उल्लासकर दत्ता । Ullaskar Dutta
अलीपुर बम-केस में श्रीमान उल्लासकर दत्ता भी गिरफ्तार हुए थे । उन्हें देश भक्ति का चसका तो पहले से ही था; पर एक बार उनकी लड़ाई पुलिसवालो से हो गयी । पुलिस ने उन्हें मारा, पीटा और बाद में उनपर मामला भी चलाया गया; पर वे निर्दोष छूट गये थे । इसके बाद उन्हें पुलिस पर और पुलिस की मालिक सरकार पर बड़ा क्रोध चढ़ा ।
इसके बाद बंगभंग का आन्दोलन आरम्भ हुआ । स्वदेशी आन्दोलन हुआ । फिर “युगान्तर” पत्र के गर्म लेखों का प्रभाव भी बढ़ रहा था ।
उल्लासकर दत्ता उस समय बम्बई के विक्टोरिया टेकनिकल इन्सट्युट में इंजीनियरिंग सीखने के लिये चले गये थे । इधर बंगाल में जब स्वदेशी आन्दोलन कीं रफ्तार बढी, तो उन्होंने इसकी ओर ध्यान दिया । वे गम्भीरत पूर्वक इसी विषय पर विचार करने लगे । देशभक्त वीरों के आत्मचरित्रों का अध्ययन करने लगे । बम्बई में कई मास रहने के बाद वे फिर कलकत्ते लौट आये । स्वदेशी आन्दोलन में वे भाग लेने लगे । बाबू विपिन चन्द्र पाल तथा स्व. सुरेन्द्रनाथ बेनर्जीं के भाषण तथा महाकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कविताओ का उन पर बहुत असर पड़ता था । इस प्रकार उनकी देशभक्ति निरन्तर बढ़ती ही जाती गयी ।
फिर उन्हें बम आदि बनाने का भी अध्ययन किया । उन्होंने इस कार्य को परमावश्यक समझा और उस विषय की पुस्तकें आदि पढ़ने लगे । वे फिर बम्बई नहीं गये । कलकतत्ते में रहकर उन्होंने बम बनाने का अभ्यास किया और इसमें वे सफल भी हुए । इसके बाद वे बारीन्द्रकुमार घोष आदि के गुप्त समिति में काम करने लगे ।
किन्तु अन्त में अलीपुर के विख्यात बम केस में श्री वारीन्द्र घोष आदि के साथ श्री उल्लासकर दत्ता भी पकड़े गये । मामला चलने पर अलीपुर की सेशन्स अदालत से श्रीवारीन्द्र और श्री उल्लासकर दत्ता को पहले प्राण दंड मिला था; किन्तु बाद में यह दण्ड जीवन भर काले पानी में बदल दिया गया ।
श्री उल्लासकर दत्ता से पूछा गया, कि क्या तुम अपने लिये हाईकोर्ट में अपील करोगे ?” उन्होंने बेरवाही से उत्तर दिया, कि “जिस न्यायालय को ही हम नहीं मानते, उसके सामने अपील करने से क्या लाभ है ?”
इस समय एक और ऐसी घटना हुई, जो बडी ही मनोरंजक और दिल्ली की है । एक दिन हाईकोर्ट के वकील श्री शरचन्द सेन, और उल्लासकर दत्ता के चाचा डा. महेंद्र चंद्र नन्दी जेल में जाकर श्री उल्लासकर दत्ता से मिले ओर उनके सामने अपील की दर्खास्त रखकर हस्ताक्षर करने के लिये समझाने लगे । उस समय परिस्थिति भी कुछ ऐसी हो गयी थी, कि हस्ताक्षर कर देना उचित मालूम हुआ । उल्लासकर दत्ता ने अपने चाचा और वकील को देखकर हस्ताक्षर कर दिया । दूसरे दिन फिर वे ही दोनों आदमी उनके पास अपील की दर्खास्त लेकर गये, और बोले, कि इस पर हस्ताक्षर कर दो । श्री उल्लासकर दत्ता ने चकित होकर कहा,- “इसके क्या मतलब है ? अभी कल ही तो मैंने अपील की दरखास्त पर हस्ताक्षर किया है । और आज आप लोग फिर वही करने के लिये मुझे कहते हैं ?” यह सुनकर वे दोनो बड़ा ही आश्चर्य प्रकट करने लगे, और बोले,-“अरे ! तुम क्या कहते हो ? हम लोग हरगिज़ तुम्हारे पास कल नहीं आये थे । अरे ! तुमने किस के कहने से किस काग़ज़ पर हस्ताक्षर किया है ?” श्री उल्लासकर,-“आप ही तो कल आये थे, और आप ही कहने से मैने कागज़ पर हस्ताक्षर किया था ।” वे दानों बड़ा आश्चर्य करने लगे, और बोले – “तुम गलत कहते हो । हम हरगिज़ यहा नहीं आये थे ।“ उल्लासकर दत्ता ने फिर हस्ताक्षर कर दिये । इसके बाद १२ बरस कालेपानी का कठिन यातनाएँ सहन करने के पश्चात् श्री उल्लासकर दत्ता सन् १९२० में छूट कर आये ।