हरि किशन सिंह | Hari Kishan Singh
हरिकिशन सिंह जगदीशपुर के बाबू कुँवरसिंह के मुनींम थे । जगदीशपुर राज्य के प्रबन्ध में इनका बहुत बड़ा हाथ था । ये बड़े दिलेर और साहसी थे । देश-भक्ति तथा स्वामि-भक्ति इनमें कूट-कूटकर भरी थीं ।
सन् १८५७ के उपद्रव के समय ये ही ऐसे साहसी थे, जो दानापुर की देशी पलटनों से मिलकर उन्हें आरे लाये थे । जब बाबू कुंवरसिंह देशी पलटनों से मिल गये थे, तथ पलटन के कप्तान का भार एक प्रकार से हरिकिशन सिंह पर था । हरिकिशन सिंह ने बाबू कुंवरसिंह को आरम्भ से अन्त तक दुःख-सुख के साथी होकर यथाशक्ति सब प्रकार की सहायता पहुचायी थी ।
बाबू कुँवर सिंह के स्वर्गवास के बाद भी बाबू अमरसिंह का साथ देकर हरिकिशन सिंह ने विद्रोह के झण्डे को उठाये रखा । लेकिन जब बाबू अमरसिंह ससराम के जंगलों से नेपाल की ओर चले गये, तब हरिकिशन सिंह हताश होकर बनारस की ओर चले गये । वहाँ बाबू साहब के दरबार में रहने वाला राम कवि बनारस की पुलिस का मुखबीर था । वह हरिकिशन सिंह को अच्छी तरह पहचानता था । इसलिये हरिकिशन सिंह जब वहाँ छिपे हुए दिन बिता रहे थे, तब राम कवि ने उन्हें गिरफ्तार कर वहा के कलेक्टर के सुपुर्द कर दिया ।
इसके बाद वे वहाँ से जगदीशपुर लाये गये । वहाँ की जनता तथा परिवार के लोगों के सामने हरिकिशन सिंह फॉसी पर लटका दिये गये। जब वे फांसी के तख्त पर खड़े किये गये, तब इनके परिवार के लोग इन्हें देख कर फूट-फूट कर रोने लगे, इस पर उन्हें धीरज देते हुए वीर हरिकिशन सिंह अपने चाचा से हँसकर बोले,-“चाचाजी ! आप क्यों रो रहे हैं ? आप भी मेरी ही तरह हँसे । क्या आपको इस बात के लिये कुछ भी गौरव नहीं है, कि हरिकिशन ने आपके कुल को पवित्र कर सदा के लिये आप लोगों का मस्तक ऊँचा कर दिया है ?”
वींर हरिकिशन सिंह यद्यपि इस संसार से चले गये, फिर भी इतिहास के पन्ने से उनका नाम नहीं मिट सकता । अपनीं बहादुरी के कारण हरिकिशनसिंह अब भी अमर है ।