रामप्रसाद बिस्मिल का जीवन परिचय । Ram Prasad Bismil Essay
इस युग में भी, जब कि प्रत्येक प्राणी स्वार्थ-साधन में लगा हुआ है, ऐसे वीर तथा महान् आत्माओं का आना, जिनका जीवन देश सेवा रहता है । चाहे इस प्रकार के गुण हमें विशेष व्यक्तियों में ही प्राप्त होते हों । श्रीरामप्रसाद ‘बिस्मिल’ की जीवनी मे नजर डालने से स्पष्ट ज्ञात होता है, कि वे उच्च कोटि के देशभक्त, आदर्श त्यागी तथा वीर योद्धा थे और उनकी ज्वलन्त देश-भक्ति तथा वीरता की प्रशंसा उनके शत्रुओं भी करते थे ।
भारत के अमर क्रान्तिकारी शहीदों में श्री रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है । काकोरी षड़यन्त्र के वे ही नेता माने गये थे । साधारण शिक्षा थी, किन्तु उनकी कानून-सम्बन्धी युक्तियों को सुन कर हाईकोर्ट के न्यायाधीश भी आश्चर्यचकित हो जाते थे । इसका यह परिणाम हुआ, कि उन्हें अवध चीफ कोर्ट से भयंकर षड़यन्त्रकारी तथा निर्दयी हत्यारे की उपाधि मिली थी ।
रामप्रसाद बिस्मिल का जन्म
रामप्रसाद जी का जन्म ११ जून १८९७ को शाहजहाँपुर के एक ब्राह्मण-परिवार में हुआ । इनके पूज्य पिता का नाम पं० मुरलीधर था । इनकी माता बड़ी धर्मपरायणा महिला थी,जिनकी शिक्षा से इनका जीवन एक आदर्श-जीवन हुआ । अपने पुत्र के फाँसी पाने के पश्चात् इस पूज्नीय जननी ने कहा था – -“मैं पुत्र की इस प्रकार की मृत्यु से दुःखी नहीं हू । तुम लोग सत्य को मत त्यागना; वरन् इसके पीछे मर मिटना । मैं ‘राम’ सा ही पुत्र चाहती हूँ!”
रामप्रसाद बिस्मिल का शिक्षा
रामप्रसाद जी बचपन में बड़े उदण्ड थे । अपने पिता के पर्याप्त शासन में रहने पर भी अपनी उद्दण्डता से वे बाज़ नहीं आते थे । फलतः खूब दण्ड भी पाते थे । इन्हें पहले हिन्दी और उर्दू के अक्षरो का बोध कराया गया और इसके बाद प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के लिये एक अपर प्राइमरी स्कूल में भेजे गये ।
कुछ बुरी आदतो के कारण वे दो बार उर्दु-मिडिल की परीक्षा में अनुत्तीर्ण रहे । अतः अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करने के अभिप्राय से एक मिशन-स्कूल में नाम लिखवाया गया । ९वीं कक्षामें पहुँचने पर कुछ स्वदेश सम्बन्धी पुस्तकों का अवलोकन करना प्रारम्भ किया । अत: वे दूसरे वर्ष एणट्रैन्स की परीक्षा में अनुत्तीर्ण रहे । इस असफलता के पश्चात उन्होंने पढ़ना त्याग दिया ।
रामप्रसाद बिस्मिल का बुरी आदतो मे पड़ना
कुमारावस्था में कुछ बुरी आदते भी पड़ गयी थीं । पिताजी के सन्दूक से रुपये-पैसे निकाल कर उर्दू के प्रेम-पूर्ण उपन्यासों को पढ़ते थे । इसके कारण इनके स्वास्थ्य पर भी कुप्रभाव पड़ा; किन्तु एक पुजारी महोदय के ब्रह्मचर्यादि शिक्षाओं तथा सत्यार्थ-प्रकाश के अध्ययन से उन्होंने अपनी सब बुरी आदतों को त्याग दिया और ब्रह्मचर्यव्रत पालन करने लगे ।
रामप्रसाद बिस्मिल का क्रान्तिकारी जीवन
१८ वर्ष की अवस्था से इनका क्रान्तिकारी जीवन आरम्भ होता है, रामप्रसाद बिस्मिल मैनपुरी षड़यन्त्र केस में फ़रार रहे । इनको गिरफ्तार करने के लिये सरकार ने इनाम भी रखा था; किन्तु असफल रही । अन्त में शाही घोषणा के पश्चात् शाहजहाँपुर में फिर आये । पलायनावस्था में इन्हें बड़ी-बड़ी विपत्तियों का सामना करना पड़ा था । कभी-कभी तो जँगल की घास, फल-मूलादि पर ही दिन व्यतीत कर लेते थे ।
रामप्रसाद बिस्मिल के गुरू
