गोविंद सखाराम सरदेसाई | Govind Sakharam Sardesai

गोविंद सखाराम सरदेसाई | Govind Sakharam Sardesai

गोविंद सखाराम सरदेसाई का जन्म


इतिहासकार गोविंद सखाराम सरदेसाई का जन्म १७ मई १८६५ को रत्नागिरी जिले के हसोल गांव में हुआ। वह अपने माता-पिता के सबसे बड़े लड़के थे, घर के सब लोग उन्हें “नाना” कहते थे। उनके पिता सखाराम पंत, घनगर परगना का हिसाब-किताब देखा करते थे। नाना खेती तथा चरवाहे का काम करते थे।

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गोविंद सखाराम सरदेसाई की शिक्षा


गांव में शिक्षा का प्रबंध न होने से सात वर्ष की आयु में उन्हें पास के बेखली गांव में स्कूल में दाखिल किया गया, किंतु वहां रहने और भोजन का प्रबंध ठीक नहीं था। इसलिए उन्हें १८७४ में शिपोशी नामक गांव में, जहां उनकी माता का मायका था, भेजा गया। यह गांव बड़ा था और स्कूल भी अच्छा था। किंतु दो वर्ष बाद, उनके पिता की आर्थिक स्थिति दिन प्रतिदिन बिगड़ती गई और गोविंद की शिक्षा स्थगित करने का सवाल उठा।

एक सुनहरा मौका नाना को प्राप्त हुआ, जिससे नाना की शिक्षा सुचारु रूप से चलती रही। एक दिन बंबई के एक प्रसिद्ध नागरिक यशवंत वासुदेव उपाख्य बापूसाहेब आठल्ये शिपोशी आए। जब वह स्कूल देखने गए, तब उन्हें नाना की स्थिति का पता चला और उन्होंने नाना की शिक्षा का आर्थिक भार वहन करने का निश्चय किया। नाना को रत्नागिरी भेजा गया जहां से वह १८८४ में मैट्रिक पास हुए। इस हाईस्कूल में नाना ने जो पांच साल बिताए वह महत्वपूर्ण थे। उनके मन पर अच्छे संस्कार डालकर उनका चरित्र गठन करने का श्रेय इसी स्कूल के दो असाधारण अध्यापकों को था – मोरोपंत कीर्तने और गणेश व्यंकटेश जोशी । इन अध्यापकों के कारण नाना में ज्ञान लालसा, सतत कार्य करने में रुचि और पुस्तकें पढने का प्रेम उत्पन्न हुआ।

गोविंद सखाराम सरदेसाई का विवाह


नाना की विनयशीलता, स्वावलंबन, विह्यप्रेम आदि व्यक्तिगत गुणों से प्रभावित होकर मोरोपंत कीर्तने ने अपनी लड़की उनसे ब्याह दी। उनकी पत्नी का नाम लक्ष्मीबाई था। अब उनकी शिक्षा का दायित्व उनके ससुर ने सम्हाल लिया। इस प्रकार नाना की शिक्षा पूरी हो सकी।

एक टर्म पूना के फर्ग्यूसन कालेज में बिताने के बाद नाना बंबई के एल्फिस्टन कालेज में दाखिल हुए और १८८८ में उन्होंने बी.ए. पास किया। बंबई में वह बापूसाहेब आठल्ये के घर में रहते और होटल में खाना खाते थे | स्वावलंबी तथा स्वाभिमानी होने के कारण बापूसाहेब से या अपने ससुर से आर्थिक सहायता मांगने के बजाए वह छात्रों को पढ़ाकर तथा अन्य छोटे-मोटे काम कर किसी न किसी तरह अपना निर्वाह करते थे।

बी.ए. करने के तुरंत बाद बापूसाहेब आठल्ये के कारण उन्हें जीवन में प्रगति का एक अच्छा मौका मिला। बापूसाहेब बंबई के एक प्रमुख नागरिक थे और डा भांडारकर, तैलंग, तिलक जैसे-उस समय के बड़े विचारशील और विद्वान व्यक्ति उनके घर आया करते थे।

