कमला साधना | कमला साधना मंत्र | कमला साधना पूर्ण सिद्धि | कमला साधना विधि | लक्ष्मी साधना | लक्ष्मी साधना विधि | Kamla Sadhna | Laxmi Sadhna | Laxmi Sadhna Vidhi | Laxmi Sadhna Mantra

कमला साधना | कमला साधना मंत्र | कमला साधना पूर्ण सिद्धि | कमला साधना विधि | लक्ष्मी साधना | लक्ष्मी साधना विधि | Kamla Sadhna | Laxmi Sadhna | Laxmi Sadhna Vidhi | Laxmi Sadhna Mantra

कमला साधना | लक्ष्मी साधना के मन्त्र, यंत्र, तंत्र, जप-होम तथा कवच का वर्णन निम्न है ।

कमला मंत्र | लक्ष्मी मंत्र


“श्रीं” इस एकाक्षर मंत्र से ही कमला (लक्ष्मी) की उपासना करे ।

कमला ध्यान मंत्र


कान्त्या काञ्चनसन्निभां हिमगिरिप्रख्यैश्चतुर्भिर्गजै-
र्हस्तोत्क्षिप्तहिरण्मयामृतघटैरासिच्यमानां श्रियम् ।
विभ्राणां वरमब्जयुग्ममभयं हस्तैः कीरीटोज्ज्वलां
क्षौमाबद्धनितम्बबिम्बललितां वन्देऽरविन्दस्थिताम् ।।

टीका – कमला देवी का शरीर स्वर्ण के समान कान्तिमान् है, इनको हिमगिरि के समान बड़े आकारवाले चार हाथी सूँड उठाकर सुधा से पूर्ण सुवर्ण घड़ों से (कमला का) अभिषेक करते हैं, इनके चार हाथ में वर और अभयमुद्रा तथा दो कमल हैं । मस्तक में रत्नमुकुट पट्टवस्त्र धारे हैं और यह पद्म (कमल) पर स्थित हैं ।

कमला के निमित्त जप होम


बारह लक्ष जपने से इस मन्त्र का पुरश्चरण होता है और घृत, मधु तथा शर्करायुक्त बारह हजार पद्म वा तिल द्वारा होम करना चाहिये ।

कमला स्तोत्र

श्रीलक्ष्म्यै नमः
श्री शंकर उवाच
अथातः संप्रवक्ष्यामि लक्ष्मीस्तोत्रमनुत्तमम् ।
पठनात् श्रवणाद्यस्य नरो मोक्षमवाप्नुयात् ।।

टीका – श्री महादेवजी बोले, हे पार्वति ! अब अतिउत्तम लक्ष्मीस्तोत्र कहता हूँ, इसको पढ़ने वा सुनने से मनुष्यों को मुक्ति (मोक्ष) की प्राप्ति होती है ।

गुह्याद् गुह्यतरं पुण्यं सर्वदेवनमस्कृतम् ।
सर्वमंत्रमयं साक्षाच्छृणु पर्वतनन्दिनि ।।

टीका – हे पर्वतनन्दिनी ! यह गुह्य से गुह्यतर सर्वदेवों से नमस्कृत और सर्व मन्त्रमय है, इसको सुनो ।

अनन्तरूपिणी लक्ष्मीरपारगुणसागरी ।
अणिमादिसिद्धिदात्री शिरसा प्रणमाम्यहम् ।।

टीका – हे देवी लक्ष्मी ! तुम अनन्तरूपिणी और अपार गुणों की सागरस्वरूप हो और तुम्हीं प्रसन्न होकर अणिमादि सिद्धि देती हो, मैं तुमको मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ ।

आपदुद्धारिणी त्वं हि आद्या शक्ति: शुभा परा ।
आद्या आनन्ददात्री च शिरसा प्रणमाम्यहम् ।।

टीका – हे लक्ष्मी देवी ! तुम्हीं प्रसन्न होकर नम्र हुए भक्तों को विपद् से उद्धार करती हो, तुम्हीं कल्याणी और आद्याशक्ति हो, तुम्हीं सबकी आदि और तुम्हीं आनन्ददायिनी हो, मैं तुमको मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ ।

इन्दुमुखी इष्टदात्री इष्टमंत्रस्वरूपिणी ।
इच्छामयी जगन्मातः शिरसाप्रणमाम्यहम् ।।

टीका – हे देवी, जगन्माता लक्ष्मी ! तुम्हारा मुख पूर्णचन्द्रमा की भाँति प्रकाशमान है, तुम्हीं इष्टमन्त्र-स्वरूपिणी और इच्छामयी हो और तुम्हीं अभीष्ट फल देती हो, तुमको मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ ।

उमा उमापतेस्त्वन्तु ह्युत्कण्ठाकुलनाशिनी ।
उर्वीश्वरी जगन्मातर्लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ।।