इनके धार्मिक तथा राजनीतिक गुरु श्रीसोमदेव जी थे, जिनकी शिक्षाओं का इन पर बड़ा प्रभाव पड़ा था । उन्होंने इनको कुछ यौगिक क्रियाएं भी सिखलायीं । गुरुदेव राजनीति के तो इतने बड़े विद्वान थे, कि लाला हरदयाल जैसे उच कोटि के राजनीति-विशारद इनसे परामर्श लेते थे । सोमदेवजी के स्वर्गारोहरण के पश्चात् इनसे पं० गेंदालाल दिक्षित से भेंट हुई, जो मैनपुरी पड़यन्त्र के नेता थे ।
रामप्रसाद बिस्मिल की रचनाए
शाही माफी के पश्चात् शाहजहाँपुर आने पर इन्होंने स्वतन्त्र व्यवसाय करना प्रारम्भ किया और एक रेशम का कारखाना खोला, जिससे इन्हें कुछ लाभ भी हुआ। इन्हीं दो-तीन वर्षों के अन्तर्गत इन्होंने ‘कैथराइन’ ‘मन की लहर’ ‘बोलशेविकोंकी करतूत’ ‘यौगिक साधन’ इत्यादि पुस्तकों की रचना की । अब एक प्रकार से इनका विचार हो गया था, कि क्रान्तिकारी कार्यों मे हाथ नहीं बटाऊँगा । व्यर्थ मे शक्ति का अपव्यय हो रहा था;किंतु इनके दिल के अरमान नहीं बुझे थे । असहयोग आन्दोलन के शिथिल होने के पश्चात् जब नवयुवकों का ग्रुप संगठन आरम्भ हुआ, तब इन्होंने सहायता देने का वचन दिया ।
काकोरी कांड
इधर नवयुवकों का संगठन हो चुका था; किन्तु उसके कार्यों के लिये धन कहँ से आये ? ये बड़ी समस्या थी । बेचारे कार्यकर्ताओं को तीन तीन दिन भोजन भी प्राप्त नहीं होता था; अतः सरकारी खज़ाना लूटने का निश्चय किया गया । इस निश्चय को कार्यरूप में पुरा करने के लिये ९ अगस्त सन १९२५ ई० की अत्यन्त अँधेरी रात को लखनऊ के आगे काकोरी स्टेशन के पास डाका पड़ा और क्रंतिकारी लगभग साढ़े चार हज़ार रुपया लेकर गायब हो गये । इस पड़यन्त्र के सम्बन्ध में बहुत से लोगों की गिरफ्तारियाँ हुई तथा उन पर सरकार के विरुद्ध षड्यन्त्र रचने का अभियोग चलाया गया । श्रीरामप्रसाद को सेशन-कोर्ट से प्राण दंड मिला । अवध चीफ कोर्ट मे सज़ा सुनाई गयी । प्राणदण्ड की आज्ञा को रद्द करने के लिये जितने उपाय थे, सब किये गये; किन्तु परिणाम व्यर्थ सिद्ध हुआ । सरकार टस-से-मस न हुई । वह अपने निश्चय पर अन्त तक दृढ़ रही ।
रामप्रसाद बिस्मिल को फांसी
श्री रामप्रसादजी को गोरखपुर जेल में १९ दिसम्बर सन् १९२७ को ६ बजे प्रात: काल फॉंसी देने की तिथि निश्चित की गयी । काकोरी-षड्यन्त्र के चार वीर अभियुक्तों के फाँसी पाने पर देश में बड़ी हलचल हुई । सब लोग एक स्वर से नौकरशाही की खरी-खरी टीका-टिप्पणियाँ कर रहे थे । अन्त में १९ दिसम्बर को बिस्मिल जी ने बड़ी वीरता के साथ इस लोक को त्याग दिया ।
१८ दिसम्बर को इनके माता- पिता तथा छोटे भाई सुशील अन्तिम दर्शन के लिये गोरखपुर जेल में गये थे । माता से भेंट होने पर इनकी आंखो से आँसू निकल पड़े थे । उस पुज्नीय जननी ने अपने आन्तरिक कष्टों को त्यागते हुए बडी़ ही वीरतापूर्ण उत्तर दिया था, जिसको सुनकर जेल के अधिकारीगण भी दंग हो गये थे । उन्होने कहा – “ जीवन पर्यंत तो देश के लिये रोते रहे, अब अन्तिम समय हमारे लिये रोने बैठे हो ? इस पर उन्होंने उत्तर तो दिया,”जननी ! यदि तुम ऐसा समझती हो, तुमने इस शरीर को जन्म देकर भी मुझे नही समझा । मैं इसलिये नही रो रहा हूँ, कि कल मुझे फॉसी हो जायेगी;किन्तु बात यह है,कि जिस प्रकार घी का अग्नि के निकट पिघलना स्वभाविक है । उसी प्रकार मेरी भी दशा हुई।” अन्त में माता ने कहा,-‘बेटा ! राम-नाम लेकर शरीर त्यागना ।
फाँसी को जाते समय “वन्देमातरम्” तथा “भारत माता की जय” का उच्चनाद किया ।
फॉसी के पश्चात उनके शव के साथ कई हज़ार आदमी उपस्थित थे । किसी ने उनकी लाश पर फूल-बताशे फंके, तो किसी ने इत्र-गुलाब-जल तथा रुपये-पैसे की वर्षा की । इस प्रकार गोरखपुर की जनता उनके प्रति अपनी श्रद्धाजलि अर्पित की ।