मुत्तुस्वामी अय्यर | Muthuswamy Iyer | T. Muthuswamy Iyer

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मुत्तुस्वामी अय्यर | Muthuswamy Iyer |

 T. Muthuswamy Iyer


मुत्तुस्वामी
अय्यर का नाम दक्षिण भारत में घरेलू शब्द बन गया है। बुद्धिमता
, उदारता, सादगी
और सत्यता में उनकी समानता करने वाले दक्षिण भारत में
कम
ही व्यक्ति
हुए
हैं। मु
त्तुस्वामी
का जन्म एक निर्धन परिवार में हुआ था। आरंभ में उन्हें कितनी ही आर्थिक कठिनाइयों
का सामना करना पड़ा पर अपने परिश्रम के कारण उन्हें जीवन में बराबर सफलता मिलती गई
और अंत में वह बहुत ऊंचे पद पर पहुंच गए। जिन दिनों सभी ऊंचे-ऊंचे पदों पर केवल
अंग्रेज़ नियुक्त किए जाते थे। उन दिनों मुत्तुस्वामी अय्यर को हाईकोर्ट का चीफ
जस्टिस बनने का गौरव मिला था।

मुत्तुस्वामी अय्यर का जन्म जनवरी १८३२ में
मद्रास राज्य में तिरुवलूर के निकट उच्चुवडी नाम के एक गांव में हुआ था। उनके पिता
वेंकटराम शास्त्री एक गरीब
ब्राह्मण थे। साथ ही उनकी आखे भी ठीक न होने के कारण उनकी माता
ने
बड़ी कठिनाई से उनका पालन
पोषण किया था। जब उ
न्होंने थोड़ा तमिल ना-लिखना
सीख लिया तो गाव
के एक मुनीम के पास नौकरी कर ली
| उन्हें एक रुपया महीना वेतन मिलता था |  मुत्तुस्वामी
अय्यर के

की
आर्थिक दशा इतनी
खराब थी की कि
उसे सुधार
ने के
लिए एक रुपया मासिक वेतन का यह
कार्य बहुत आवश्यक था | उन्होने यह कार्य १२
वर्ष की आयु तक किया।

 

भी
तालुक कार्यालय
से एक
क्लर्क की मांग
आई
,
क्योंकि तहसीलदार को हिसामें
कुछ गड़बड़ी होने
का समा
चार मिला
था
|
समय कोई क्लर्क नहीं मिल
रहा था इसलिए मुत्तुस्वामी अय्यर को इस
काम पर भेजा गया। उन्होंने बड़े परिश्रम और
लगन से काम
करना
शुरू किया।
उनके काम से तहसीलदार बहुत प्रभावित हुआ। इस तहसील
दार ने
आगे
चलकर
उनकी सहायता की
| उसने मुत्तुस्वामी
अय्यर
को पढ़ने के लिए मद्रा
स भेजा |

 

मद्रास जाकर
मु
त्तुस्वामी
अय्यर ने अपनी बुद्धि और मेहनत से सब शिक्षकों
को आश्चर्यचकित
कर दिया। अंग्रेजी में सर्वोत्तम नि
बंध के लिए कौंसिल
आफ एजुकेशन का ५०० रुपये का पुरस्कार भी उन्होंने जीता। मु
त्तुस्वामी
अय्यर को
अंग्रेजी लेखक ओलिवर गोल्डस्मिथ बहुत प्रिय था।
इतिहासकर कहते
हैं कि उन्होंने मृत्यु से एक वर्ष पहले भी अपने इस प्रिय लेखक की एक कृति की
इक्यावनवीं बार पढ़ा था।

 

हाईस्कूल की परीक्षा पास करने के पश्चात्
तेईस वर्ष की आयु में उन्हें हाई स्कूल में ही अध्यापन का कार्य मिला। कुछ दिन बाद
वह पा
शालाओं
के इंस्पेक्टर बनाए गए। इस पद पर कुछ समय तक कार्य करने के बाद
कौंसिल
आफ एजुकेशन के एक सदस्य होलोवे ने उन्हें डिस्ट्रिक्ट मुंसिफ नियुक्त किया। इसके
कुछ ही मास पश्चात् उन्हें डि
प्टी कलेक्टर बना दिया गया और मजिस्ट्रेट के
अधिकार भी दिए गए। इसी समय तेजावर में चल रहे एक मुकदमे में इनके कार्य से जांन
ब्रूस नार्टन
बहुत प्रभावित हुआ |

        

तभी दक्षिण कर्नाटक में एक उपन्यायाधीश के
रिक्त स्थान की पूर्ति के लिए सरकार ने होलोवे से तीन योग्य व्यक्तियों के नामों
की सिफारिश करने को कहा। इस
पर होलेवे ने
तीन पृथक् व्यक्तियों के नाम भेजने की अपेक्षा मु
त्तुस्वामी अय्यर का
ही नाम
तीन बार
लिख कर भेज दिया। फलस्वरूप उन्हें उपन्यायाधीश नियुक्त किया गया
| उनकी
सत्यप्रियता
, न्यायशीलता, बुद्धिमता
तथा परिश्रम ने उन्हें इस नवीन एवं आदरणीय क्षेत्र में सफलता
प्राप्त करने
में सहायता प्रदान की।

 

कुछ समय पश्चात् मुत्तुस्वामी अय्यर मद्रास
के पुलिस मजिस्ट्रेट नियुक्त हुए। इस

रहते हुए हो वह वकालत की परीक्षा में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए।

 