टीका – हे देवी लक्ष्मी ! तुम्हीं उमापति की उमा हो, तुम्हीं उत्कण्ठित मनुष्यों की उत्कण्ठा का नाश करती हो, तुम्हीं पृथ्वी की स्वामिनी (ईश्वरी) हो, तुमको नमस्कार करता हूँ ।

ऐरावतपतिपूज्या ऐश्वर्याणां प्रदायिनी ।
औदार्य्यगुणसम्पन्ना लक्ष्मि देवि! नमोऽस्तु ते ।।

टीका – हे देवि ! तुम्हीं ऐरावतपति देवराज इन्द्र की वन्दनीया हो, तुम्हीं प्रसन्न होने पर सम्पूर्ण ऐश्वर्य प्रदान कर सकती हो, तुम्हीं उदारतापूर्ण गुणों से विभूषित हो, तुमको नमस्कार करता हूँ ।

कृष्णवक्षःस्थिता देवि कलिकल्मषनाशिनी ।
कृष्णचित्तहरा कर्त्री शिरसा प्रणमाम्यहम् ।।

टीका – हे कमले देवी ! तुम सदा श्रीकृष्ण के वक्षःस्थल में विराजमान रहती हो, तुम्हारे बिना और कोई भी कलिकल्मषध्वंस करने में समर्थ नहीं है, तुमने ही श्रीकृष्ण का चित्त हरण किया है, अतः तुम्हीं सर्वकर्त्री हो, तुमको मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ ।

कन्दर्पदमना देवि कल्याणी कमलानना ।
करुणार्णवसम्पूर्णा शिरसा प्रणमाम्यहम् ।।

टीका – हे देवी ! तुमने ही कामदेव के दर्प का दमन किया है, तुम्हीं कल्याणमयी हो, तुम्हारा मुख कमल की भाँति मनोहर है और तुम्हीं दया की एकमात्र सागरस्वरूपा हो, मैं तुमको मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ ।

खञ्जनाक्षी खंजनासा देवि खेदविनाशिनी ।
खंजरीटगतिश्चैव शिरसा प्रणमाम्यहम् ।।

टीका – हे देवि ! तुम खञ्जनाक्षी अर्थात् खञ्जन के नेत्रों की भाँति सुनयना हो, तुम्हारी नासिका गरुड़ की नासिका के समान मनोहर है, तुम अपने आश्रित जनों का खेद विनाश करती हो और तुम्हारी गति (चाल) खञ्जरीट के समान है, मैं तुमको मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ ।

गोविन्दवल्लभा देवी गन्धर्वकुलपावनी ।
गोलोकवासिन मातः शिरसाप्रणमाम्यहम् ।।

टीका – हे जननि ! तुम बैकुण्ठाधिपति गोविन्द की प्रियतमा अर्थात् प्यारी हो, तुम्हारे अनुग्रह से ही गन्धर्वकुल पवित्र हुआ तथा तुम सर्वदा गोलोक-धाम में विहार (निवास) करती हो, मैं मस्तक झुकाकर तुमको प्रणाम करता हूँ ।

ज्ञानदा गुणदा देवि गुणाध्यक्षा गुणाकरी ।
गन्धपुष्पधरा मातः शिरसा प्रणमाम्यहम् ।।

टीका – हे माता ! तुम्हीं एकमात्र ज्ञान को देनेवाली और गुणों की दायिनी हो, तुम्हीं गुणों की अध्यक्षा और तुम्हीं गुणों की आधार हो । हे माता, तुम गन्ध-पुष्प द्वारा निरन्तर शोभित रहती हो, मैं मस्तक झुकाकर तुमको प्रणाम करता हूँ ।

घनश्यामप्रिय देवि घोरसंसारतारिणी ।
घोरपापहरा चैव शिरसा प्रणमाम्यहम् ।।

टीका – हे कमले ! तुम्हीं घनश्याम हरि की प्रियतमा अर्थात् प्यारी हो, तुम्हीं घोरतर संसार-सागर से रक्षा कर सकती हो, तुम्हारे अतिरिक्त और कोई भी भयंकर पापों से उद्धार करने में समर्थ नहीं है, अतः मैं तुमको मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ ।

चतुर्वेदमयी चिन्त्या चित्तचैतन्यदायिनी ।
चतुराननपूज्या च शिरसा प्रणमाम्यहम् ।।

टीका – हे लक्ष्मी ! तुम्हीं चतुर्वेदमयी और एकमात्र तुम्हीं योगिगणों की चिन्तनीया हो, तुम्हारे प्रसाद से ही चित्त में चैतन्यता का संचार होता है, जगत्पति चतुरानन (ब्रह्मा) भी तुम्हारी पूजा करते हैं, अतएव हे माता, मैं तुमको मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ ।

