महाराजा शिवाजी का इतिहास । शिवाजी महाराज का इतिहास । Shivaji History in Hindi
जिस समय हिन्दुओं का भाग्य विधर्मी-शासन की अत्याचार से आच्छादित हो रहा था, हिन्दुओ के गौरव अस्त हो रहे थे, हिन्दू-द्रोही यवन सम्राट औरंगजेब दिल्ली के राज्य-सिंहासन पर विराजमान होकर समग्र भारत वर्ष पर अपना अधिपत्य विस्तार कर रहा था, सारे देश में मुगल आधिपत्य की तूती बोल रही थी, वींर राजपूत-भूमि की राजपूती-शक्तियाँ प्राय: छिन्न-भिन्न हो चुकी थीं,हिन्दुओं के धार्मिक भावो पर कुठाराधात हो रहा था, देव मन्दिरों को विध्वंस कर उन स्थानों पर मस्जिदों का निर्माण हो रहा था, मन्दिरों में प्रतिष्ठित देवमूर्तियाँ चूर्ण-विचूर्णी कर धूल में मिलायी जा रही थीं । जजिया जैसा महा अन्यायी कर हिन्दुओं पर लगाया गया था; हिन्दू इस अत्याचार से प्रताड़ित होकर इस्लाम-धर्म को स्वीकार कर रहे थे । आर्यकुमारियाँ तथा सुन्दरी कुल- ललनाएँ बलपूर्वक बादशाह तथा उनके कर्मचारियों के हरम में लाकर उनकी आनन्द-सामग्री बनायी जा रही थीं और अत्याचार प्रताडित आर्य महिलाएँ ठण्डी सॉसें भर-भर सिसक रही थीं । गोभक्त हिन्दुओं के सम्मुख गौऔं की हत्या कर उनके हृदय को व्यथित किया जा रहा था, हिन्दुओं के धर्मग्रन्थों का अग्निसंस्कार हो रहा था; हिन्दू-जाति अन्याय और अत्याचार की चक्की में पिस रही थी ; वह सर्वधा निःसहाय और निरुपाय होकर घृणित जीवन व्यतीत कर रही थी। उसी समय महाराष्ट्र कुल केसरी प्रबल प्रतापी, पराक्रमशाली, महावीर शिवाजी का उदय महाराष्ट्र में हुआ ।
इस उदय से यवनों का अत्याचार धीरे-धीरे विलीन होने लगा । अत्याचार की प्रचन्ड गति शिथिल हो गयी । सम्राट औंरंगजेब की आशाओ पर पानी फिर गया; बार-बार पराजित होकर शान्ति के स्थान पर अशान्ति का साम्राराज्य भोगने लगा । अर्धमृत और हताश हिन्दू-जाति में जीवन की एक नई रौशनी का उदय हुआ । यदि शिवाजी का उदय नहीं हुआ होता; तो आज आशा नहीं थी, कि यह भारत हिन्दुओं का भारत कहलाता । यहाँ एक सम्पूर्णं इस्लामी-राज्य स्थापित हो गया होता ।
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शिवाजी का जन्म बम्बई प्रान्त में, शिवेनेरी नामक किले में सन् १६२७ में हुआ । शिवाजी के पिता का नाम शाहजी तथा शिवाजी के माता का नाम जीजा बाई था । जब शिवाजी ३ वर्ष के हुए, तो इनके पिता ने इन्हें एक विश्वासी ब्राम्हण दादाजी कोनदेव के संरक्षता में छोड़, तंजोर चले गये । दादाजी कोनदेव पक्के धर्मात्मा, राजनीतिज्ञ तथा शिष्टाचारी ब्राह्मण थे । अस्त्र-शस्र चलाने तथा घोड़े की सवारी करने में भी वह बड़े निपुण थे । इसलिये शिवाजी इन विद्याओं में खूब प्रवीण निकले । इसके अतिरिक्त समर्थ गुरु रामदास तथा तुकाराम के ग्रन्थों का असर इनके आचार-विचार पर बहुत पड़ा । शिवाजी एक कट्टर हिन्दू हो