गुरु अर्जुन देव जी का इतिहास । Guru Arjun Dev Ji
गुरू अर्जुन देव के पहले चार गुरु और हो चुके थे । गुरू अर्जुन देव पाँचवें गुरु थे । जिस समय इस भूमि में यवनो का प्रभुत्त्व हो रहा था । छल, बल और कौशल से यहाँ की जनता मुसलमान धर्मावलम्बी होती जा रही थी; उन्हीं दिनों भारतीय सभ्यता, भारतीय ज्ञान और भारतीय उदारता आदि की रक्षा करने के विचार से दूरदर्शी गुरु नानक देव ने एक सम्प्रदाय स्थापित किया था । यह सम्प्रदाय सब धर्मो का समन्वय कर संसार में शान्ति स्थापित करने का पक्षपाती था । एकेश्वरवाद ही इसकी मूल मंत्र थी । सामाजिक रूढ़ियों को नई प्रणाली से समाज-संगठन करना तथा मर चुके आर्यजाति को जीवित रखना ही, इसका लक्ष्य था । साथ ही किसी धर्म या मत का खंडन न कर उसका समन्वय करने पर ही गुरु नानक ने अपनी दृष्टि स्थिर रखी थी ।
गुरु नानक देव के बाद, गुरु अंगद, गुरु अमरदास और गुरु रामदास हुए । क्रमशः इन गुरुओं के समय में सिख (शिष्य) सम्प्रदाय उन्नति और वृद्धि करता आया था । इन चार गुरुओं के बाद पाँचवे गुरु श्री अर्जुन देव हुए । इनके समय में सिक्ख-सम्प्रदाय में कई विशेष परिवर्तन हुए और अब तक जो प्रतिष्ठान केवल धर्म और समाजनींति के क्षेत्र में ही अपने कार्यों को सीमाबद्ध रखता आया था, उसे अब अपने कार्यों का क्षेत्र और भी बढ़ाना पड़ा ।
गुरू अर्जुन देव का जन्म
गुरू अर्जुन देव का जन्म १५६३ ई० में हुआ था । बाल्यकाल से ही इनकी भावी योग्यता का परिचय मिलने लगा था । गुरू अर्जुन देव के पिता गुरु रामदास ने कठोर परीक्षा लेकर इन्हें ही अपने बाद गुरु का पद प्रदान किया था । गुरू अर्जुन देव के एक भाई और थे, जिनका नाम पृथ्वीचन्द था । वे बड़े ही चालाक थे; पर ईष्ष्या की मात्रा उनमें बहुत अधिक थी । वे लड़कपन से ही गुरू अर्जुन देव के विरोधी थे और उनसे खार खाये रहते थे ।
सन् १५८१ ई० में गुरु रामदास की मृत्यु के बाद गुरु की गद्दी पर श्री गुरू अर्जुन देव बैठाये गये । इससे उनके भाई का क्रोध और भी चढ़ गया । गुरु अर्जुन देव उनके मनोभाव को समझते थे । उनको सन्तुष्ट करने के विचार से गुरु अर्जुन देव ने सारी पैत्रिक सम्पत्ति अपने भाइयो में बाँट दी । पर पृथ्वीचन्द को इससे भी सन्तोष नहीं हुआ । वे सिखों (शिष्यों) से गुरु-दक्षिणा वसूल करने लगे । गुरु गुरू अर्जुन देव ने उनकी इस कार्यवाही को रोकने के लिये विश्वासी आदमी नियुक्त किया और यह आदेश दिया, कि प्रत्येक सिक्ख अपनी आमदनी का एक तिहाई हिस्सा गुरु के अर्पण करे ।
