कोकिला व्रत की कथा व कोकिला व्रत विधि | कोकिला व्रत की कहानी | Kokila Vrat | Kokila Vrat Katha

कोकिला व्रत की कथा व कोकिला व्रत विधि | कोकिला व्रत की कहानी | Kokila Vrat | Kokila Vrat Katha

जिस साल में अधिक आषाढ़ आता हैं तब यह व्रत प्रथम आषाढ़ की पूर्णिमा से दूसरे आषाढ की पूर्णिमा तक किया जाता हैं । इसमें प्रतिदिन प्रातःकाल में स्नान कर संयम पूर्वक दिन बिताया जाता है। स्नान यदि गंगा यमुना या अन्य नदियों में किया जाय तो अधिक पुण्यदायी होता हैं। इस व्रत में भोजन एक बार करे, धरती पर सोवे तथा ब्रह्मचर्य पालन करे ।

किसी की निन्दा, स्तुति में न पडे, राग द्वेष से दूर रहे । यह व्रत महिलाओं के द्वारा अखण्ड सौभाग्य के लिये किया जाता है ।

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कोकिला व्रत विधि


अठरा बरस सूं कोकीलारो बरत आवे । दो आषाढ महिना आवे, पेलो आषाढ़ अधिक महीनो आवे ओर दूजा आषाढ म कोकीलारो बरत करे । लुगाया महिनो भर नदी पर स्नान ने जावे । नहीं जम्यो तो घरे करे। घरे पाणी में गंगाजल न्हैके । पेलो सप्ताह में सुगंधी उटणी, आवलकंठी, तिली तीनु एकत्र करके स्नान करनो । दूजा सप्ताह में कोष्ट, जटामासी, हरीद्रा, वेखण्ड, चंदन, नागरमोथा, शिलाजीत, मुरा ये सगली जिणसा कुटने अंगनें लगायनें पछे स्नान करणो । तिजा सप्ताह में नीसतो बेखण्ड लगायर स्नान करणो ओर सगली जिनसा एकत्र करणे चौथा सप्ताह में स्नान करे ।

लाखरी कोकीला, आख़ने मोती, तांबारी चोच ओर चांदीरो झाड सुनार कनु करणे लेवनो या मूर्तिरी महिनो भर स्थापना करणी। रोज पूजा आरती करनी। पछे चाय लेवणी । शाम का जिमनो । हविष्य धान खावणो गाय को दूध घी लेवणो । मिरची खावणी नहीं । हातरो पिस्योडो खावणो । दिन भर में कराई कोकीलारी आवाज सुन्या बिना जिमणो नहीं । इसो एक महीनो भर करणो ओर महीनो भर नहीं हुवे तो सात, पांच अथवा तीन दिन तो ही करणो ।

कोकिला व्रत उद्यापन


होम करनो, साडी, पोलको, वायनदान, मंगलसूत्र, बिछुडया, तांबरो, घडो तामण, देवणो ओर ब्राह्मण भोजन करणो ।

कोकिला व्रत की कहानी


प्राचीन काल में दक्ष राजा ने महायज्ञ का आयोजन किया और उसके सबको निमंत्रण भेजे गए । सभी देवताओं और ऋषियों मे ऐसा कोई न था जिसे बुलाया न हो । परन्तु उन्होंने अपने जंवाई शिवजी को निमंत्रण नहीं दिया ।

दक्ष राजा की बेटी सती शिवजी की पत्नी थी, उन्होने आकाश मार्ग से अनेक विमान जाते हुए देखे, जिनमें सभी देवगण अपनी पत्नियों के साथ बैठे थे । उन्होंने शिवजी से पूछा, “प्रभो, ये देवगण कहां जा रहे हैं ?” शिवजी ने बताया, “तुम्हारे पिता के यहां यज्ञ महोत्सव हैं, उसी में शामिल होने के लिए जा रहे हैं । सती नें कहा, नाथ ! हमको भी वहां चलना चाहिए”। शिवजी ने उत्तर दिया, “हमको तो कोई निमंत्रण ही नहीं आया हे प्रिये” !

सती हठ करनें लगी और समझाने पर भी न मानी तो शिवजी ने अपने गणों के साथ उन्हे भेज दिया। परन्तु वहां जानें पर उनका अत्यन्त अपमान किया गया । कोई भी उनसे सीधी बात नहीं करता था उनकी माता और बहने भी पिता के डर से उन के करीब न आयी । यह देखकर दुःखित सती वही अग्नि प्रकट कर भस्म हो गई । तो उनके साथ गए गणों ने यज्ञ का विध्वंस आरम्भ कर दिया । और उनमें से कुछ गण भागकर शिवजी के पास गए और सब समाचार सूचित किया।

सती के भस्म हाने की बात सुनकर शिवजी अत्यन्त क्रोधित हुए । उन्होंने दक्ष यज्ञ विध्वंस करने के लिए वीरभद्र के साथ अपनें गणों की विशाल सेना भेजी । उन सबनें वहां विध्वंस प्रारम्भ किया और दक्ष सहित उनके यहां आये हुए अनेक देवता मार डाले । किसी की आंख फोडी, किसी के दांत उखाड़े । यह देखकर देवताओं ने विष्णु भगवान की प्रार्थना की । विष्णु भगवान ने प्रकट होकर कहा कि “शिवजी को प्रसन्न करनें का प्रयत्त्न करो”। अब सब मिलकर शिवजी की अराधना करने लगे ।

देवताओं की अराधना से प्रसन्न हुए शिवजी प्रकट हो गए । उनके आदेश से ब्रह्मजी ने दक्ष के धड़ से बकरे का सिर लगाकर जोड दिया । जिससे दक्ष जीवित हो गए । इसी प्रकार अन्य देवताओं को भी जीवित किया गया । दक्ष को तो शिवजी नें माफ कर दिया । परन्तु उन्होंने सती को शाप दिया की वो उनकी आज्ञा न मानने के कारण दस हजार वर्ष तक कोकिला बनी हुई वन वन घुमती रहे । इस प्रकार सती दस हजार वर्ष तक कोकिला बनी रह कर फिर पार्वती के रुप मे उत्पन्न हुई और ऋषियों के आज्ञानुसार आषाढ़ के दूसरे मास भर व्रत रखकर शिवजी का पूजन किया । इससे प्रसन्न हुए शिवजी नें पार्वती के साथ विवाह कर लिया । इसलिए इस व्रत का नाम “कोकिला व्रत” हुआ। यह व्रत कुमारी कन्याओं के लिए श्रेष्ठ पति प्राप्त करानें वाला होता है ।

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