गये और गौ, ब्राम्हणो तथा धर्म के लिये प्राण तक समर्पण करने को तैयार हो गये । इनकी माता का प्रभाव भी इन पर कम नहीं पड़ा । जीजाबाई उच्च कुल की एक कट्टर क्षत्राणी थीं, और सभी क्षत्राणियो के समान ही उनमें धैर्य, साहस यथा सचरित्रता कूट-कूट कर भरी थी । पूजा-पाठ तथा धार्मिक कृत्यों में भी वे यथेष्ट समय लगाती थीं । शिवाजी पर इसका विशेष प्रभाव पड़ा । जीजाबाई ने उनकी शिक्षा दिक्षा के ऊपर भी कड़ी दृष्टि रखी । वे उन्हें पूर्वजों की शौर्यता और पूर्वकाल के वैभव की कहानियाँ सुनाया करती थीं, जिससे बालकपन में ही शिवाजी के हृदय में साहस, वींरता और महत्त्वकांक्षाएँ उत्पन्न हो गयी थीं । वे सदैव रामायण और महाभारत की वींरतापूर्ण कथाएँ, धार्मिक चरित्र और राजनींतिक बातों की चर्चा किया करती थीं । अतएव माता से आदर्श धर्म-शिक्षा पाकर शिवाजी एक धर्मनिष्ठ बालक हो गये । इस प्रकार सर्वंगुण सम्पन्न हो, शिवाजी यवनों का उपद्रव तथा हिन्दुओं की निर्बलता देख कर बहुत विचलित हुए और उन्होंने हिन्दुओं को सुसंगठित कर आर्यधर्म की रक्षा करने की दृढ़ प्रतिज्ञा की ।
शिवाजी की राजनीतिक स्थिति
सन् १६४० में याने चौदह वर्ष की अवस्था में शिवाजी का विवाह निम्बालकर घराने की कन्या सोयराबाई के साथ बड़ी धूम-धाम से हुआ । इसके बाद इनका पहला कार्य – तोरण के किले को चातुरी से दखल करना हुआ । परमात्मा की कृपा से इस गढ़ की मरम्मत करते समय इनको गड़ा हुआ धन भी मिल गया। इससे उन्होंने गोला, बारुद आदि लड़ाई का सामान खरीद लिया और साथ के लोगों को किले की रक्षा के लिये लगाया ! बस, यहीं से जगत-प्रसिद्ध शिवाजी का राजनीतिक जीवन आरम्भ होता है इसके बाद तोरण किले से छः मील की दूरी पर उन्होंने एक और नया किला बनवाया, जिसका नाम “राजगढ़” रखा ।
इसी किले में अन्त तक इनके राज्य की राजधानी रही । कुछ काल पश्चात् जब दादाजी कोनदेव की मत्यु होने लगी, तो उन्होंने इन्हें बुला भेजा और ये शब्द उसे बहुत धीमे स्वर में कहा,-“हे पुत्र ! मेरी यह अन्तिम इच्छा है, कि तुम स्वतन्त्रता हेतु अपने इन कार्यो को जारी रखो। ब्राम्हण, कृषक तथा गौ की सदा रक्षा करना और हिन्दुओं तथा मन्दिरों को कभी पद दलित न होने देना ।”
संरक्षक की मृत्यु हो जाने तथा पिता के दूर देश में युद्ध करने चले जाने के कारण वे स्वतन्त्रता पूर्ण कार्य करने लगे । वे अब जंगली लोगों को एकत्र करने लगे और अल्प काल में ही उन्होंने उन लोगों का एक बलवान दल बना लिया । जिसकी सहायता से जहाँ-जहाँ मुसलमान शासकों पर आक्रमण करना और धन-संग्रह करना शुरू कर दिया ।
