पुरुषोत्तम दास टंडन | Purushottam Das Tandon

पुरुषोत्तम दास टंडन | Purushottam Das Tandon

पुरुषोत्तम दास टंडन का जन्म


गांधी युग में भारतीय क्षितिज पर जितने महान व्यक्ति प्रकट हुए, पुरुषोत्तम दास टंडन (Purushottam Das Tandon) उन सभी में अपनी निराली क्रांति के कारण दीप्तिमान हुए। गंगा, जमुना और सरस्वती के पवित्र संगम पर बसे प्रयाग नगर के एहियापुर मुहल्ले में, १ अगस्त, १८८२ को टंडनजी का जन्म हुआ था। उनके पिता का नाम बाबू सालिगराम टंडन था। श्रावण के मलमास या उत्तम मास में जन्म लेने के कारण इनका नाम पुरुषोत्तम रखा गया।

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पुरुषोत्तम दास टंडन के कार्य


पुरुषोत्तम दास टंडन का विवाह हाईस्कूल परीक्षा पास करने के बाद ही हो गया था, जब वह १५ वर्ष के थे । टंडनजी बहुत हो मेधावी छात्र और क्रिकेट के अच्छे खिलाड़ी भी थे। प्रारंभ से ही उनके मन में देशभक्ति की भावना हिलोरे ले रही थी और उनका झुकाव राजनीति की ओर था। यही कारण था कि १८९९ में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में उन्होंने स्वयंसेवक का काम किया था।

१९०६ में वह कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में प्रतिनिधि के रूप में गए थे। जीविकोपार्जन के लिए उन्होंने १९०६ में वकालत शुरू की। १९१४ में वह नाभा रियासत के कानूनी सचिव नियुक्त हुए। वह इस पद पर १९१६ तक रहे। १९१९ में वह प्रयाग नगरपालिका के चेयरमैन चुने गए। इस समय तक टंडनजी ने प्रांत की ही नहीं, किंतु देश की राजनीति में भी अपना स्थान बना लिया था। वह १९२३ में प्रांतीय कांग्रेस के गोरखपुर अधिवेशन के अध्यक्ष चुने गए।

१९४६ में पुरुषोत्तम दास टंडन प्रांतीय विधान सभा के सदस्य निर्वाचित हुए। १९५० में वह अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष बने। पर किन्हीं बातों पर मतभेद हो जाने के कारण उन्होंने एक वर्ष के अंदर ही त्यागपत्र दे दिया था।

महात्मा गांधी के सच्चे अनुयायी होने के कारण टंडनजी का कार्य क्षेत्र केवल राजनीति नहीं था। वह सामाजिक और साहित्यिक कार्यों में गहरी दिलचस्पी ही नहीं रखते थे, बल्कि उन्होंने कई ठोस काम भी किए।

हिंदी को राष्ट्रभाषा का गौरव दिलाने और इसके विकास के लिए उन्होंने बहुत काम किया। १९१८ में उन्होंने प्रयाग में हिंदी विद्यापीठ की स्थापना की और इसके प्रथम आचार्य बने। १९०७-०८ में ही वह इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाले “अभ्युदय” पत्र के अवैतनिक संपादक थे |

१९१९ में वह लोक सेवक मंडल के अध्यक्ष नियुक्त हुए। १९३० में उन्होंने केंद्रीय किसान संघ की स्थापना की। टंडनजी देश की आंतरिक शक्ति और सुरक्षा के प्रति भी सजग थे इसीलिए उन्होंने १९४७ में हिंद रक्षक दल की स्थापना की थी।

सामाजिक कार्य करने वालों से सभी सहमत हों, यह प्रायः संभव नहीं और टंडनजी भी इसके अपवाद नहीं थे। अपने प्रखर और स्पष्टवादी स्वभाव के कारण उनका कई शीर्षस्थ नेताओं से मतभेद भी था, किंतु अपने निश्चल व्यवहार और पवित्र लोक-जीवन से उन्होंने एक ऐसा आदर्श प्रस्तुत किया, जो अनुकरणीय है। महात्मा गांधी ने एक बार उनके बारे में कहा था – “पुरुषोत्तम दास टंडन मेरे पुराने साथी है। हम वर्षों तक साथ-साथ काम करते रहे हैं। मेरे जैसे ही वे भी ईश्वर के भक्त हैं।“

टंडनजी की महानता को स्वीकार करके ही देशरल डा. राजेंद्र प्रसाद ने २३ अक्तूबर १९६० को प्रयाग में उन्हें अभिनंदन ग्रंथ समर्पित किया था।

पुरुषोत्तम दास टंडन नाभा राज्य का मंत्रित्व छोड़ा, वकालत छोड़ी, विधान सभा की अध्यक्षता से त्यागपत्र दिया। यह सब उन्होंने अपने विचारों पर दृढ़ रहने के कारण किया। बहुत कम लोग संघर्षों से गुजरते हुए अपने पथ से विचलित नहीं होते। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने, जो उन्हें अपना बड़ा भाई मानते थे, उनके बारे में कहा था कि – “जो भी व्यक्ति टंडनजी के संपर्क में आए, सबने उनसे कुछ न कुछ सीखा। यह महापुरुषों की निशानी है। जो उनसे मिले लेकर आए। हमने भी उनसे लिया, जिससे दिल और दिमाग की दौलत बढ़ी।“

टंडनजी स्पष्टवादी थे इसीलिए उन्हें बहुधा अनुदारपंथी भी कहा जाता था, किंतु जो लोग उनके निकट संपर्क में थे वे जानते हैं कि टंडनजी उदार और मानवता प्रेमी थे। वह किसी अंधविश्वास को आश्रय नहीं देते थे। उनका व्यक्तित्व प्राचीन भारतीय संस्कृति की उस ओजस्विता का प्रतीक था जिसने हर नए क्षेत्र को अपनी अजग्र-ज्ञानधारा में शामिल करने और उनमें परस्पर समन्वय का प्रयास किया है।

वह भारतीय संस्कृति के जीवित प्रतीक थे। उनका पहनावा सीधा सादा था। उनके दाढ़ीयुक्त चेहरे पर ज्ञान की आभा झलकती थी। वह प्राचीन ऋषियों के प्रतीक थे। प्राचीन भारतीय संस्कृति में उनकी गहरी निष्ठा थी। इसी से प्रभावित होकर १५ अप्रैल १९४८ को सरयू नदी के तट पर महान संत देवरहवा बाबा ने एक विशाल समारोह में उन्हें “राजर्षि” की उपाधि से विभूषित किया था।

पुरुषोत्तम दास टंडन १९०५ में बंगभंग आंदोलन के समय विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के सिलसिले में चीनी खाना छोड़कर खांडसारी का उपयोग करने लगे थे। कुछ समय बाद इसे भी छोड़कर वह गुड़ का उपयोग करने लगे। १९०७ में उन्होंने चमड़े का जूता पहनना छोड़ दिया और १९२१-२२ में जब वह लखनऊ जेल में थे, नमक खाना भी छोड़ दिया था।

वह अद्वितीय कर्मयोगी और गांधीजी के समान रचनात्मक कार्यों में भाग लेने वाले थे उनका जीवन समर्पण का था।

पुरुषोत्तम दास टंडन की मृत्यु


पुरुषोत्तम दास टंडन ने १ जुलाई १९६२ को शरीर त्याग दिया था।

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