अशफ़ाक़ उल्ला खाँ । अशफाक उल्ला खान । Asfak Ullah Khan
अशफाक उल्ला खान पहले ऐसे मुसलमान हैं, जिन्हें षड्यन्त्र के मामले मे फांसी हुई है । उनका हृदय बड़ा विशाल और विचार बड़े उदार थे । अन्य मुसलमानो की भाँति “मैं मुसलमान, वह काफिर” आदि के संकीर्ण भाव उनके हृदय में घुसने ही नहीं पाये थे । सब के साथ समव्यवहार करना उनका सहज स्वभाव था । लगन, दृढ़ता, प्रसन्नता आदि उनके स्वभाव के विशेष गुण थे । वे कविता भी करते थे । उन्होंने बहुत ही अच्छी-अच्छी कविताएँ , जो स्वदेश के राग से परिपुर्ण हैं, बनायी हैं । कविता में वे अपना कविनाम “हसरत” लिखते थे । वे अपनी कविताओं को प्रकाशित कराने की चेष्टा नहीं करते थे । उनकी बनायी हुई कविताएँ अदालत आते-जाते समय अक्सर काकोरी के अभियुक्त गाया करते थे ।
श्री अशफाक उल्ला खान वारसी “हसरत” शाहजहाँपुर के रहने वाले थे । इनके खान्दान के सभी लोगों का नाम वहाँ के रईसों में से था । बचपन में इनका मन पढ़ने-लिखने में न लगता था । ‘खनौत’ में तैरने, घोड़े की सवारी करने और भाई की बन्दूक लेकर शिकार करने में इन्हें बड़ा आनन्द आता था । बड़े सुडौल, सुन्दर और स्वस्थ जबान थे । चेहरा हमेशा खिला हुआ और बोली प्रेम में सनी हुई बोलते थे । ऐसे हट्टकट्टे सुन्दर नौजवान बहुत कम देख पड़ते हैं ।
बचपन से ही उनमें स्वदेशानुराग था । देश की भलाई के लिये किये जाने वाले आन्दोलनों की कथाएँ वे बड़ी रुचि से पढ़ते थे । धीरे-धीरे उनमें क्रान्तिकारी भाव पैदा हुए । उनको बडी उत्सुकता हुई, कि किसी ऐसे आदमी से भेंट हो जाये, जो क्रान्तिकारी दल का सदस्य हो । उस समय मैनपुरी-षडयन्त्र का मामला चल रहा था । वे शाहजहाँपुर के स्कूल में शिक्षा पाते थे । मैनपुरी षडयन्त्र में शाहजहाँपुर के रहने वाले एक नवयुवक के नाम भी वारन्ट निकला था । वह नवयुवक और कोई न था, श्रीरामप्रसाद “बिस्मिल” थे । श्री श्री अशफाक उल्ला खान को यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई, कि उनके शहर में ही एक आदमी ऐसा है, जैसा कि वे चाहते हैं । किन्तु मामले से बचने के लिये श्री रामप्रसाद भगे हुए थे । जब शाही एलान द्वारा सब राजनीतिक कैदी छोड़ दिये गये, तब श्री रामप्रसाद शाहजहाँपुर आये । श्री अशफाक को यह बात मालूम हुई । उन्होंने मिलने की कोशिश की । मिलकर षड्यन्त्र के सम्बन्ध में बातचीत करनी चाही । पहले तो श्रीरामप्रसाद ने टालमटूल कर दी । परन्तु फिर उनके (श्री अशकाक के ) व्यवहार और बर्ताव से वे इतने प्रसन्न हुए, कि उनको अपना बहुत ही घनिष्ठ मित्र बना लिया । इस प्रकार वे क्रान्तिकारी जीवन में आये ।
क्रान्तिकारी जीवन में आने के बाद से वे सदा प्रयत्न करते रहे, कि उनकी भाँति और मुसलमान नवयुवक भी क्रान्तिकारी दल के सदस्य बनें । हिन्दू-मुसलिम एकता के वे बड़े कट्टर हामी थे । उनके इन आचरणों से उनके सम्बन्धी कहते थे, कि वे काफिर हो रहे हैं । किन्तु वे इन बातों की कभी परबाह न करते और सदैव एकाग्रचित्त से अपने कार्य पर अटल रहते । जब काकोरी का मामला शुरू हुआ, तब उन पर भी वारंट निकला और उन्हें जब मालूम हुआ, तो वे पुलिस सें नज़र बचा कर भाग निकले । बहुत दिनों तक वे फरार रहे । कहते हैं, उनसे कहा गया, कि रूस या किसी और देश में चले जाओ । किन्तु वे हमेशा यह कह कर टालते गये, कि मैं सज़ा के डर से फरार नहीं हुआ हूँ । मुझे काम करने का शौक़ है । इसीलिये मैं गिरफ्तार नहीं हुआ । रूस में मेरा काम नहीं,मेरा काम यहीं है,और मैं यहीं रहूँगा । पर अन्ततः ८ सितम्बर १९२६ को वे दिल्ली में पकड़ लिये गये । स्पेशल मजिस्ट्रेट ने अपने फैसले में लिखा था, कि वे उस समय अफ़गान दूत से मिल कर पासपोट लेकर बाहर निकल जाने की कोशिश कर रहे थे । वे गिरफ्तार करके लखनऊ लाये गये और श्री शचीन्द्रनाथ बख्शी के साथ उनका अलग से मामला चलाया गया । अदालत में पहुँचने पर पहले ही दिन स्पेशल मैजिस्ट्रेट सैयद अईनुहीन से पूछा, – “आपने