राजकुमार चंड का त्याग | राजकुमार चण्ड की कहानी | Rajkumar Chand Ki kahani
राजकुमार चण्ड का राज्य-त्याग श्रीरामचंद्र और भीष्म पितामह के त्यागो की ही तरह महत्वपूर्ण है ।
एक दिन मेवाड़ाधिपति महाराणा लाखा अपने मन्त्रियों और दरबारियों सहित राजसभा में बैठे थे, कि उसी समय मारवाड़ नरेश रणमल्लजी का एक दूत वहाँ आ उपस्थित हुआ । उस दूत के हाथ में नारियल था, जिसे उसने राणा लाखा के समीप पेश करते हुए कहा – “महाराज रणमल्लजी अपनी पुत्री का विवाह महाराणा के ज्येष्ठ पुत्र राजकुमार चण्ड से करना चाहते हैं, इसलिये महाराज रणमल्लजी ने यह नारियल सेवा में भेजा है !”
युवराज चण्ड उस समय राज-सभा में उपस्थित न थे, इसलिये राणा लाखा ने दूत से ठहरने के लिये कहा । फिर राणा लाखा ज़रा दिल्लगी से बोले – “में अब बूढ़ा हो गया हूँ; इसलिये मेरे जैसे सफेद केशों वाले बुड्ढे के लिये ऐसी खेलने की चीज़ कौन भेजता ? “
राणा के इस कौतुक-पूर्ण वाक्य पर सभासदगण हँस पड़े ।
जिस समय इस बात पर सभा में आनन्दहास्य हो रहा था, उसी समय युवराज चण्ड स्थिर और गम्भीर भाव से वहाँ उपस्थित हुए । उन्होंने सभा में उठी हुई सब बातें सुन लीं । सबकुछ सुनकर उनके हृदय में एक गहरी चिन्ता उथल-पुथल मचाने लगी । वे सोचने लगे, कि जिस लड़की को पिता ने एक क्षण के लिये भी अपना मान लिया, मैं उस लड़की से किस तरह विवाह करूँगा ? अन्त में उन्होंने तय किया, कि मैं किसी तरह इस विवाह के लिये सम्मति न दूँगा ।
चण्ड की यह प्रतिज्ञा राणा ने भी सुनी । उन्होंने चण्ड को बहुत समझाया, किन्तु ये किसी तरह अपने दृढ़ संकल्प से न ढले । राणा ने पुत्र को तरह-तरह से समझाया । बहुत तरह से अनुरोध किया, डराया, धमकाया, किंतु वह किसी तरह रणमल्लजी की कन्या से विवाह करने पर राजी न हुए । राणा बड़े संकट में पड़े, क्योंकि नारियल-फल भेजने के बाद यदि विवाह न हो, तो कन्या पक्ष के राजपूत उसे बड़ा भारी अपमाना समझते हैं। यह सोचकर मेवाड़ाधिपति ने वृद्ध होने पर भी अपने विवाह का वचन दे दिया, क्योंकि यदि वे नारियल वापस करते, तो मारवाड़-राजा रणमल्लजी का बड़ा अपमान होता । उन्होंने क्रोध-पूर्वक गम्भीर होकर चण्ड को सम्बोधन कर कहा :- “तुम यह शपथ करो, कि यदि मैं उस रमणी से ब्याह करू और उससे कोई पुत्र उत्पन्न हो, तो तुम राज्याधिकार से वंचित रहोगे। यदि तुम ऐसा कर सको, तो मैं विवाह करने के लिये प्रस्तुत हूँ ।” इस कठोर वाक्य से तेजस्वीं चण्ड का हृदय तनिक भी विचलित न हुआ । उन्होंने उत्तर दिया – “पूज्य पिताजी ! मैं भगवान् एकलिंग का नाम लेकर शपथ करता हूँ, कि यदि आपके और मेरी इन भावी माता के गर्भ से कोई बालक जन्म लेगा, तो मै अपना उत्तराधिकार स्वयं ही त्याग दूँगा।”
एक अल्प वयस्क बालिका का ब्याह पचास वर्ष के बूढ़ राणा लाखा से हो गया । इस अपूर्व सम्मिलन से एक पुत्र भी उत्पन्न हुआ । उसका नाम मुकुल रखा गया ।
जब मुकुल ने पाँचवें वर्ष में पैर रखा, तब राणा ने सुना, कि यवनों ने पुण्यतीर्थ गया पर चढ़ाई की है; इसलिये वे यवनों के हाथ से पवित्र तीर्थ के उद्धार के लिये युद्ध-यात्रा की तैयारी करने लगे । उन्हें विश्वास नहीं था, कि इस युद्ध से वे फिर लौटंगे, इसलिये उन्होंने राज्य-शासन का ऐसा प्रबन्ध करने का विचार किया कि जिससे उनके पीछे राज्य में किसी तरह का झगडा खड़ा न हो। वे सोचने लगे, कि उनकी अनुपस्थिति में कौन राज्याधिकारी होगा ? कौन राजा होगा ?
