम सिह (राणा सांगा ) रायमल्ल के ज्येष्ठ पुत्र थे । राणा संग्राम सिह के दो और छोटे भाई थे – एक का नाम पृथ्वीराज और दूसरे का जयमल्ल था । संग्राम सिंह (राणा सांगा )के असीम साहस, धीरता, दूरदर्शिता और महानुभावता ने उनके गौरव को बहुत ऊचा कर दिया था । उनका रंग गोरा और मुख मण्डल प्रतिभा पूर्ण था । उनके पराक्रम का परिचय उनके वींर-शरीर को देखते ही मिल जाता था ।
राणा सांगा और इब्राहिम लोदी के युद्ध
पठान सम्राट इब्राहींम लोदी दो बार उनसे युद्ध में हारा था । उन युद्धो मे संग्राम सिह (राणा सांगा ) का एक हथ कट गया था, गोले की चोट से एक पैर टूट गया था तथा भ्रातृ-विरोध से उनकी एक आँख भी नष्ट हो गयी थी । उनकी प्रतिभामयी राज-शक्ति के सामने राजस्थान सब सिर झुकते तथा बहुसंख्यक सामन्त राजा, नियमित कर प्रदान कर उनकी अधीनता स्वीकार करने के लिये बाध्य हुए थे ।
राणा सांगा और बाबर का युद्ध
यवन-बीर बाबर ने बड़े आडम्बर से युद्ध का आयोजन किया । बहुसंख्यक रण निपुण सिपाहियों के साथ बड़ी आन-बान से फतेहपुर-सीकरी नामक स्थान में पहुँचकर उसने छावनी डाली । इधर वींर-केसरी संग्राम सिंह बाबर के आगमन का समाचार सुन, बहुसंख्यक राजपूत योद्धाओं के साथ युद्ध क्षेत्र की ओर अग्रसर हुए । सीकरी के निकटस्थ कनुआ नामक स्थान में यवन सेना के आगे रहने वाली डेढ़ सौ तातारी सेना राजपूतो ने काट डाली । यह शोचनीय संवाद सुन, बाबर के अन्यान्य सिपाही भीत और हृताश हो गये । वे लोग अपनी छावनी के चारों और खाई खोदकर, भीत चित्त से रहने लगे । इस सेना की सहायता के लिये जो फौज आयी, वह भी संग्राम सिंह द्वारा पराजित हुई । उसके कितने हो सिपाही बन्दी हुए | इस तरह विजयी संग्राम सिंह भी वहीं छावनीं डाले पड़े रहे । यदि वे उसी समय बाबर की हताशा सेना पर आक्रमण कर देते, तो तातारी फौज जड़-मूल से नष्ट हो जाती । यह सुस्ती बाबर के लिये शुभ और संग्राम सिंह के लिये अशुभ हुई; किन्तु भारत का साम्राज्य भोग बाबर और उसके उत्तराधिकारियों के भाग्य में था । बाबर ने फिर अपनी सेना को नये उत्साह से उत्तेजित कर वहाँ की छावनी तोड़, राजपूतो पर चढ़ाई की । वे एक कोस भी आगे न बढे होंगे, कि राजपूत सेना ने उनका सामना किया । बाबर एक ऐसे छोटे और सकरे पथ में रोका गया, जहाँ उसकी सेना युद्ध भी न कर सकती थी । ऐसे संकट में पड़ बाबर बड़ा परेशान हुआ । महानुभाव संग्रामसिंह ने ऐसे संकट के समय उस पर आक्रमण करना पवित्र क्षत्रिय-धर्म के विरुद्ध समझा । किन्तु क्षत्रिय-धर्म की इसी पवित्रता ने राणा का अन्त में सर्वनाश किया ।
यवन-राज ने अवसर पाकर अपनी फौज को एकत्रित कर लिया तथा कौशल- जाल फैला, एक स्वदेश-द्रोही राजपूत को अपनी ओर मिला लिया । संग्राम सिंह अपने विक्रम और बड़ी सेना के भरोसे निश्चिन्त थे । उनके मन में दृढ़ विश्वास था, कि शत्रु चाहे कितना ही सावधान और सुरक्षित क्यों न हो, वह राजपूतों के हाथ से बच नहीं सकता । किन्तु वे स्वयं इस तरह स्वदेश के हित-व्रत में दीक्षित तथा स्वजाति के गौरव-रक्षण में लगे हुए थे, कि उन्हें स्वप्न में भी यह ख्याल न हुआ, कि उनकी सेना में विश्वासघाती भी हो सकते हैं ।
अबसे पहले बाबर ने अपने को विपत्ति मे पड़ा हुआ समझ, बड़े आग्रह से राजपूत-शिविर में सन्धि के लिये भेजा था । दूत की प्रस्तावित सन्धि पर राणा राज़ी भी हो गये थे। सन्धि का रूप यूँ था –
“दिल्ली और उसके अधीनस्थ कुल प्रदेश बाबर के होंगे, पीली नदी दोनों राज्य की सीमा होगी बाबर राणा को नियमित वार्षिक कर देते रहेगे।”
इस तरह सन्धि के नियमादि प्रस्तुत और स्वीकृत हो गये थे; किन्तु शिलादित्य की साजिश से वह सब विफल हो गए तथा दोनो पक्षो मे घोर युद्ध छिड़ गया ।
फतेहपुर सीकरी का युद्ध
सन् १५२८ ई० की १६वीं मार्च को युद्धारम्भ हुआ । यह युद्ध सीकरी के पास कनुआ नामक स्थान मे हुआ था; किन्तु सर्वंसाधारण में यह “फतेहपुर सीकरी का युद्ध” के नामसे प्रसिद्ध है । युद्ध में राजपूत-सेना ने बड़े विक्रम से तातारियों पर आक्रमण किया । पर यवनों की तोपों से कई सौ राजपूत एक बार ही में अदृश्य हो गये; किन्तु इससे भी राजपूतो का अदम्य विक्रम कम न हुआ । उखलती हुई समुद्र की तरंगो की भाति राजपूत घुडसवार तातारियों की ओर झपटे । तातारियों की शक्ति और उनकी तोपों के गोले किसी तरह राजपूतो को रोक न सके । असंख्य यवन सिपाहियों का वध करते हुए राजपूत आगे बढ़ने लगे । किन्तु, अचानक वह दृश्य बदल गया ! राजपूत-सेना के यवम-सेना के पास पहुँचते ही पहले की साज़िश के अनुसार राजपूत शिलादित्य अपने दल के सिपाहियों सहित तातारियों से जा मिला । राणा ने जिस पर बहुत विश्वास कर अपनी सेना का अगला भाग सौंपा था, उसी के द्वारा यह कुकर्म हुआ ! राजपूत-राज ने अपने नेत्रों से अपने विश्वासपात्र का यह विश्वासघात देखा तथा वे क्षोभ व अभिमान से रणस्थल त्याग कर चले गए । फिर वह राजधानी को न लौटे ।
राणा सांगा की मृत्यु
यवनो को प्रतिफल देने की प्रतिज्ञा लेकर फिर उन्होने वनवास ले लिया । जब-जब वे उस असंभव पराजक की बात विचारते, तब-तब उनक़ी प्रतिहिंसा बलवती हो उठती । हार के एक वर्ष के भीतर ही संग्राम सिंह ने प्राण त्याग दिया । बहुत लोग कहते है की उनके दुराचारी मन्त्रियों ने उन्हें विष देकर मार डाला था ।