चैतन्यरूपिणी देवि चन्द्रकोटिसमप्रभा ।
चन्द्रार्कनखज्ज्योतिर्लक्ष्मि देवि नमाम्यहम् ।।

टीका – हे देवी ! तुम चैतन्यरूपिणी हो, तुम्हारे देह की कान्ति करोड़ों चन्द्रमा के समान रमणीय है, तुम्हारे चरणों की दीप्ति चन्द्र-सूर्य की कांति से भी अधिक देदीप्यमान है, हे लक्ष्मी, मैं तुमको नमस्कार करता हूँ ।

चपला चतुराध्यक्षो चरमे गतिदायिनी ।
चराचरेश्वरी लक्ष्मि शिरसा प्रणमाम्यहम् ।।

टीका – हे देवी लक्ष्मी ! तुम सदा एक ही स्थान में वास नहीं करती, इसलिये तुम्हारा ‘चपला’ (चंचला) नाम हुआ है, अंतकाल में एकमात्र तुम्हीं गति देती हो, तुम्हीं चराचर जीवों की अधीश्वरी (स्वामिनी) हो, मैं तुमको मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ ।

छत्रचामरयुक्ता च छलचातुर्य्यनाशिनी ।
छिद्रौघहारिणी मातः शिरसा प्रणमाम्यहम् ।।

हे जननि ! तुम्हीं शोभायमान छत्र और चामर से परम शोभा पाती हो, छल-चातुरी (छल चातुर्य) सब ही तुम्हारे प्रभाव से नाश होते हैं, तुम्हीं छिद्र अर्थात् पापसमूहों को नष्ट करती हो; अतः मैं मस्तक झुकाकर तुमको प्रणाम करता हूँ ।

जगन्माता जगत्कर्त्री जगदाधाररूपिणी ।
जयप्रदा जानकी च शिरसाप्रणमाम्यहम् ।।

हे जननि ! तुम्हीं जगत् की माता हो, तुम्हीं जगत् का एकमात्र आधार तथा जयदात्री हो और तुम्हीं जानकी रूप से पृथ्वी में अवतीर्ण हुई हो, अतः मैं मस्तक झुकाकर तुमको प्रणाण करता हूँ ।

जानकीशप्रिय त्वं हि जनकोत्सवदायिनी ।
जीवात्मना च त्वं मातः शिरसाप्रणमाम्यहम् ।।

टीका – हे माता ! तुम्हीं जानकीपति श्रीरामचन्द्रकी सहधर्मिणी (प्रियतमा) हो, तुम्हीं राजा जनक को आनन्द देनेवाली हो और तुम्ही सर्वजीवों (प्राणियों) की आत्मस्वरूपा (आत्मा) हो, मैं मस्तक झुकाकर तुमको प्रणाम करता हूँ ।

झिञ्झीरवस्वना देवि झंझावातनिवारिणी ।
झर्झरप्रियवाद्या च शिरसा प्रणमाम्यहम् ।।

टीका – हे देवी ! तुम्हारे कण्ठ का स्वर झिञ्झी -रव की भाँति मधुर है, तुम झंझावात वर्षायुक्त वायु के हाथ से सहज में ही रक्षा करने वाली हो। तुम गोवर्द्धनादि पर्वतों में झर्झरवाद्य में अत्यन्त अनुरक्त हो, मैं तुमको मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ ।

अर्थप्रदायिनी त्वं हि त्वञ्च ठकाररूपिणी ।
ढक्कादिवाद्यप्रणया डम्फवाद्यविनोदिनी ॥
डमरूप्रणया मातः शिरसा प्रणमाम्यहम् ।।

टीका – हे माता ! एकमात्र तुम्हीं अर्थ प्रदान करने वाली हो, तुम्हीं ठकारपिणी (चन्द्रमण्डलस्वरूपिणी) हो, डमरू और डम्फ वाद्य से तुमको अत्यन्त प्रसन्नता होती है और ढक्कादि वाद्य (यर्मादिवेष्टित बाजा) तुम्हें प्रिय है, मैं मस्तक झुकाकर चरण-कमलों में तुम्हें प्रणाम करता हूँ ।

तप्तकांचनवर्णाभा त्रैलोक्यलोकतारिणीम् ।
त्रिलोकजननी लक्ष्मि शिरसा प्रणमाम्यहम् ।।

टीका – हे देवी लक्ष्मी ! तुम्हारे शरीर का वर्ण तपे हुए काञ्चन की भाँति उज्जवल है, तुम त्रैलोक्यवासी जीवों की रक्षा करती हो, तुम्हीं त्रिलोक की जननी हो, मैं मस्तक झुकाकर तुमको प्रणाम करता हूँ ।