उन्होंने इस विषय में चण्ड से और कुछ न कहा, केवल यही कहा,-“मैं जिस कठिन काम के लिये जा रहा हूँ; उसे पुराकर फिर लौटने की मुझे आशा नहीं; यदि मैं न लौट सका, तो मुकुल की उपजीविका का क्या उपाय होगा ? ऐसी दशा में मुकुल के लिये कोई सम्पत्ति करनी चाहिये।” दृढ़ प्रतिज्ञ तेजस्वी चण्ड ने स्थिर भाव से खड़े हो, धीर और गम्भीर स्वर से उत्तर दिया – “चित्तौड़ का राजसिंहासन भाई मुकुल का ही है।” इस अत्यन्त उदारता-भरे उत्तर से कहीं पिता के मन में सन्देह न हो; इसीलिये चण्ड ने पिता की गया-यात्रा के पहले ही मुकुल का राज्याभिषेक करा दिया ।
पिता की अनुपस्थिति में चण्ड, मुकुल तथा मेवाड़ राज्य के मंगल और उन्नति-साधन के लिये, बड़ी दक्षता के साथ शासन-सम्बन्धी विषयों का सुधार करने लगे; किन्तु उनकी विमाता यह सब सह न सकीं । वे गुण गरिमा की सब बातें भूल गयीं । वीरवर चण्ड अपना राजमुकुट सौतेले भाई के सिर पर पहनाकर उसकी हितकामना में लगे; किन्तु इस स्त्रार्थत्याग और उदारता के बदले रानी को सन्देह होने लगा ।
अकृतज्ञ राजमाता चण्ड के प्रत्येक कार्य को सन्देह और विद्वेष की दृष्टि से देखने लगीं; किन्तु सन्देह की कोई बात न पा, उन पर यह दोषारोपण करने लगीं – “चण्ड राज-कार्य के बहाने असल में राजा बने जा रहे है। वे राणा बनकर अपना परिचय नहीं देते हैं; किन्तु इस उपाधि को वे केवल नाममात्र की बना डालने की चेष्टा कर रहे हैं ।” यह बात चण्ड के कानों तक पहुँची । इस बात से चण्ड के मन में बड़ी व्यथा हुई । वे यह अपयश सह न सके । इस अनुचित दोषारोप के लिये उन्होंने विमाता का मीठे शब्दों में तिरस्कार करते हुए धीरतापूर्वक कहा -“यदि चित्तौड़ का राज-सिंहासन लेने की इच्छा मेरे हृदय में होती, तो आज कौन आपको राजमाता कहकर सम्बोधित करता ? अच्छा, अब में चला, राज्य-शासन का कुल भार आप पर रहा; किन्तु देखिये, शिशोदीय कुल की मान-मर्यादा मिट्टी में न मिलने पाये ।” चण्ड यह कह कर मातृभूमि चित्तौड़ को छोड़कर मान्दू-राज्य चले गये ; किन्तु विमाता ने एक बार भी उन्हें चित्तौड़ छोड़ जाने से मना न किया ।
मान्दूराज ने उनका यथार्थ परिचय पाकर उनको बड़े सम्मान से रखा तथा “हल्लार” नामक नगर उन्हें वृत्ति-स्वरूप प्रदान किया । वींर चण्ड के सुप्रबन्ध से मान्दूराज्य की उन्नति हुई ।
चण्ड मेवाड़ छोड़कर चले गये । अब मुकुल के नाना और मामा राज्य के रक्षक नियुक्त हुए, किन्तु शीघ्र ही ये लोग भक्षक बन बैठे । मुकुल की माता को इसकी कुछ खबर नहीं थी ।
अन्त में शिशोदीय-कुल की एक दासी की बात से उनकी मोह-निद्रा टूटी । अब अकृत राजमाता बड़े संकट में पड़ीं । वे अपने बचाव का उपाय सोचने लगीं । उन्होंने इस समय अच्छी तरह समझा, कि उन्होंने अपने हाथों अपने पैरों में कुल्हाड़ी मारी है । आज यदि चण्ड उपस्थित होते, तो उन पर यह विपत्ति न आती । अन्त में क्षमा की प्रार्थना कर उन्होंने चण्ड को सब बातें लिखीं और विश्वास-घातकों से राज्य का उद्धार करने की प्रार्थना की ।
उधर चण्ड इस बात की सदा खबर रखते थे, कि मेवाड़ में कहाँ क्या हो रहा है ? उन्हें इस बात की खबर पहले ही लग चुकी थी, कि मेवाड़ के भाग्य क़े आकाश में शीघ्र ही काला मेघ दिखाई देनेवाला है । अतएव इस समय अपनी माता की प्रार्थना से उन्होंने अपने मन का सब अभिमान भुला दिया तथा बड़े कौशल से देश को राठौरों के पंजे से बचाया । वे जब तक जीते रहे, तबतक उन्होंने कभी राज्य के अनिष्ट का कोई कार्य नहीं किया तथा भ्राता की अधीनता स्वीकार कर इस बात पर विशेष ध्यान रखा, कि प्रजा सुख पूर्वक रहे ।