गोविंद सखाराम सरदेसाई के कार्य


बड़ौदा के नरेश सयाजीराव गायकवाड़ को किताबें पढ़कर सुनाने वाले एक व्यक्ति की जरूरत थी । बापूसाहेब ने नाना साहेब की सिफारिश की। इस प्रकार नाना साहेब को सयाजीराव जैसे-कार्यनिपुण, अनुशासन-प्रिय तथा शिक्षा, साहित्य एवं कला को प्रोत्साहन देने वाले नरेश की दरबारी नौकरी १ जनवरी १८८९ से मिली। आर्थिक सहायता के लिए अब उन्हें किसी पर निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं रही। परंतु कौटंबिक बोझ काफी था। माता-पिता, चार छोटे भाई, दो बहनों का पालन पोषण करना और पिताजी का कर्जा चुकाना था।

सयाजीराव को नाना साहेब भिन्न-भिन्न विषयों पर पुस्तकें पढ़कर सुनाते। उन किताबों में जो भाग कठिन लगता, उस पर वे दोनों चर्चा किया करते थे। इसके अतिरिक्त नाना को जो भी समय मिलता, उसमें वह अपनी पसंद की अच्छी-अच्छी पुस्तकें पढ़ा करते थे। वह सयाजीराव के महल में ही रहते थे। सयाजीराव के साथ उन्होंने न केवल भारत की बल्कि यूरोप की भी चार बार यात्रा की। राजमहल का जीवन हमेशा ऐश व आराम का होता है। सभी सुविधाएं आसानी से मिलने के कारण वहां रहकर किसी भी व्यक्ति का आलसी और निठल्ला होना स्वाभाविक है। नाना साहेब अगर चाहते तो आराम से जीवन बिता सकते थे। किंतु नाना साहेब को और ही बातों की लगन थी। वह सभी बुरी आदतों से बचे रहे।

मुसलमानी रियासत का प्रकाशन


कुछ समय बाद, राजपुत्रों और राजकन्याओं को पढ़ाने का काम उन्हें सौंपा गया। उन्हें आदेश मिला कि इतिहास की कहानियों द्वारा बच्चों को शिक्षा दी जाए। तब उन्होंने पुस्तकें ढूंढने का प्रयास किया, परंतु कोई भी उचित पुस्तक न मिलने के कारण उन्होंने ऐतिहासिक वाङ्मय के मूल साधनों की खोज शुरू की, जिसके फलस्वरूप १८९८ में उनकी पहली मराठी पुस्तक “मुसलमानी रियासत” प्रकाशित हुई। इसके बाद वह इतिहास के साधनों के अध्ययन और अन्वेषण में जुटे रहे।

साथ ही वह सयाजीराव के साथ यात्रा करते, राजपुत्रो और राजकन्याओं को पढ़ाते, उन्हें भिन्न-भिन्न पहाड़ी स्थानों पर घुमाते और हिसाब की जांच करते।

किसी भी देश का इतिहास कितना ही गौरवमय क्यों न हो, जब तक इसे ठीक तरह से लोगों के सामने नहीं रखा जाता, तब तक वह प्रेरणादायी नहीं हो सकता। इतिहास का अच्छी तरह अध्ययन करके उसका सही चित्र खींचना ही इतिहासकार का कर्तव्य है। नानासाहब ने इसी कार्य में अपना पूरा जीवन बिताया| सरदेसाईं, यह नाम लेते ही हमारे सामने मुसलमान और मराठों के साम्राज्य का इतिहास आ जाता है। उनका और इतिहास का इतना अटूट संबंध था।

प्रसिद्ध इतिहासकार यदुनाथ सरकार नाना साहब के न केवल समकालीन थे, बल्कि उनके दृढ़ मित्र भी थे। इतिहास अन्वेषण के कार्य में दोनों ने एक दुसरे को पूरा सहयोग दिया। नानासाहब ने मुसलमान, मराठा तथा अंग्रेजों के इतिहास का जो व्यापक, सही और सुसंगत विवरण किया है, वह सचमुच आश्चर्यजनक है। सन् १००० से १८५७ तक भारत का इतिहास उन्होंने १२ खंडों में लिखा है। इनमें आठ खंड मराठों के इतिहास पर हैं इन आठ खंडों का अंग्रेजी अनुवाद कर उन्होंने तीन खंडों में “न्यू हिस्ट्री आफ द मराठाज” के इस नाम से प्रकाशित कराया। इस ग्रंथ से उन्हें बड़ी ख्याति मिली।