त्रैलोक्यसुन्दरी त्वं हि तापत्रयनिवारिणी ।
त्रिगुणधारिणी मातः शिरसा प्रणमाम्यहम् ।।

टीका – हे जननी ! तुम त्रैलोक्यसुन्दरी हो, तुम्हीं तीनों प्रकार के तापों को विनाश करती हो, तुम्हीं सत्त्व, रज और तमोगुणधारिणी हो, मैं तुमको मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ ।

त्रैलोक्यमंगला त्वं हि तीर्थमूलपदद्वया ।
त्रिकालज्ञा त्राणकर्त्री शिरसा प्रणमाम्यहम् ।।

टीका – हे देवी ! तुम्हीं तीनों लोकों का मंगल करती हो, तुम्हारे दोनों चरण सम्पूर्ण तीर्थ के मूल रूप हैं। तुम ‘त्रिकाल’ भूत, भविष्य और वर्तमान को जानती हो, तुम्हीं जीवों की रक्षा करने वाली हो, मैं तुमको मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ ।

दुर्गतिनाशिनी त्वं हि दारिद्यापद्विनाशिनी ।
द्वारकावासिनी मातः शिरसा प्रणमाम्यहम् ।।

टीका – हे जननी ! तुम आपदा, दुर्गति और दरिद्र मनुष्य की दरिद्रता दूर करती हो, तुम्हीं द्वारकापुरी में निवास करने वाली हो। मैं मस्तक झुकाकर तुमको प्रणाम करता हूँ ।

देवतानां दुराराध्या दुःखशोकविनाशिनी ।
दिव्याभरणभूषांगी शिरसा प्रणमाम्यहम् ।।

टीका – हे देवी ! देवता भी बहुत आराधना अथवा बहुत कष्ट से तुमको पाते हैं, तुम प्रसन्न होने पर सम्पूर्ण शोक, दुःख नष्टकर देती हो, तुम दिव्य भूषणों,वस्त्रालंकारों से शोभायमान हो, मैं मस्तक झुकाकर तुमको प्रणाम करता हूँ ।

दामोदरप्रिया त्वं हि दिव्ययोगप्रदर्शिनी ।
दयामयी दयाध्यक्षी शिरसा प्रणमाम्यहम् ।।

टीका – हे जननी ! तुम दामोदर की प्रिया हो, तुम्हारे प्रसाद से ही दिव्य योग प्राप्त होते हैं, तुम्हीं दयामयी और दया की अधिष्ठात्री हो, मैं तुमको मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ ।

ध्यानातीता धराध्यक्षा धनधान्यप्रदायिनी ।
धर्मदा धैर्यदा मातः शिरसा प्रणमाम्यहम् ।।

टीका – हे माता ! तुम ध्यान से परे हो, तुम्हीं पृथ्वी की अध्यक्षा और तुम्हीं भक्तों को धन-धान्य इत्यादि प्रदान करती हो, तुम्ही धर्म और धैर्य देती हो, मैं मस्तक झुकाकर तुमको प्रणाम करता हूँ ।

नवगोरोचना गौरी नन्दनन्दनगेहिनी ।
नवयौवनचार्वङ्गी शिरसा प्रणमाम्यहम् ।।

टीका – हे देवी ! तुम नवगोरोचन की भाँति गौरवर्ण हो, तुम्हीं नन्दनन्दन हरि की प्रियतमा हो, तुम्हीं नवयौवन के कारण परम कान्तिमती हो, मैं तुमको मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ ।

नानारत्नादिभूषाढ्या नानारत्नप्रदायिनी ।
नितम्बिनी नलिनाक्षी लक्ष्मि देवी नमोऽस्तु ते ।।

टीका – हे देवी ! तुम अनेक प्रकार के रत्नादि आभूषणों से विभूषित होकर परम शोभा पाती हो, तुम्हीं प्रसन्न होने पर नाना रत्न प्रदान करती हो, तुम्हीं विशाल नितम्बवती हो और तुम्हारे नेत्र, कमल के पत्ते की भाँति चौड़े हैं । मैं तुमको शिर झुकाकर प्रणाम करता हूँ ।

निधुवनप्रेमानन्दा निराश्रयगतिप्रदा ।
निर्विकारा नित्यरूपा लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ।।

टीका – हे देवी लक्ष्मी! तुम विकाररहित तथा नित्यरूपिणी हो, निधुवन में विहार करने से तुमको प्रेमानन्द की प्राप्ति होती है, तुम्हीं निराश्रय जन को गति देती हो, मैं तुमको नमस्कार करता हूँ ।

पूर्णानन्दमयी त्वं हि पूर्णब्रह्मसनातनी ।
परा शक्तिः परा भक्तिर्लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ।।

