वारिस अली शाह | Waris Ali Shah

वारिस अली शाह | Waris Ali Shah

कहावत है “होनहार बिरवान के होत चीकने पात”। इसका मतलब यह है कि जो लोग महापुरुष होते हैं वे आरंभ से ही अपनी महानता के लक्षण प्रकट करने लगते हैं। ऐसे ही एक महापुरुष सूफी संत वारिसअली शाह थे।

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वारिस अली शाह का जन्म


वारिस अली शाह का जन्म १८१९ को उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले में देवा नामक कस्बे में हुआ था। जिस परिवार में उन्होंने जन्म लिया था, वह हुसैनी सैयदों का परिवार कहलाता था। यह परिवार अपनी विद्वत्ता और पवित्रता के लिए प्रसिद्ध था। शाह साहब के पिता कुर्बान अली जाने-माने व्यक्ति थे। उन्होंने बगदाद में शिक्षा पाई थी। उनकी गणना उस समय के आलिमों में की जाती थी। शाह साहब के जन्म के समय अंग्रेज़ी राज्य अवध तक फैल चुका था। जिस इलाके में वारिसअली शाह का जन्म हुआ था वह अवध में पड़ता था।

वारिस अली शाह की शिक्षा


जिन लोगों को उन्नति के शिखर पर पहुंचना होता है, भगवान उनकी परीक्षा भी बहुत कठिन लेता है। वारिस अली शाह तीन वर्ष के भी नहीं हुए थे कि उनके माता-पिता दोनों ही नहीं रहे। लेकिन इससे वारिसअली शाह के मार्ग में कोई बाधा नहीं पड़ी। उनका लालन-पालन उनकी दादी ने किया। इसे चमत्कार ही कहना चाहिए कि पांच वर्ष की आयु में उन्हें कुरान शरीफ पढ़ने के लिए बैठाया गया और सिर्फ दो ही साल में उन्हें सारा कुरान कंठस्थ हो गया। जहां कुरान में वारिसअली शाह की इतनी दिलचस्पी थी, वहां दूसरे विषयों में उनका जरा भी मन नहीं लगता था वह अपनी उमर के दूसरे सभी बच्चों से कुछ निराले थे। खेलकुद में उनकी जरा भी रुचि नहीं थी। वह लोगों की निगाहो से छिपकर एकांत स्थलो में जा बैठते थे और घंटो बैठे सोचते रहते। उन्हें खाने-पीने के समय का भी होश नहीं रहता था | अक्सर वह घने जंगलों में गहरे चिंतन में डूबे पाए जाते। उनके जो साथी उन्हें खेल-कूद के लिए बुलाने आते थे, उनको बुद्धु समझते थे लेकिन उनके समझदार बुजुर्गों को विश्वास हो चला था कि बड़ा होकर जरूर कोई धार्मिक व्यक्ति बनेगा।

वारिस अली शाह की सूफी मत की दीक्षा


वारिसअली शाह के बहनोई खादिगअली शाह एक पहुंचे हुए सूफी थे, उन्होंने देखा कि इस लड़के को सांसारिक बातों से कोई मतलब नहीं रहता | हर समय अपने में खोया-खोया रहता है। इसलिए उन्होंने वारिसअली शाह को ११ वर्ष की आयू में सूफी मत की दीक्षा दी। सूफी मत का उन पर गहरा रंग चढ़ता गया। इस ओर उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति तो थी ही, अब वातावरण भी उसके अनुकूल प्राप्त हो गया। १४ वर्ष की आयु तक वारिसअली शाह पक्के सूफी बन गए और वह दूसरे लोगों पर अपने मत का गहरा असर डालने लगे। धीरे-धीरे उनके शिष्यों की संख्या बढ़ने लगी। धर्म में उनकी रुचि बहुत अधिक थी। अरबी और फारसी वह बहुत अच्छी जानते और बोलते थे। बचपन से ही वारिसअली शाह को खाने पीने का जरा भी शौक नहीं था कई बार तो वह तीन-तीन दिन लंघन करते और एक बार खाना खाते। गरीबों और जरूरतमंद लोगों की हर तरह से सहायता करते और उनको रुपये, पैसे और कपड़े भी देते।

वारिस अली शाह की हज यात्रा


जब वह १५ वर्ष के हुए तो उनका मन मक्का जाने को करने लगा। उन्होंने विवाह न करने का फैसला किया। उनके पास जितनी वस्तुएं थीं, उन्होंने अपने संबंधियों को बांट दी और जमीन संबंधी कागजातों को, पानी में फेंक दिया। उनके पास बाप-दादों की बहुत सी मूल्यवान पुस्तकें थीं। इन पुस्तकों को भी उन्होंने लोगों को दे दिया और फकीर बनकर हज की तैयारी करने लगे। हज के लिए जाते हुए वह कितने ही देशों से होकर गुजरे। वह १२ वर्ष तक अरब, सीरिया, फिलिस्तीन, मैसोपोटामिया, ईरान तुर्की, रूस और जर्मनी आदि देशों में घूमते फिरे। इस बीच उन्होंने दस बार हज की इस्लामी देशों में हजारो की संख्या में लोग उनके शिष्य बन गए। उनके मुख मंडल पर ऐसा तेज था कि लोग उनके संपर्क में आते ही उनके शिष्य बन जाते थे। उनकी ख्याति सुनकर जर्मनी के प्रधानमंत्री प्रिंस बिस्मार्क ने भी उनसे भेंट की थी।