गुरु की गद्दी पर बैठते ही श्री गुरू अर्जुन देव अमृतसर नगर की शोभा बढ़ाने के कार्य में लगे । इन्हीं के प्रयत्न से इनके समय में मन्दिर और सरोवर का काम समाप्त हुआ, जो उनके पूर्वजों ने आरम्भ किया था । अब गुरू अर्जुन देव यहीं अपने शिष्यों सहित रहने लगे । मन्दिर और तालाब के आस-पास समृद्ध नगर बसने लगा । क्रमशः यह नगर सिखों का एक पवित्र तीर्थस्थान हो गया । कुछ ही समय में बहुत से आदमी आ-आकर इस नगर में बस गये और देखते देखते यह नगर व्यवसाय और वाणिज्य के एक प्रधान केन्द्र के रूपमें परिवर्तित हो गया ।
सिख-समाज के कल्याण के विचार से गुरू अर्जुन देव ने पंजाबी भाषा में “ग्रन्थ साहब” की रचना की। इस ग्रन्थ में गुरु नानक से लेकर गुरू अर्जुन देव के समय तक की समस्त रचनाओं का समावेश किया गया । इन रचनाओं के अतिरिक्त कबीर, नामदेव, रामानन्द, जयदेव, मीराबाई, फरीद, त्रिलोचन आदि उन्नीस प्रसिद्ध-प्रसिद्ध भगवद्क के उपदेशों का भी संकलन किया गया । गुरू अर्जुन देव के समय से ही अमृतसर के मन्दिर में नित्य विधि-पूर्वक पूजन और ग्रन्थ साहब के पठन पाठन की पद्धति प्रचलित हुई । यह प्रथा अबतक मौजूद है ।
इधर अपने सद्गुणों, सत्कायों और अपूर्व योग्यताओ से गुरू अर्जुन देव जितना ही अधिक मान-सम्मान पाने लगे, उधर ईष्ष्यापरायण उनके भाई उतना ही अधिक जलने लगे । वे तरह-तरह की चेष्टाओ से गुरु को हटाने करने का षड़यन्त्र और कार्य करने लगे । उनके उपद्रवों और अत्याचारों से गुरु व्याकुल हो उठे और अन्त में आरी आकर बादली नामक गाँव में जाकर रहने लगे । यहाँ पर गुरु गुरू अर्जुन देव को पुत्र रत्न श्री हरगोविन्द का जन्म हुआ । जब तक गुरू अर्जुन देव के कोई पुत्र नहीं हुआ था, तब तक तो उनके भाई को कुछ सन्तोष भी था; पर अब जब, कि उनको सन्तान-प्राप्ति हुई, तब उनकी सारी आशाओं पर पानीं फिर गया । अब पृथ्वीचन्द मारे ईष्र्या और क्रोध के पागल से हो गये । वे इस ईर्श्या की अग्नि को शान्त करने के लिये सरकारी कर्मचारियों से मिलकर उनके भावों को गुरु के प्रति विषाक्त करने लगे । कुछ लोभी कर्मचारी उनकी बातों में आ गये और उनके साथ मिलकर पड़यन्त्र करने लगे पर मुगल-सम्राट् अकबर गुरु के मनोभाव, उनके ज्ञान विज्ञान और भक्ति-परायणता को अच्छी तरह जानते थे । वे स्वयं गुरु के प्रति आदर एवं श्रद्धा का भाव रखते थे। फलतः षड़यन्त्रकारियों और उनके भाई की करामात काम नहीं आयी । उनके किये गुरु का बाल भी बाँका नहीं हुआ ।
परन्तु पृथ्वीचन्द को भला चैन कहां ? वे अब भी अपने नीच कार्य से थके नहीं । उन्होंने सम्राट् के पास खबर भेजी, कि ‘ग्रन्थ साहब’ में हिन्दू और मुसलमान दोनों दी धर्म-मतों के विरुद्ध बातें लिखी गयी हैं । अतएव इनके आन्दोलन के दमन की आवश्यकता है । इस पर सम्राट् ने वह ग्रन्थ लाने का हुक्म जारी किया । ग्रंथसाहब का पाठ कराकर सम्राट् ने स्वयं सुना और उसकी बार-बार प्रशंसा की । सम्राट् अकबर की श्रद्धा गुरु एवं गुरू ग्रन्थ साहब के प्रति और भी बढ़ गयी । वे स्वयं अमृतसर में आये और गुरु से मिले । इस मुलाक़ात से वे बहुत सन्तुष्ट हुए । उसी वर्ष अमृतसर में अकाल पड़ा था । सम्राट् अकबर ने गुरु के कहने से प्रजाजनों का कर माफ कर दिया ।