टीका – हे देवी लक्ष्मी ! तुम पूर्णानन्ददायिनी हो, तुम्हीं पूर्णब्रह्मस्वरूपिणी हो, तुम्हीं परमशक्ति और तुम्हीं परम भक्तिस्वरूपा हो, मैं तुमको नमस्कार करता हूँ ।

पूर्णचन्द्रमुखी त्वं हि परानन्दप्रदायिनी ।
परमार्थप्रदा लक्ष्मि शिरसा प्रणमाम्यहम् ।।

टीका – हे देवी लक्ष्मी ! तुम्हारा वदन पूर्णचन्द्रमा की भाँति शोभायमान है, तुम्हीं परमानन्द और परमार्थ दान करती हो, मैं मस्तक झुकाकर तुमको प्रणाम करता हूँ ।

पुण्डरीकाक्षिणी त्वं हि पुण्डरीकाक्षगेहिनी ।
पद्मरागधरा त्वं हि शिरसा प्रणमाम्यहम् ।।

टीका – हे माता ! तुम्हारे नेत्र कमल की भाँति विस्तृत हैं, तुम्हीं पुण्डरीकाक्ष हरि की गृहस्वामिनी हो, तुम्हीं पद्मरागमणि धारण करके शोभा पाती हो, मैं मस्तक झुकाकर तुमको प्रणाम करता हूँ ।

पद्मा पद्मासना त्वं हि पद्ममालाविधारिणी।
प्रणवरूपिणी मातः शिरसा प्रणमाम्यहम् ।।

टीका – हे माता ! तुम पद्मासन पर विराजमान रहती हो, इसीलिए तुम्हारा ‘पद्मा’ नाम हुआ है, तुम्हारे गले में मनोहर पद्ममाला रहती है, तुम्हीं ओंकाररूपिणी हो, मैं तुमको मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ ।

फुल्लेन्दुवदना त्वं हि फणिवेणिविमोहिनी ।
फणिशायिप्रिया मातः शिरसा प्रणमाम्यहम् ।।

टीका – हे जननी ! तुम्हारा मुख शुभ्र चन्द्रमा की किरण की भाँति निर्मल है, तुम्हारे शिर की वेणी सर्प (नागिन) की भाँति लम्बायमान होकर परम शोभा पाती है । तुम शेष-शायी देवदेव हरि की गृहिणी हो, मैं मस्तक झुकाकर तुमको प्रणाम करता हूँ ।

विश्वकर्त्री विश्वभर्त्री विश्वत्रात्रीविश्वेश्वरी ।

विश्वाराध्या विश्वबाह्या लक्ष्मि देवि नमोऽस्तुते ।।

टीका – हे लक्ष्मी देवी! तुम्हीं विश्व का निर्माण करने वाली, तुम्हीं विश्व का पालन करने वाली और तुम्हीं सम्पूर्ण विश्व की ईश्वरी हो, तुम्हीं विश्ववासी जीवों की आराध्या और तुम्हीं विश्व में सर्वत्र दीप्तिमान् रहती हो, तुम्हीं विश्व से परे हो, मैं तुमको नमस्कार करता हूँ ।

विष्णुप्रिया विष्णुशक्तिर्बीजमंत्रस्वरूपिणी ।
वरदा वाक्यसिद्धा च शिरसा प्रणमाम्यहम् ।।

टीका – हे देवी ! तुम विष्णु की प्रिया हो और तुम्हीं विष्णु की एकमात्र शक्ति हो, तुम्हीं बीजमंत्र स्वरूपिणी, तुम्हीं वरदायिनी वाक्यसिद्धा हो, मैं मस्तक झुकाकर तुमको प्रणाम करता हूँ ।

वेणुवाद्यप्रिया त्वं हि वंशीवाद्यविनोदिनी ।
विद्युत्गौरी महादेवि लक्ष्मि देवि नमोऽस्तुते ।।

टीका – हे महादेवि! हे कमले! तुम विद्युत की भाँति गौरवर्ण हो, वेणुवाद्य और दूसरे शब्द से तुमको परम प्रीति का संचार होता है, तुमको नमस्कार है ।

भुक्तिमुक्तिप्रदा त्वं हि भक्तानुग्रहकारिणी ।
भवार्णवत्राणकर्त्री लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ।।

टीका – हे कमले ! तुम भुक्ति और मुक्तिदायिनी हो, तुम भक्तों के प्रति अनुग्रह दिखाती हो और तुम्हीं आश्रित जनों को भवसागर से पार करती हो । मैं तुमको नमस्कार करता हूँ ।

भक्तप्रिया भागीरथी भक्तमंगलदायिनी ।
भयदा भयदात्री च लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ।।

टीका – हे लक्ष्मी ! तुम भक्तों के प्रति आन्तरिक स्नेह प्रकाशित करती हो, तुम्हीं भागीरथी गंगास्वरूपिणी और कल्याणदायिनी हो, तुम्हीं दुष्टों को भय देती और शरणागतों को अभय देती हो। तुमको नमस्कार है ।