इसके अलावा गोविंद सखाराम सरदेसाई ने पेशवा दफ्तर के महत्वपूर्ण कागजात की जांच करके चुनी हुई ऐतिहासिक चिट्ठियों को ४५ खंडों में संपादित किया। इन खंडों की कुल पृष्ठसंख्या ७८०० है।

रेजिडेंसी रिकार्ड के जिसके प्रधान संपादक यदुनाथ सरकार थे, पांच खंड भी उन्होंने संपादित किए।

नानासाहेब ने पटना विश्वविद्यालय नें मराठों के इतिहास पर जो सात भाषण दिए, वे “मेन करेंट्स” नामक पुस्तक में दिए गए हैं। इतिहास का प्रगाढ़ अध्ययन उनके जीवन के अंत तक चलता रहा। सरदेसाई का उनके शोध कार्य के लिए देश में बड़ा सम्मान हुआ।

गोविंद सखाराम सरदेसाई का पारिवारिक विवरण


सरदेसाई का पारिवारिक जीवन असफल और दुखमय रहा। उनके केवल दो पुत्र थे,लेकिन दोनों ही छोटी उम्र में ही चल बसे। उनके बड़े लड़के की २६ वर्ष की आयु में १९२५ में विदेश में मृत्यु हुई। उनकी मृत्यु के समय नानासाहेब की आयु ६० वर्ष थी। उसकी मृत्यु से नानासाहब पर वज्राघात हुआ। उन्हें सांत्वना देते हुए मराठी के प्रसिद्ध साहित्यकार श्री नृसिंह चिंतामणि केलकर ने कहा था – “इतिहास को आपने पुत्र माना है और वह अमर है।“ इससे कुछ ही समय पूर्व वह बडौदा नरेश की नौकरी से निवृत्त होकर पूना के निकट इंद्रायणी नदी के तट पर कामशेत ग्राम में रहने लगे थे।

इस दुखद घटना के बाद नानासाहब ने अपना पूरा समय केवल इतिहास के अध्ययन में ही व्यतीत किया। उन्होंने जो भी यात्राएं कीं, ऐतिहासिक स्थानों की ही कीं। इतिहास के अध्ययन में उन्होंने अपना दुख डूबा दिया।

१९४३ में उनकी धर्मपत्नी की मृत्यु हुई, जिससे वह बिलकुल ही अकेला अनुभव करने लगे।

गोविंद सखाराम सरदेसाई को प्राप्त सम्मान


सरकार ने १९३२ में उन्हें रावसाहेब, १९३७ में रावबहादुर की उपाधियां दीं। भारत के स्वाधीन होने पर, १९५७ में वह पद्मभूषण से विभूषित किए गए। १९४६ में धुलिया राजवाड़े संशोधन मंदिर की ओर से उन्हें इतिहास मार्तण्ड की उपाधि और सुवर्ण पदक दिया गया।

१९५१ में जयपुर में भारतीय इतिहास परिषद के वह अध्यक्ष थे। १९५१ में ही पूना विश्वविद्यालय ने उन्हें सम्मानार्थ डाक्टर आफ लैटर्स की उपाधि दी।

नानासाहब अत्यंत अनुशासनप्रिय थे। कोई भी काम सुव्यवस्थित रीति से होना चाहिए, ऐसा उनका हमेशा आग्रह रहा करता था। उन्हें आडंबर तथा ठाटबाट से घृणा थी। सन् १९३८ में अभिनंदन ग्रंथ प्रकाशित कर उन्हें समर्पित करने की तैयारी चल रही थी। उस ग्रंथ के लिए नानासाहेब की संक्षिप्त जीवनी खुद यदुनाथ सरकार ने लिखी।

गोविंद सखाराम सरदेसाई की मृत्यु


गोविंद सखाराम सरदेसाई ने सभी को ज्ञानलाभ हो, सत्य का दर्शन हो, केवल इसी एक ध्येय से प्रेरित होकर उन्होंने अपना जीवन बिताया। २९ नवंबर १९५९ को ९४ वर्ष की आयु में वह स्वर्ग सिधारे।

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