गुरु अर्जुन देव की मृत्यु कैसे हुई
कुछ समय बाद जब सम्राट् अकबर का देहान्त हो गया और उनके विशाल साम्राज्य के अधिकारी जहाँगीर हुए, तब गुरु के विद्रोहियों को मानों स्वर्ण-सुयोग मिल गया । जिस कुचेष्टा में वे अबतक सफल नहीं हो सके थे, अब उन्हें उसकी सफलता की बहुत कुछ आशा होने लगी । गुरु के विद्रोहियों और षड़यन्त्रकारी सरकारी कर्मचारियों ने सम्राट् जहाँगीर के पास शिकायत भेजी, कि गुरु ने खुशरू को आश्रय दिया था और उसको हर तरह से सहायता की थीं । जहाँगार हिन्दू या मुसलमान किसी भी धर्म में कोई सुधार करने के विरोधी थे । इसके अतिरिक्त उन्हें यह भी समझाया गया, कि यदि सिक्ख लोगों का बल इसी प्रकार बढ़ता जायेगा, जिस प्रकार इस समय बढ़ रहा है, तो सम्भव है, किसी दिन ये साम्राज्य के लिये भयंकर शत्रु बन खड़े हों । जहाँगीर को गुरु विद्रोहियों की यह मन्त्रणा पसन्द आ गयी । उसके संकुचित मन में यह बात खूब जँच गयी । उन्होंने सिक्खों का दमन करने का निश्चय कर लिया । खुशरू को पनाह देने और उसकी मदद करने का अभियोग गुरु पर लगाया गया । उन पर इस अपराध के लिये दो लाख रुपया जुर्माना किया गया । गुरू अर्जुन देव ने यह जुर्माना देने से अस्वीकार कर दिया । इस पर सम्राट् ने गुरु को गिरफ्तार कराया और उन्हें अपने चण्डू शाह नामक एक अत्यन्त क्रूर एव नीच कर्मचारी के हवाले कर दिया । वह गुरु पर तरह-तरह के पाशविक अत्याचार करने लगा । उन्हें जेल में ठूस दिया । बड़े-बड़े कठोर कर्म कराये । गुरु सब कष्टों को हँसते हुए गले लगाते गये । जो अपनी आत्मा पर विजय प्राप्त कर लेते हैं; बाह्य यन्त्रणाएँ, शारीरिक क्लेश या पार्थिव पीड़ाएँ उनका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकती । उनके मन एवं आत्मा के ऊपर बाहरी कष्ट-क्लेशॉ का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता । अत्याचारी के अत्याचारों का दीवाला बोल जाता है ; पर आत्म विजयी वीर का एक बाल भी बाका नहीं होता ।
अन्त में गुरू के लिये प्राण-दण्ड की आज्ञा हुई । नृशंस चणडूशाह ने उनकी मृत्यु के लिए एक नयी तरकीब सोची । उसने एक विशाल पक्का चूल्हा बनवाया । उसके योग्य एक विशाल कड़ाई भी तैयार कराया । गुरु को उसी कड़ाई में बैठाया गया । नीचे से प्रचण्ड अग्नि धधकने लगी । ऊपर से जल्लाद तेल छिकड़ने लगे । इस प्रकार निर्दयता के साथ गुरु के प्राण लिये गये ।
कितनी भयंकर यन्त्रणा देकर गुरु को जिन्दा भूना गया !! पर गुरु ने उस अवस्था में भी ‘उफ’ नहीं की । उस समय भी उनके चेहरे पर वही शान्ति, वही धैर्य और वही आनन्द झलक रहा था, जो सदा झलका करता था !