मनोऽभीष्टप्रदा त्वं हि महामोहविनाशिनी ।
मोक्षदा मानदात्री च लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ।।

टीका – हे लक्ष्मी देवि ! तुम मनोरथ पूर्ण करती और महामोह का नाश करती हो, तुम्हीं मोक्ष और मान-सम्मान देती हो, तुमको नमस्कार है ।

महाधन्या महामान्या माधवस्यात्ममोहिनी ।
मुखराप्राणहन्त्री च लक्ष्मि देवि नमोऽस्तुते ।।

टीका – हे लक्ष्मी देवी ! हे कमले ! तुम्हीं परम धन्या और माननीया हो, धन्यवाद में क्या सम्मान में तुम्हारी अपेक्षा श्रेष्ठ दूसरा नहीं है, तुमने ही माधव का मन मोहित किया है, जो स्त्रियाँ बहुत बोलनेवाली हैं, तुम उनका विनाश करती हो, तुमको नमस्कार है ।

यौवनपूर्णसौन्दर्य्या योगमाया तथेश्वरी ।
युग्म-श्रीफलवृक्षा च लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ।।

टीका – हे लक्ष्मी! तुम पूर्ण यौवन के कारण परम कान्तिवान् हो । तुम्हीं मूर्तिमान्, योगमाया और तुम्हीं योग की ईश्वरी हो, तुम्हारे हृदय पर नारियल के समान ऊँचे दो कुच (स्तन) शोभा पाते हैं, मैं तुमको नमस्कार करता हूँ ।

युग्माङ्गदविभूषाढ्या युवतीनां शिरोमणिः ।
यशोदासुतपत्नी च लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ।।

टीका – हे कमले देवि ! तुम्हारी दोनों बाहुओं में दो अंग बाजूबन्द धारण किये हैं, तुम्हीं युवतियों में शिरोमणि हो, तुम्हीं यशोदानन्द की पत्नी हो, तुमको नमस्कार है ।

रूपयौवनसम्पन्ना रत्नालंकारधारिणी।
राकेन्दुकोटिसौन्दर्य्या लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ।।

टीका – हे लक्ष्मीदेवी ! तुम परम रूपवती और यौवनसम्पन्न, रत्नालंकारों से विभूषित होकर परम शोभा धारण करती हो, तुम्हारी कान्ति करोड़ों पूर्ण चन्द्रमा से भी उज्जवल है; तुमको नमस्कार है ।

रमा रामा रामपत्नी राजराजेश्वरी तथा ।
राज्यदा राज्यहन्त्री च लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ।।

टीका – हे लक्ष्मी देवि ! तुम्हीं रमा, रामा, रामपत्नी, जानकी, राजराजेश्वरी और प्रसन्न होने पर राज्य प्रदान करने वाली हो और तुम्हीं कुपित होकर राज्य का विनाश करती हो, तुमको नमस्कार है ।

लीलालावण्यसम्पन्ना लोकानुग्रहकारिणी ।
ललना प्रीतिदात्री च लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ।।

टीका – हे लक्ष्मी ! तुम लीला में प्रीति करती और लावण्य सम्पन्न हो, तुम्हीं लोगों पर अनुग्रह करती हो, स्त्रीजन तुम्हारे द्वारा परम प्रीति लाभ करती हैं, तुमको नमस्कार है ।

विद्याधरी तथा विद्या वसुदा त्वं तु वन्दिता ।
विन्ध्याचलवासिनी च लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ।।

टीका – हे लक्ष्मी देवि ! तुम विद्या, विद्याधरी, धनदायक (धनदात्री) और तुम्हीं एकमात्र वंदनीया हो, तुम्हीं विन्ध्यवासिनीरूप में विन्ध्याचल में निवास करती हो, तुमको नमस्कार है ।

शुभकाञ्चनगौराङ्गी शंखकंकणधारिणी ।
शुभदा शीलसम्पन्ना लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ।।

टीका – हे कमले देवी ! तुम निर्मल काञ्चन की भाँति गौर वर्ण हो, तुम्हारे हाथ में शंख और कंकण विराजमान रहता है, तुम कल्याणदायिनी और सच्चरितसम्पन्न हो, तुमको नमस्कार है ।

षट्चक्रभेदिनी त्वं हि षडैश्वर्य्यप्रदायिनी ।
षोडशी वयसा त्वन्तु लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ।।

टीका – हे लक्ष्मी देवी ! तुम्हीं षट्चक्रभेदिनी हो और तुम्हीं छः प्रकार का ऐश्वर्य प्रदान करती हो, तुम्हीं सोलह वर्ष की अवस्था वाली नवयुवती हो, तुमको नमस्कार है ।

