अरब और मुहम्मद की कहानी | Muhammad Story in Hindi
एशिया खण्ड के दक्षिण-पश्चिमांचल में, फारस की खाड़ी(Persian Gulf), भारतीय समुद्र(Indian sea), रक्तसागर(Raqt Sagar), हलब प्रदेश(Halab Region) और फुरात(Furat) आदि नदियों से घिरा अरब देश(Arab Country) है। ६,००० मील लम्बे और २,२४० मील चौड़े, रेतीले इस पहाड़ी देश की तुलना कुछ-कुछ हमारे यहाँ के राजस्थान और बीकानेर से हो सकती है। बहुत दिनों तक अरब-निवासी जिसे “बद्दू” “बदु”(Bedouin) कहा जाता है, बकरी-ऊँट चराते, एक स्थान से दूसरे स्थान घमते-फिरते थें ।
“शाम” की भाषा में मरुभूमि को “अरबत्” कहते हैं, इसी से “अरब” शब्द निकला है । यहाँ का उच्चतम पर्वत “सिरात”(Sirat), “यमन”(Yamen) प्रदेश से “शाम” तक फेला हुआ हैं, जिसकी सब से ऊँची चोटी ५,३३३ हाथ ऊँची है। बीच-बीच में कहीं-कहीं विशेषकर “शाम” प्रदेश में खेती के उपयुक्त उपजाऊ भूमि भी है और जहाँ-तहाँ सोने चाँदी की खानें भी पाई जाती हैं ।
अत्यन्त प्राचीन काल में “जदीस (Jadis)”, “आद(Aad)”, “समूद(Samud)” आदि जतियों, जिनका अब नाममात्र शेष है, अरब में निवास करता थीं । किन्तु भारत-सम्राट् हर्षवर्द्धन (Harshavardhana) के सम-सामयिक हजरत मुहम्मद (Muhammad) के समय “क़हतान(Qahtan)” , “इस्माईल(Ishmael)” और “यहूदी(Judaism)” वंश के लोग ही अरब में निवास करते थे।
प्राचीन अरब की सभ्यता के विषय में जर्मन विद्वान् “नवेल्दकी” लिखतें है – ईसा से एक हज़ार वर्ष पूर्व अरब के आग्नेय कोण की सभ्यता चरम सीमा को पहुँची हुई थी । गर्मियों में वर्षा के हो जाने से “सबा(Saba)” और “हमीर(Hammir)” का यह “यमन(Yeman)” देश बड़ा हरा-भरा रहता था। यहाँ की प्रशस्तियाँ और भव्य भवनो के ध्वंसावशेष आज भी, हमें प्रशंसा के लिये प्रेरित करते हैं । समृद्ध-अरब यह यवनों और रोमकों (इटलीवालों) का कहना यहाँ के लिये बिल्कुल उपयुक्त था । “सबा”(Saba) की गौरवसूचक अनेक कथाएँ “बाइबिल”( Bible) ग्रन्थ में पाई जाती हैं, जिनमें “सबा” की महारानी और सुलेमान(Suleiman) की मुलाकात विशेषत: स्मरणीय है । “सबा” वालों ने उत्तर में अरब के “दमश्क़(डमस्कस)( Damascus)” प्रान्त से लेकर “अबीसीनिया (अफ्रीका)( Ethiopian) तक, आरम्भ ही में लेखन कला का प्रचार किया था ।
फारेष्टर महाशय ने अपने भूगोल में शाम के पड़ोसी प्राचीन “नाबत”(Nabat) राज्य के विषय में लिखा है – यूटिङ महाशय ही का यह प्रयत्न है, कि प्राचीन ध्वंसावशिष्ट सामग्रियों द्वारा, लुप्त समूद(Samud) जाति का परिचय हमको मिल सका । आरम्भ में इसके ही द्वारा शिक्षित “नाबत”(Nabat) जाति भी इसके सदृश ही थी, जिसकी कीर्ति अरब की मरुभूमि से “हिजाज़”(Hijaz) और “नज्द”(Najd) तक फैली हुई थी । वाणिज्य व्यवसाय द्वारा धनार्जन में कुशल यह लोग इस्माईल-वंश(ismail-dynasty) अनुरूप युद्ध-भय से भी निर्भय थे । इनके फिलस्तीन(Palestine) तथा शाम पर आक्रमण, और अरब समुद्र में अनेक बार मिश्र के जहाज पर डाका डालने, यूनान के राजाओं को भी इनकी शत्रुता क़े लिये प्रेरित किया था। किन्तु “रोम”(Rome) की सम्मिलित शक्ति क़े अतिरिक्त कोई भी इनको परास्त करने में समर्थ न हुआ। अस्त्राबू (Astrabudúa)के समय अशक्त होकर इन्होंने रोम की सन्दिग्ध अधीनता स्वीकार की थी।