मुझे कभी देखा है ? मैं तो आपको बहुत दिनों से देख रहा हूँ । जब से काकोरी का मुक़दमा आपकी अदालत में चल रहा है, तब से मैं कई बार यहाँ आकर देख गया हूँ।” जब पूछा गया, कि कहाँ बैठा करते थे ? तो उन्होंने बतलाया, कि वे मामूली दर्शकों के साथ एक राजपूत के वेश में बैठा करते थे । लखनऊ में एक दिन पुलिस सुपरिटंडंट खा बहादुर साहब इनसे मिले । खाँ बहादुर ने इनसे कहा,-“देखो, अशकाक ! तुम मुसलमान हो,हम भी मुसलमान हैं । हमें तुम्हारी गिरप्तारी से बहुत दुख है । रामप्रसाद वगैरह हिन्दू हैं । इनका उद्देश्य हिन्दू सल्तनत क़ायम करना है । तुम पढ़े-लिखे खानदानी मुसलमान हो । तुम कैसे इन काफिरों के चक्कर में आये ?” यह सुनते ही श्री अशफ़ाक की ऑखों लाल हो गयीं और झल्ला कर उन्होंने कहा-“बहुत हुआ ! खबरदार, ऐसी बात फिर कभी न कहियेगा । अव्वल तो पण्डित जी (श्री राम -प्रसाद) वगैरह सच्चे हिन्दुस्तानी हैं; उन्हें हिन्दू सल्तनत, सिक्ख राज्य या किसी भी फ्रिक ने सल्तनत से सख्त नफरत है । और आप जैसा कहते हैं, अगर वह सत्य भी हो, तो मैं अँगरेजों के राज्य से हिन्दू-राज्य ज्यादा पसन्द करूगा । आपने जो उनको काफिर बतलाया, उसके लिये मै आपको इस शर्त पर माफी देता हूँ, कि आप इसी वक्त मेरे सामने से चले जायें।” बेचारे खाँ बहादुर की सट्टी-पट्टी गुम हो गयी और अपना-सा मुँह लिये वहाँ से खिसक गये ।
मामले में उनका व्यवहार बड़ा मस्ताना था । अदालत के दर्शक और कर्मचारी उनके निर्दन्दतापूर्ण व्यवहार को देख कर दंग़ थे । फांसी का तख्ता सर पर झूल रहा था, परन्तु उन्हें बिलकुल परवाह न थी । अन्त में फैसला सुनाया गया । उन पर पाँच अभियोग लगाये गये थे । जिनमें से तीन में फाँसी और दो में कालेपानी की सज़ाएँ हुई थीं । अदालत में उन्हें श्री रामप्रसाद ‘बिस्मिल’का लेफ्टीनेंट कहा गया था ।
इस के बाद अपीलें और दया-प्राथनाओं आदि के व्यर्थ जाने पर फाँसी देना तय पाया । उन्हें इस परिणाम से थोडा मात्र भी दुख नहीं हुआ । जेल में वे कुछ दुबले पड़ गये थे । उनके कुछ मित्रों ने उनसे इसका कारण पूछा, तो उन्होंने उत्तर दिया, कि तुम समझते होगे, कि काल कोठरियों ने मुझे दुबला कर दिया है, मगर बात वैसो नहीं है । मैं आजकल बहुत कम खाता हूँ और इबादत (ईश्वर भजन ) मे ज्यादा समय गुजारता हु । कम खाने से इबादत मे मन खुब लगता है ।
वे बडे मस्त आदमी थे । फॉसी के एक दिन पहले कुछ मित्र उनसे मिलने गए थे । उस दिन उन्हे अपने पुराने कपड़े मिल गये थे, जिन्हें धो कर उन्होंने पहना था । पैर मे जूता भी था । उस दिन उबटन लगा कर उन्होंने स्नान किया और बालों को इस तरफ उन्होने बढ़ा रखा था, साफ किया। काफी बेफिक्र होकर मित्रों से मिले । बड़े खुश थे, फॉसी की कोई चिन्ता हो न थी । मित्रों से बोले “आज मेरी शादी है !” उसके दूसरे ही दिन सुबह साढ़े छः बजे उन्हें फाँसी हुई । मुकदमा समाप्त हो जाने के बाद ये फैज़ाबाद जेल भेज दिये गये थे । वहीं पर उन्हें फॉसी हुई । ये बहुत हँसी-खुशी के साथ, कुरान शरीफ का बस्ता कंधे से टॉगे हाजियों की भांति ‘लवेक’ कहते और कलमा पढ़ते, फॉसी के तख्ते के पास गये । तख्ते को उन्होंने बोसा (चुम्बन) दिया और उपस्थित जनता से कहा, कि-“मेरे हाथ इन्सानी खून से कभी नहीं रंगे। मेरे ऊपर जो इल्ज़ाम लगाया गया, वह ग़लत है । खुदा के यहाँ मेरा इन्साफ होगा।” इसके बाद उनके गले में फन्दा पड़ा और खुदा का नाम लेते हुए इस दुनिया से कूच कर गये ।
उनके रिश्तेदार उनकी लाश शाहजहापुर ले जाना चाहते थे । इसके लिये उनको अधिकारियों से बहुत आरजू-मिन्नत करनी पड़ी, तब कहीं इजाज़त मिली। शाहजहाँपुर ले जाते समय जब इनकी लाश लखनऊ स्टेशन पर उतारी गयी, तब कुछ लोगों को देखने का मौक़ा मिला। चेहरे पर १० घण्टे के बाद भी बड़ी शान्ति और मधुरता थी । बस, केवल ऑखों के नीचे कुछ पीलापन था । बाकी चेहरा तो ऐसा सजीव था, कि मालूम होता था-अभी-अभी नींद आ गयी है । पर वह नींद अनन्त थी ।