सदानन्दमयी त्वं हि सर्वसम्पत्तिदायिनी ।
संसारतारिणी देवि शिरसा प्रणमाम्यहम् ।।

टीका – हे कमले देवी ! तुम सदानन्दमयी हो, तुम्हीं सर्वसम्पत्ति देने में समर्थ हो और तुम्हीं इस घोर संसार से रक्षा कर सकती हो, मैं मस्तक झुकाकर तुमको प्रणाम करता हूँ ।

सुकेशी सुखदा देवि सुन्दरी सुमनोरमा ।
सुरेश्वरी सिद्धिदात्री शिरसा प्रणमाम्यहम् ।।

टीका – हे देवी ! तुम सुन्दर केशों वाली परमसुन्दरी, मनमोहिनी हो, तुम्हीं देवताओं की ईश्वरी और सिद्धिप्रदायिनी हो, तुम्हारे अनुग्रह से ही सुख प्राप्त होता है, मैं मस्तक झुकाकर तुमको प्रणाम करता हूँ ।

सर्वसंकष्टहन्त्री त्वं सत्यसत्त्वगुणान्विता ।
सीतापतिप्रिया देवी शिरसा प्रणमाम्यहम् ।।

टीका – हे देवि ! तुम सम्पूर्ण संकट दूर करती हो, तुम सत्यपरायण और सत्त्वगुणशालिनी हो, तुमने ही सीतापति रामचन्द्र की पत्नी रूप से अयोध्यापुरी को पवित्र किया है, मैं मस्तक झुकाकर तुमको प्रणाम करता हूँ ।

हेमांगिनी हास्यमुखी हरिचित्तविमोहिनी ।
हरिपादप्रिया देवि शिरसा प्रणमाम्यहम् ।।

टीका – हे देवी ! तुम तप्तकांचन की भाँति गौरवर्ण हो, तुमने हरि का मन मोहित किया है, हरि के चरणों में ही तुम्हारा मन अत्यन्त आसक्त रहता है, मैं मस्तक झुकाकर तुमको प्रणाम करता हूँ ।

क्षेमंकरी क्षमादात्री क्षौमवासोविधारिणी ।
क्षीणमध्या च क्षेत्राङ्गी लक्ष्मि देवि नमोऽस्तु ते ।

टीका – हे लक्ष्मी देवि ! तुम कल्याण करने वाली, मोक्षदात्री, क्षौम वस्त्रधारिणी हो, तुम्हारी कमर क्षीण होने से परम शोभा पाती है, तुम्हारे अंग में संपूर्ण तीर्थ और क्षेत्र विद्यमान हैं, तुमको नमस्कार है ।

श्री शंकर उवाच

अकारादिक्षकारान्तं लक्ष्मीदेव्याः स्तवं शुभम् ।
पठितव्यं प्रयत्नेन त्रिसन्ध्यञ्च दिने दिने ।।

टीका – श्री महादेव जी बोले-हे पार्वती! तुम्हारे पूछने के अनुसार मैं लक्ष्मी माहात्म्य और अकारादि क्षकारान्त वर्णमय लक्ष्मीस्तोत्र का वर्णन करता हूँ। इस कल्याणकारी स्तोत्र का प्रतिदिन तीनों सन्ध्याओं में यत्नपूर्वक पाठ करना चाहिए ।

पूजनीया प्रयत्नेन कमला करुणामयी ।
वाञ्छाकल्पलता साक्षाद्भुक्तिमुक्तिप्रदायिनी ।।

टीका – जो अभिलषित देने में कल्पलतिका स्वरूप हैं, जो भुक्ति और मुक्ति प्रदान करती हैं, उन्हीं करुणामयी कमला की यत्नसहित पूजा करें ।

इदं स्तोत्रं पठेद्यस्तु शृणुयात् श्रावयेदपि ।
इष्टसिद्धिर्भवेत्तस्य सत्यं सत्यं हि पार्वति ।।

टीका – जो मनुष्य इस लक्ष्मी स्तोत्र को पढ़ते, अथवा सुनते हैं तथा दूसरे मनुष्य को सुनाते हैं, हे पार्वती ! उनके सम्पूर्ण मनोरथ सिद्ध होते हैं, इसमें सन्देह नहीं है ।

इदं स्तोत्रं महापुण्यं यः पठेद्भक्तिसंयुतः ।
तञ्च दृष्ट्वा भवेन्मूको वादी सत्यं न संशयः ।।

टीका – हे गिरिजे ! जो पुरुष भक्तिसहित इस पवित्र स्तोत्र का पाठ करते हैं, उनके दर्शन मात्रसे ही वादी मुकताको प्राप्त होता है, इसमें संशय नहीं है ।

शृणुयाच्छावयेद्यस्तु पठेद्वा पाठयेदपि ।
राजाना वशमायान्ति तं दृष्ट्वा गिरिनन्दिनि ।।