जब इसकी खबर बीजापुर पहुँची, तो वादशाह ने शिवाजी को ऐसा करने से रोका । उनके पिता शाहजी को एक पत्र लिख कर पुत्र को समझा देने को कहा । शाहजी ने शिवाजी को वैसे ही एक पत्र लिखा । शिवाजी अब बड़े असमंजस में पड़ गये । एक ओर पिता की आज्ञा, दूसरी ओर स्वतन्त्र हिन्दू राज्य स्थापित करने की प्रबल इच्छा । वे बड़ी चिन्ता में पड़ गये । ऐसे समय में उनकी विदुषी स्त्री ने इनकी सहायता की । उन्होंने गौ, ब्राह्मणों को दुष्टों से बचाने एव धर्म तथा देश की रक्षा करने को, पिता की आज्ञा उलंघन करने से श्रेष्ठ बताया । यह बात शिवाजी को भी जच गयी ।
शिवाजी का बीजापुर गढ़ पर चढाई
इस पर बीजापुर गढ़ की रक्षा के लिये बिपुल धन तथा एक बडी सेना भेजी गयी । शिवाजी ने उन पर चढ़ाई कर सब धन लूट लिया । बादशाह इस पर बहुत नाराज हुआ और उसने शाहजी को छल से पकड़वा कर कैद कर लिया । शिवाजी को इसकी बड़ी ग्लानि हुई । वे झट मुगलों से मिल गये और आदिल शाह को शाह जी को छोड़ना पड़ा । पिता के छूटते ही शिवाजी ने बीजापुर पर हमले करने शुरू कर दिये । जिससे उसकी बड़ी हानि हुई । उन्होंने तोरण के बाद सात कीलें और जीते तथा कल्याण पर अचानक आक्रमण कर उसे भी ले लिया ।
बीजापुर का वादशाह यह न देख सका और शिवाजी की बढ़ती हुई शक्ति को रोकने के लिये ६० हज़ार योद्धाओं की एक बड़ी सेना तोपों के साथ अफरज़ल खाँ के अधिनायकत्व में भेजी । शिवाजी को जब यह समाचार मिला, तो वे बहुत चिन्तित हुए। वे भवानी के मन्दिर में गये और प्रार्थना की,-“हे माँ! मेरी इन दुर्बल भुजाओं में बल दो, कि मैं पर-नारी, पर-धर्म और पर हत्या करने वालों का सर्वनाश कर सकूँ । हे दुर्गे ! मुझे शक्ति दो, कि मैं हिन्दू भाइयों को दिखा दूँ, कि जीना है, तो मनुष्य की तरह जीओ, कायरों की तरह नहीं- मुर्दो की तरह नहीं! माँ ! संसार को रक्षा के लिये, धर्म की रक्षा के लिये, गौ-माता के प्राणों के लिये, दुष्टों का संहार करना आवश्यक है। यही धर्म है, यही परम पुण्य है, यही मेरा आदर्श है । इसलिये आशीर्वाद दो, कि मैं यवनों के रक्त से आपके श्रीचरणों को रँग दूँ ।”
शिवाजी और अफजल खान की लड़ाई
अफजल खाँ एक बड़ी सेना लेकर आया और उसने धोखा देकर शिवाजी को पकड़ना चाहा पर शिवाजी भी कम चतुर नहीं थे । वह अफजल खां से मिलने के लिये निश्चित स्थान पर सुरक्षित होकर गये । अभी बात हो ही रही थी, कि अफजल खाँ ने शिवाजी पर एकाएक आक्रमण कर दिया। शिवाजी वार को बचाते हुए, अपने आस्तीन में छिपाये हुए व्यघ्र-नख से उसकी छाती फाड़ डाली । यह देख कर उसका एक साथी आगे बढ़ा; पर शिवाजी ने एक ही वार में उसको भी यमलोक पहुँचा दिया । पास के जँगल में शिवाजी की जो सेना छिपी थी, वह अफ़ज़ल की पलटन पर टूट पड़ी। इस आकस्मिक आक्रमण से अफज़ल की सेना घबराकर भाग चली, बहुत लोग मारे गये और बहुतों ने हथियार रख दिये । इस युद्ध में चार हज़ार घोड़े तथा बहुत सा धन हाथ लगा इसके पश्चात् शिवाजी ने और कई किले जीते । जब यह समाचार वीजापुर पहुचा, तो बीजापुर के शासक स्वयं आकर दो वर्ष तक शिवाजी से लड़ते रहे ।