जब वह स्वदेश लौटे और अपने कस्बे में गए, तो वहां के लोगों ने उन्हें पहचाना तक नहीं, क्योंकि इस बीच उनमें भारी परिवर्तन हो गया था। लोगों ने उनको मामूली फकीर समझ कर उनका कोई स्वागत नहीं किया। अब तक उनके बाप-दादों का घर खंडहर बन चुका था। इस सबसे वारिसअली शाह के मन पर कोई आघात नहीं पहुंचा। सच्चे सूफी की भांति वह अपना कर्तव्य पूरा करने के लिए वहां से निकल पड़े। उन्होंने तय किया कि शेष जीवन मैं घूम कर ही बिताऊंगा। वह देश और विदेश में घूम-घूम कर लोगों को अपना शिष्य बनाते रहे। उन्होंने सांसारिक सुखों को तो पहले ही त्याग दिया था | अब जीवन की दैनिक आवश्यकताओं के प्रति भी विमुख रहने लगे । हज के लिए रवाना होने की उम्र से लेकर ४० साल तक की उम्र तक वह हफ्ते में केवल एक बार ही खाना खाते थे इसी प्रकार वह जीवन भर जमीन पर सोते रहे। वह सिरहाने तकिया भी नहीं लगाते थे। इस प्रकार उन्होंने अत्यंत कठोर संयम का जीवन बिताया, सोते वक्त भी वह ईश्वर प्रेम में डूबे रहते थे। उनको कभी किसी ने बेखबर होकर गहरी नींद सोते नहीं देखा। वह बोलते भी बहुत कम शब्द थे और जो बोलते थे उसे कई बार दोहराते थे जिससे सुनने वाले को मतलब अच्छी तरह समझ में आ जाए। गरीबों और दीन-दुखियों के लिए उनमें अपार सहानुभूति थी। जो उनके मन के भीतर होता था वही बाहर भी | वह देखने में भव्य और शालीन थे, मस्तक उनका विशाल था और आंखे उनकी चुंबक की तरह लोगों का ध्यान खींच लेती थीं।

सूफी लोग ऐसा मानते है कि सारे संसार का आधार प्रेम है। ईश्वर के प्रति व्यक्ति का जितना ही अधिक प्रेम होगा उतना ही वह ईश्वर के पास पहुंचता जाएगा यहां तक कि वह अपनापन भूलकर ईश्वर में ही खो जाएगा। अपने अस्तित्व को भुलाकर ईश्वर में लौ लगाना ही ईश्वर को प्राप्त कर लेना है।

जिस व्यक्ति की ईश्वर में लगन लग जाती है वह यह भूल जाता है कि मैं भी कुछ हूं। वारिसअली शाह ने कभी अपना कोई ढिंढोरा नहीं पीटा। वह केवल ईश्वर में अधिक से अधिक तल्लीन होते गए। सूफी लोग मानते हैं कि यह अवस्था व्यक्ति के विकास की चरम सीमा है । यही कारण था कि जो कुछ वह कहते थे या करते थे उसका लोगों पर गहरा असर पड़ता था और वह भी ईश्वर के नेक बंदे बनने का प्रयत्न करते।

बहुत से धर्मों के मठाधीश अत्यंत वैभव और सुख का जीवन व्यतीत करते हैं, लेकिन वारिसअली शाह तो अपना सब कुछ बहुत छोटी उम्र में ही औरों को दे चुके थे, वह अपने शिष्यों से किसी प्रकार की भेंट अथवा धन स्वीकार नहीं करते थे। पैसे को तो उन्होंने हाथ से छूना भी बंद कर दिया था। अगर कुछ लोग फिर भी किसी तरह की भेंट उनके पास छोड़ जाते थे, तो तुरंत उसे किसी दूसरे को दे देते थे। अपनी दिक्कतों का जिक्र वह भूलकर भी ओठों पर नहीं लाते थे । मौसम अच्छा हो या बुरा, गर्मी ज्यादा हो या कम, बारिश अधिक हुई या बिलकुल नहीं हुई अथवा सर्दी कड़ाके की पड़ रही है या नहीं, इसकी भी चर्चा वह नहीं करते थे, कभी उनमे मुंह से ऐसा कोई शब्द नहीं निकला जिससे यह जाहिर हो कि उन्हे किसी तरह का कष्ट या पीड़ा है। वह चाहते थे कि दूसरे भी अपने कष्टों को हंसते-हंसते सहना सीखें। वह कहते थे कि यदि आदमी अपने को ईश्वर की मर्जी पर पूरी तरह छोड़ दे, तो उसकी चिंताओं और परेशानियों का अंत ही हो जाए। ईश्वर के विधान में दखल देना वह अपना फर्ज नहीं समझते थे | ईश्वर की मर्जी के मुताबिक चलना ही उनका उद्देश्य था। हमेशा उन्होंने यही शिक्षा दी कि लोग आपस में मेलजोल से रहें, एक-दूसरे के दुख-दर्द को समझें, ऊंच-नीच का भेदभाव मन में न लाएं तथा मोहब्बत और हमदर्दी से काम लें।

वारिस अली शाह की मृत्यु


वारिसअली शाह ने लगभग ८६ वर्ष की लंबी आयु पाई। उनकी मृत्यु १७ अप्रैल, १९०५ को देवा शरीफ़, उत्तरप्रदेश मे बहुत शांति के साथ हुई। जिस जगह उनकी मृत्यु हुई थी, वहीं उन्हें दफना दिया गया और उनकी समाधि का निर्माण भी कर दिया गया, जिसके लोग आज भी बड़ी श्रद्धापूर्वक दर्शन करने जाते हैं।

कार्तिक के महीने में उनकी समाधि पर बहुत बड़ा उर्स यानी मेला होता है, जिसमें सभी धर्मों के मानने वाले शामिल होते हैं।

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