टीका – हे गिरिनन्दिनी ! जो इस स्तोत्र को सुनते तथा दूसरों को सुनाते व अध्ययन करते हैं, दूसरे को पढ़ाते हैं, उनके दर्शनमात्र से ही राजा लोग वशीभूत होते हैं ।

तं दृष्ट्वा दुष्टसङ्घाश्च पलायन्ते दिशो दश ।
भूतप्रेतग्रहा यक्षा राक्षसाः पन्नगादयः ।।
विद्रवन्ति भयार्ता वै स्तोत्रस्यापि च कीर्त्तनात् ।

टीका – जो मनुष्य इस लक्ष्मी स्तोत्र का कीर्त्तन करते हैं, उनके दर्शनमात्र से ही दुष्टगण दशों दिशा में भाग जाते हैं, यानी भूत, प्रेत, ग्रह, यक्ष, राक्षस, सर्प आदि सभी डरकर चले जाते हैं, इसमें सन्देह नहीं ।

सुराश्च ह्यसुराश्चैव गन्धर्वकिन्नरादयः ।
प्रणमन्ति सदा भक्त्या तं दृष्ट्वा पाठकं मुदा ।।

टीका – जो पुरुष इस स्तोत्र का पाठ करते हैं, उनको देवता, दानव, गन्धर्व, किन्नर आदि दर्शनमात्र से ही आनन्द और भक्तिसहित प्रणाम करते हैं ।

धनार्थी लभते चार्थ पुत्रार्थी च सुतं लभेत् ।
राज्यार्थी लभते राज्यं स्तवराजस्यकीर्त्तनात् ।।

टीका – इस स्तव का कीर्त्तन करने से धनार्थी धन, पुत्रार्थी पुत्र और राज्यार्थी राज्य को प्राप्त होता है ।

ब्रह्महत्या सुरापानं स्तेयं गुर्वंगनागमः ।
महापापोपपापञ्च तरन्ति स्तवकीर्त्तनात् ।।

टीका – इस स्तव के कीर्त्तन करने से ब्रह्महत्या, सुरापान, चोरी, गुरु-स्त्रीगमन जैसे महापातक, उपपातक आदि सम्पूर्ण पापों से छुटकारा होता है ।

गद्यपद्यमयी वाणी मुखात्तस्य प्रजायते ।
अष्टसिद्धिमवाप्नोति लक्ष्मीस्तोत्रस्य कीर्त्तनात् ।।

टीका – इस लक्ष्मी स्तोत्र के कीर्त्तन, पाठ करने से अपने आप ही मुख से गद्य-पद्यमयी वाणी प्रादुर्भूत होती है और कीर्त्तन करने वाले को आठ प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त होती है ।

वन्ध्या चापि लभेत् पुत्रं गर्भिणी प्रसवेत्सुतम् ।
पठनात्स्मरणात् सत्यं वच्मि ते गिरिनन्दिनी ।।

हे पर्वतनन्दिनि ! इस स्तोत्र के पढ़ने वा स्मरण करने से, बंध्या (बाँझ) स्त्री भी पुत्र प्राप्त करती है और गर्भवती स्त्री को श्रेष्ठ पुत्र प्राप्त होता है ।

भूर्जपत्रे समालिख्य रोचनाकुंकुमेन तु ।
भक्त्या संपूजयेद्यस्तु गन्धपुष्पाक्षतैस्तथा ।।
धारयेद्दक्षिणे बाहौ पुरुषः सिद्धिकांक्षया ।
योषिद्वामभुजे धृत्वा सर्वसौख्यमयी भवेत् ।।

टीका – जो पुरुष लक्ष्मी की कामना करते हैं वे भोजपत्र पर रोचना और कुंकुम द्वारा इस स्तव को लिखकर गन्ध-पुष्पा आदि से भक्तिपूर्वक अर्चना करके दाहिनी भुजा में धारण करें और स्त्रियाँ वाम भुजा में धारण करने से सर्वसुखों से सुखी होती हैं ।

विषं निर्विषतां याति अग्निर्याति च शीतताम् ।
शत्रवो मित्रतां यान्ति स्तवस्यास्य प्रसादतः ।।

टीका – इस स्तव के प्रसाद से विष में निर्विषता, अग्नि में शीतलता और शत्रुओं में मित्रता होती है ।

बहुना किमिहोक्तेन स्तवस्यास्य प्रसादतः ।
वैकुण्ठे च वसेन्नित्यं सत्यं वच्मि सुरेश्वरि ।।

टीका – हे सुरेश्वरि ! इसका माहात्म्य में और अधिक क्या वर्णन करूँ? इसके प्रसाद से अन्त समय में वैकुण्ठधाम में वास होता है, इसमें सन्देह नहीं ।

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