तेरह वर्ष पश्चात् शिवाजी ने अपने पिता को गिरफ्तार करने वाले घुड़-चढ़े सरदारों को उनके वंश सहित नाश कर डाला । शाहजी यह सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और पुत्र से मिलने आये । शिवाजी ने पिता का बड़ा आदर सत्कार किया। शाहजी ने १६६२ में बीजापुर से सन्धि कर ली।
शिवाजी और शाइस्ता खाँ की लड़ाई
बीजापुर से सन्धि हो जाने पर शिवाजी ने मुराल राज्य में जहाँ-तहाँ चढ़ाई करनी शुरू की । और औंरंगजेब ने १६६२ में अपने चचा शाइस्ता खाँ को उनके ऊपर चढ़ाई करने को भेजा । शाइस्ता खाँ वर्षा ऋतु का आरम्भ हो जाने के कारण पूना में आकर ठहर गया । एक रात को जब उसके यहाँ नाच-गान हो रहा था, तथ शिवाजी एक बनावटी बारात के साथ वेश बदल कर शाइस्ता खाँ के घर में घुस गये और उस पर हमला कर दिया । शाइस्ता खाँ का पुत्र मारा गया और शाइस्ता खाँ को तीन उँगलियाँ कट गयीं । दूसरे दिन प्रातःकाल मुगल रिसासत ने शिवाजी के किले पर चढ़ाई की; पर उस वीर केसरी शिवाजी ने सबको मार भगाया ।
जब यह खबर औरंगजेब को मिली, तो बह बहुत क्रुद्ध हुआ और एक बड़ी सेना शाहज़ादा मुअज्ज़म तथा राजा जयसिंह के अधीन भेजा । पर इन लोगों से भी कुछ नहीं बन पड़ा । जब शिवाजी के पिता की मृत्यु हो गयी, तथा इस समाचार से सबको बहुत दुःख हुआ । इसलिये कुछ काल तक राज्य कार्य की देख-भाल में ही लगे रहे ।
शिवाजी का कैद होना
सन् १६६५ में राजा जयसिंह के बहुत कहने पर शिवाजी अपने बालपुत्र के साथ दिल्ली मे मुगल सम्राट से मिलने गये । उसने छल से शिवाजी तथा उनके पुत्र को बन्दी कर लिया । पर नीति कुशल शिवाजी को भला कैसे छब से बन्द रखे जा सकते थे ? एक दिन मिठाई की टोकरी में बैठकर शिवाजी पुत्र के साथ निकल भागे । रास्ते की सभी तकलीफों को झेलते हुए वीर शिवाजी दक्षिण पहुँच । जब यह समाचार उनकी प्रजा को मिला, तो वह बड़ी प्रसन्न हुई ।
शिवाजी का महाराज बनाना
अब शिवाजी ने फिर उन किल्लो को जीतना आरम्भ कर दिया, जिन्हें मुगलों ने अपने अधीन कर रखा था । मुगल सम्राट औरंगजेब फिर एक बड़ी सेना मुअज्ज़म तथा जोधपुर नरेश जसवंत सिंह की अधीनत्पर में भेजी । नीति-कुशल शिवाजी ने धन का लोभ दिखाकर उन लोगों को बस मे कर लिया और अपना काम पूर्वेवत् जारी रखा । १६६७ में शिवाजी ने राजा की तथा १६७४ में महाराज की उपाधि ग्रहण की और अपने नाम से रुपये चलाने लगे ।
सिंहगढ़ का युद्ध
