पुलिन बिहारी दास | Pulin Behari Das

पुलिन बिहारी दास | Pulin Behari Das

पुलिन बिहारी दास एक बड़े ही निर्भीक क्रान्तिकारी थे । पुलिन बिहारी दास का जन्म सन १८७७ की २८ जून को फ़रीदपुर जिले में हुआ था । उनके पिता एक मैजिस्ट्रेट के हेड क्लर्क थे । उनके दादा चटगाँव में डिप्टी मजिस्ट्रेट थे । उनका वंश अंग्रेज सरकार का विशेष रूप से राजभक्त था । सन् १८५७ के सिपाही-विद्रोह में उनके पिता सरकार की “वालण्टीयर” सेना में भरती हुए थे और विद्रोह का दमन करने में उन्होंने भाग लिया था । पुलिन की माता बड़ी विदुषी थीं । बालक पुलिन की शिक्षा बरिसाल में हुई थी । इन्होंने प्रारम्भ में स्वर्गीय अश्विनी कुमार दत्त के स्कूल में शिक्षा पायी थी । सन् १८६४ में इन्होंने एण्ट्रेस पास किया । ये गणित में बहुत तेज थे; पर अंग्रेजी में कमज़ोर थे । इन्होंने बी. ए. तक शिक्षा पायी थी; पर अंगेजी भाषा में कमज़ोर होने के कारण ये एफ. ए. और बी. ए. में कई बार फेल हुए थे । इन्होंने ढाके में रहकर सन् १९०३ में लाठी तलवार आदि का चलाना सीख लिया था ।

बंग-भंग के समय मुसलमानों के भाव हिन्दुओं के विरुद्ध थे । पुलिन उस समय कालेज में लेबोरटरी के ऐसिसटेण्ट थे । पुलिन बचपन से ही बड़े धार्मिक थे और उनका यह ख्याल था, कि हिन्दू-धर्म ही संसार में सर्वश्रेष्ठ धर्म है । वेदिक धर्म मे उनकी अगाध श्रद्धा थी और उनका यह दृण विश्वास था, कि ईसाइयों और मुसलमानों के धर्मो से वैदिक धर्म बहुत ऊँचा है । उनका यह भी ख्याल था, कि हिन्दू धर्म-शास्त्रों के अनुसार अंग्रेजो का राज्य शीघ्र ही इस देश से दूर होगा और यहाँ फिर हिन्दुओं का राज्य स्थापित हो जायेगा । पर इस विषय पर उनके पिता के विचार प्रतिकुल थे; इसलिये पिता से उनका बराबर मतभेद रहता था ।

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मनिपुर राज्य से जब अंग्रेजो का युद्ध हुआ, उस समय पुलिन की सहानुभूति मनिपुर पर थी और वे अंग्रेजो की आक्रमणकारी नीति से बहुत ही असन्तुष्ट थे । पुलिन के विचार क्रान्तिकारी होने लगे, और अंग्रेजो से लड़ने के लिये वे गोले-बारूद आदि बनाना सीखने लगे । वे युद्ध की कविताएँ लिखते थे । एक कविता उन्होंने मनिपुर के युद्ध पर लिखी, जिसका भाव यह था – कि “समस्त हिन्दू-जिनमें सिख, मराठे, राजपूत और बंगाली हैं, मिलकर उभय-शत्रु अर्थात Common enemy अंग्रेजो से लड़े ।

सन् १९०५ के स्वदेशी आन्दोलन में बैरिस्टर पो. मित्र और श्री विपिनचन्द्र पाल आदि ने नवयुवकों का संगठन करने के लिये “अनुशीलन- समिति” की स्थापना की, जिसमें पुलिन भी सम्मिलित थे । उस समय मुसलमान लोग हिन्दुओं के इस संगठन का बड़ा विरोध करते थे । इतना ही नहीं, ढाके के मुसलमान लोग हिन्दुओ को धमकाने भी लगे थे । हिन्दुओं ने अपनी रक्षा के लिये संगठन जोरो से बढ़ाया । सन् १९०७ में मुसमानों ने भी हिन्दुओं को जवाब देने के लिये अपनी अलग दलबन्दी की; इसमें ढाके के नवाब ने भी मुसलिम दलबन्दी की बड़ी सहायता की, और नवाब की सहायता अंग्रेज करते थे । मुसलमान हमेशा हिन्दुओ पर हमला करने का बहाना और अवसर ढूंढते थे । एक दिन प्रायः सात सौ मुसलमान उस मकान पर चढ़ आये, जहाँ हिन्दू युवक कसरत, कुश्ती, लाठी आदि खेलते थे, उस समय उस मकान मे केवल ६-७ बंगाली युवक थे । इन थोड़े से युवकों ने सात सौ उद्धत मुसलमानो का सामना किया । खूब लाठियाँ चली । केवल छः सिद्धहस्त बंगालियो ने मुसल्मानों की विराट सेना को पीट कर रख दिया । प्रायः ४०-५० मुसल्मानो की लाशें गिरीं; पर उन छः वीरों में से एक के भी शरीर में जख्म भी न लगा । इस लड़ाई के बाद श्री पुलिन बिहारी दास गिरफ्तार किये गये । उन पर मुक़दमा चलाया गया और तीन साप्ताह का कारावास तथा १५ रु० जुर्माने का दण्ड इन्हें दिया गया । अपील करने पर कारावास दण्ड हटा दिया गया; पर जुर्माना कायम रहा । सन् १९०८ में पुलिन पर यह मामला चलाया गया, कि वह लड़कों को गायब कर देता है । पर यह मामला टिक न सका । इस समय एक सरकारी भेदिया मार डाला गया था; पर हत्यारे का कोई पता नहीं लगा । पुलिन फिर एक बार लड़कों को गायब करने के अपराध में पकड़े गये; पर प्रमाण अभाब से यह मामला भी न टिक सका ।

इसके बाद सन् १८१८ के रेगुलेशन ३ के अनुसार पुलिन बाबू बिना वारण्ट के फिर पकड़े गये और वे कैद में रखे गये । पंजाब के मौण्टगोमेरी जेल में १४ महीने तक रखे गये । सन् १९०९ के मार्च में वे कलकत्ते आये चौर रिपन कालेज में पढ़ने लगे; किन्तु पाँच महीने के बाद ही पुलिन फिर गिरफ्तार किये गये । इस बार उन्हें कई तरह के प्रलोभन भी दिये गये; पर उन सरीखा कट्टर देश भक्त क्या किसी प्रलोभन में फॅस सकता था ? वे दो वर्ष तक विचाराधीन कैदी की हालत में रहे । इसके बाद उन्हें सात वर्ष काले पानी का दण्ड मिला । काले पानी (एण्डमान्स) से वे मद्रास भेजे गये, और फिर कृष्ण नगर के कारावास में रहे । बाद में वे छोड़ दिए गये । जेल से छटते ही उनके लिये नज़रबन्दी की आज्ञा हुई । सन् १९०९ से १९२० तक वे नज़रबन्द रहे ।

इसके बाद पुलिन के एक संबंधी जो सरकारी नौकर थे, उन्हें कठिनाइयों में फॅसाना चाहा, पर वे बेदाग बच गये । अब पुलिन अपनी स्त्री और बच्चों सहित कलकत्ते में रहते और शान्तिपूर्वक जीवन व्यतीत करते थे । वे भारत-सेवक-संघ के मन्त्री थे१७ अगस्त १९४९ को उनकी मृत्यु हो गयी ।

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