ईसा से कई सौ वर्ष पूर्व, दक्षिण की ओर कोई उच्चतम सभ्यता थी। जिसका वर्णन बहुत से यात्रियों ने किया है । यमन(Yemen) और हज्रमौत (Hadhramaut) में ध्वंसावशेषों है । वहाँ कहीं-कहीं प्रशस्तियाँ भी प्राप्त होती हैं ।
प्राचीन सबा(saba) की राजधानी यारब(Yaarab) नगरी के ध्वंस को अन्नो(Anno), हाल्वे और ग्लाज्री ने देखा है। वहाँ की अवशिष्ट बड़ी खाई के चिह्न, जीणोद्धार किये गये अदन के कुंडों का स्मरण दिलाते हैं। यमन(Yeman) प्रान्त के हरान(Heran) नामक स्थान में ३० हाथ लम्बी खाई मिली है।
मुहम्मद कालीन अरब का विवरण
प्राचीन काल में अरब-निवासी (Arabs) सुसभ्य और शिल्प-कला में प्रवीण थे, परन्तु “नीचैर्गच्छत्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण”( nichargachhatyupari cha dasha chakranemikramen) के अनुसार कालान्तर में उनके वंशज घोर अशिक्षा मे निमग्न हो गए और सारी शिल्पकलाओ को भूलकर ऊँट-बकरी चराना मात्र उनकी जीविका का उपाय रह गया । वह इसके लिए एक स्त्रोत से दूसरे स्रोत, एक स्थान से दूसरे स्थान में, हरे चरागाह की खोजते हुए, खेमों में निवास करके कालक्षेप करने लगे।
कनखजूरा, गोह, गिर्गिट आदि सारे जीव उनके भक्ष्य थे। नर-बलि, व्यभिचार और मद्यपान आदि का उनमें बड़ा प्रचार था ।
इस्लाम के पूर्व पिता की अनगिनत स्त्रियो दाय भाग के तौर पर पुत्रों में बाँट दी जाती थीं, जिन्हें वह अपनी स्त्री बना लेते थे। राजपुत्र “अम्रुल्कैस”(Amrul Cas) कवि के अपने और अपने फूआ की कन्या, सम्बन्धी दुर्यृत्तपूर्ण काव्य(Bad Poetry) को भी बड़ी प्रसन्नता से लोगों ने ‘काबा'(Kaaba) के पवित्र मन्दिर में स्थान दिया था। प्राचीन राज्यों के विध्वंस हो जाने पर परस्पर लड़ने-भिड़ने वाले, क्षुद्र परिवार-सामन्तों का, स्थान-स्थान पर अधिकार था। एक भी आदमी का हत(Killed) होना, उस समय दोनो परिवार के लिये जीवनभर कलह का पर्याप्त बीज हो जाता था। युद्ध के कैदियों के साथ, उनके स्त्री और बच्चों का भी शिरच्छेद(सिर काटकर शरीर से अलग कर देना ) उस समय की प्रथा में अतिसाधारण था। निद्रितों(Sleepy) पर आक्रमण कर लूटने और मारने में कुशल लोग ”फ़ातक”(Phatak) और “फ़त्ताक”(Fattak) शब्दों से अभिपूजित होते थे। प्रज्वलित अग्नि में, जीवित मनुष्य को डाल देना उनके समीप कोई असाधु काम नहीं समझा जाता था।
हिन्दू-पुत्र अम्रू(Amru) ने अपने भाई के मारे जाने पर, एक के बदले सौ के मारने की प्रतिज्ञा की। उसने एक दिन अपने प्रतिपक्ती, “तमीम” (Tamim) वंशिया पर धावा किया, किन्तु लोग बस्ती छोड़कर भाग गये थे । केवल “हमरा”(Hamra) नाम की एक बुढ़िया वहाँ रह गई थी, जिसे उसने जलता आग में डलवा दिया। उसी समय अभाग्य का मारा “अमारा”(Amara) नामक एक भूखा सवार, दूर से धुआँ उठते देख भोजन की आशा से उधर आ निकला। इन लुटेरों के पूछने पर उसने उतर दिया की मैं कई दिन का भूखा हूँ, कुछ खाना मिलने की आशा से आया हूँ। इस पर “अमरू”( अम्रू) (Amru) ने अपने साथियों को आज्ञा दी कि इसको आग में डाल दो ।
कोमल शिशुओं को लक्ष्य बनाकर तीर मारना, असहाय पीड़ा देने के लिये एक-एक अंग को थोड़ा-थोड़ा करके काटना, शत्रु के मुर्दों की नाक-कान काट डालना, यहाँ तक कि उनके कलेजे को खा जाना (‘उहद’ के युद्ध (Jang E Uhad) में ‘हिन्द'(Hind) नामक स्त्री ने ‘हमजा’ (म. मोहम्मद के सहायक) के कलेजे को काटकर खाया था) इत्यादि उस समय के अनेक क्रूर कर्म उनकी नृशंसता के परिचायक थे ।