औरंगजेब को उत्तरीय भारत के विभिन्न स्वाधीन आन्दोलनकारियों को दमन करने में व्यस्त देख, शिवाजी ने दक्षिण के अनेक दुर्ग जीते, बीजापुर से सन्धि की और सिंहगढ़ पर चढ़ाई कर दी । यद्यपि सिंहगढ़ जीतना खेल नहीं था, क्योंकि वह गढ़ इस खुबी से बना था, कि उस पर चढ़ना बहुत ही कठिन था, साथ-ही वीर राजपूत सैनिक तथा सेनापतिगण उसमें सर्वंश्रेष्ट रखे गये थे; तथापि इनको माता की हार्दिक अभिलाषा थी, कि वह किला अब जीत लिया जावे, इसीलिये उन्होंने लड़ाई की । शिवाजी ने अपने वींर सेनापति तानाजी को बुलवाकर माताजी का सन्देश बताया । तानाजी ने युद्ध की तैयारियाँ आरम्भ कर दीं । सेना के कई भाग कर दिये । प्रत्येक भाग को भिन्न-भिन्न मार्गों से भेजा तथा एक नियत समय पर दुर्ग के पास पहुँचने की आज्ञा दी । सेना नियत समय पर गढ़ के समीप पहुँच गयी । तानाजी आधी रात को गढ़ पर चढ़ गये । लेकिन अभी पूरा चढे भी नहीं थे, कि शत्रुओं ने उन्हें देख लिया । दोनों ओर से घनघोर युद्ध होने लगा । तानाजी मारे गये; लेकिन जिस समय तानाजी मर रहे थे, उसी समय उनके भाई और सेना लेकर आ गये और वींर मराठे सैनिक हर-हर महादेव कह शत्रुओ पर टूट पडे । शत्रुओं के पैर उखड़ गये और शिवा जी की पूर्ण विजय हुई ।
सिंहगढ़ की पराजय का समाचार जब औरंगजेब को मिला, तो उसने जसवन्त सिंह को दक्षिण से बुला लिया तथा ४० हज़ार सेना के साथ महावत खाँ को इनके विरुद्ध युद्ध करने के लिये भेजा । पर महावत खाँ भी कुछ न कर सका और वह भी वापस बुला लिया गया। अन्त में औरंगजेब स्वयं दक्षिण चलने की तैयारी करने लगा।
शिवाजी की मृत्यु
शोक ! महाशोक ! ३ अप्रैल १६८० को भारत का भाग्य फूट गया । इस अशुभ घड़ी में ही हिन्दू शिरमौर महाराष्ट्र वींर शिवाजी की मृत्यु हो गई । वे सर्वेदा के लिये इस असार संसार से विदा हो गये । छत्रपति शिवाजी की मृत्यु के समय उनका राज्य उत्तर में चार सौ मील लम्बा तथा १२० मील चौड़ा था । और दक्षिण में आधा कर्नाटक उनके अधीन था ।
छत्रपति शिवाजी की धार्मिक नीति
शिवाजी केवल वींर, साहसी योद्धा ही नहीं थे; बल्कि वह धर्मात्मा भी थे । उनकी धर्मिक नीति बड़ी ही उदार थी । हिन्दू, मुसलमान या कोई भी हो, उनके पूज्य स्थानों के लिये उनके हृदय में आदर तथा श्रद्धा थी। उन्होंने नियम बना दिया था, कि जहाँ भी उनके सैनिक लुट मार करें, वहाँ मस्जिद न तोड़ी जायें, कुरान न नष्ट किये जायें तथा यात्रियों को कोई कष्ट न पहुँचाया जाये । १६६४ ई० में जब कल्याण लूटा गया, तब आवाजी सोनदेव ने वहाँ के गर्वनर मौलाना अहमद की साली को जो एक परम सुन्दरी थी, शिवाजी के सम्मुख उपस्थित किया । उस युवती को देखकर वींर हृदय शिवाजी ने कहा -“यदि मेरी माता भी इतनी सुन्दरी होती, तो सम्भव था; इतना कुरूप न होता । और उसको सम्मान-पूर्वक उसके सम्बन्धियों के पास भेज दिया।“
शिवाजी को विद्या से भी बड़ा प्रेम था । वे कविता भी करते थे और विद्वानों की बढ़ी इज्ज़त करते थे । मुसलमान फ़कीरोंका मी वे उचित सत्कार करते थे । शिवाजी में अलौकिक प्रतिभा थी । राज-काज में प्रजापालन में, सैन्य-संचालन तथा संगठन में, महामदान्ध शत्रुओं का दमन करने में उन्होंने अपनी जो प्रतिभा दिखायी है, उसकी तुलना नहीं की जा सकती ।