मुत्तुस्वामी
अय्यर की स्मरण-शक्ति अद्भुत थी। वह बड़े परिश्रमी भी थे बारीक से
बारीक
बात को समझने में उन्हें देर न लगती थी जीवन तथा शासन के प्रत्येक पहल का उन्हें
अनुभव था। कानून के विषय में
वह बड़े दक्ष थे तथा विचारों को स्पष्टता के
साथ प्रकट करने की उनमें आश्चर्यजनक क्षमता थी। इन सब गुणों के कारण वह अपने समय के
इने-गिने लोगों में से थे। किंतु इन विशेषताओं के होते हुए भी वह जरा भी अभिमानी नहीं
थे। उनमें मानवता की भावना कूट-कूट कर भरी थी तथा अपने मित्रों के प्रति  सहदयता भी अपार थी।

 

मुत्तुस्वामी अय्यर जीवन
की व्यावहारिकता से भली-भांति परिचित थे। वह केवल किताबी कीड़ा नहीं थे। वह कहते
थे कि परिस्थिति और समय के अनुसार कानून में छोटे-मोटे संशोधन करना आवश्यक है
, क्योंकि
विश्व में रहते हुए अच्छे से अच्छे व्यक्ति को भी परिस्थितियां कई बार बुरे काम
करने के लिए विवश कर देती है। शायद यही कारण था कि मुत्तुस्वामी अय्यर ने अपने
जीवन में किसी को प्राण-दंड नहीं दिया। उनकी इस प्रकार की बुद्धिमता तथा दयालुता
के कारण लोगों की उन पर अपार श्रद्धा थी।

 

मुत्तुस्वामी अय्यर का हृदय भारतीयता की भावना
से ओत-प्रोत था। उन्होंने समाज को ऊंचा उठाने के लिए कई कार्य किए। स्त्रियों के
अस्पताल के निर्माण कार्य में उन्होंने बहुत अधिक भाग लिया। समाज को उन्नत बनाने
तथा देश की स्वतंत्रता के लिए भारतीयों की शिक्षा के प्रबंध को वह बहुत आवश्यक
मानते थे। इसके लिए वह अंग्रेजी की शिक्षा
के भी
समर्थक थे |

 

 

मुत्तूस्वामी अय्यर
भी भारतीयता से ओत-प्रोत थे अपने परिवार का
स्नेह
उनकी रगराग  में समाया हुआ था। वह अपने परिवार को छोड़कर
विदेश नहीं जाना चाहते
थे । इसीलिए जब उन्हें
आई०सी०एम० के लिए पढ़ने तथा परीक्षा देने इंग्लैंड जाने को कहा गया तो उन्होंने
ईंकार कर दिया।

                 

उनका अध्ययन भी बहुत विस्तृत था। जज होने पर
भी उन्होंने अपने अध्ययन को केवल कानून के
क्षेत्र तक
ही सीमित नहीं रखा। राजनीतिक समस्याओं से भी वह भ
लीभाति
परि
चि
थे एक बार उन्होंने कहा था कि आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से विदेश शासन का कुछ और
समय तक भारत में रहना
हुत ही आवश्यक है। कहा जाता है कि ऐसा
उन्होंने अंग्रे
जो को
खुश करने के ख्याल से नहीं कहा था। वह
ड़ी
व्यावहारिक सुझ
बुझ वाले
व्यक्ति थे। उस समय तक भारतीय अधिक शिक्षित नहीं हुए थे इसलिए उनका   विचार था कि वे अभी शासन का भार नहीं संभाल
सकते।

 

मुत्तुस्वामी
अय्यर स्वयं सरकारी पद पर कार्य करते थे। इसलिए राजनीतिक क्षेत्र में वह कभी
सक्रिय रूप से भाग नहीं ले सके। राजनीतिक के क्षेत्र में इनका कोई उल्लेखनीय कार्य
इतिहासकारो से प्राप्त
नहीं मिलता है । जब
भारत में अंग्रेजों का राज्य आ
रंभ हुआ तो बड़े-बड़े सरकारी पदों पर केवल अंग्रेजों
को ही नियुक्त किया जाता था परंतु
धीरे-धीरे अंग्रेजों की यह नीति बदली और समय
आने पर कुछ भारतीयों की भी ऊंचे पद मिलने लगे।

 

मुत्तुस्वामी
अय्यर को मद्रास हाईकोर्ट का चीफ़ जस्टिस बना दिया गया इस पद पर आसीन होने के बाद
उन्हें
की
उपाधि मिली। चीफ़ जस्टिस के पद पर रहते हुए मु
त्तुस्वामी
अय्यर
ने बड़ा सराहनीय कार्य किया। अपनी न्यायप्रियता के कारण हो वह इतने बड़े न्यायाधीश
बनने में सफल हुए थे।

 

चीफ़ जस्टिस बनने के कुछ वर्ष बाद से मुत्तुस्वामी
अय्यर का स्वास्थ्य गिरने लगा । १८९४ के अंत में उनकी दशा चिंताजनक हो गई
, परंतु
कुछ दिन के लिए उनका स्वास्थ्य सुधर गया। फिर भी उनके शरीर में कभी वैसी स्फूर्ति
नहीं आ सकी जैसी कि पहले थी और वह अधिक दिन तक जीवित न रह सके। २५ जनवरी १८९५ को
उनका देहांत हो गया। सभी देशवासियों ने उन्हें अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की और उनके
स्मारक के निर्माण के लिए दिल खोलकर दान दिया। उनके स्मारक के रूप में उनकी
संगमरमर की मूर्ति बनाई गई
, जो आज भी
मद्रास हाईकोर्ट में है।
       

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