चित्तरंजन दास का जीवन परिचय | Chittaranjan Das Biography

चित्तरंजन दास का जीवन परिचय

Chittaranjan Das Biography

चित्तरंजन दास की जीवनी, चितरंजन दास

चित्तरंजन दास का जन्म ५ नवंबर, १८७० को कलकत्ता में हुआ था| उनके पिता भवनमोहन दास सालिसिटर (कानूनी सलाहकार) एवं पत्रकार थे। वह ब्रह्म समाज के एक प्रमुख सदस्य थे तथा उसके साप्ताहिक पत्र “ब्रह्म पब्लिक ओपीनियन” का संपादन भी करते थे। चित्तरंजन की माता निष्तारिणी देवी पढ़ी-लिखी और उदार स्वभाव की महिला थीं। माता और पिता दोनों के ही मिलनसार स्वभाव और सामाजिक अभिरुचि का चित्तरंजन के चरित्र पर गहरा असर पड़ा। उस समय के बंगाल की संस्कृति और सभ्यता के वह सच्चे नमूने थे।

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संक्षिप्त विवरण(Summary)[छुपाएँ]
चितरंजन दास जीवन परिचय
पूरा नाम चितरंजन दास
जन्म तारीख ५ नवंबर, १८७०
जन्म स्थान कलकत्ता
धर्म हिन्दू
पिता का नाम भवनमोहन दास
माता का नाम निष्तारिणी देवी
पत्नि का नाम वासंती देवी
पिता का कार्य कानूनी सलाहकार, पत्रकार,
ब्रह्म समाज के एक प्रमुख सदस्य
माता का कार्य गृहणी
शिक्षा स्कूल, कालेज पढ़ाई( कलकत्ता),
बैरिस्टर

कार्य प्रसिद्ध वकील,
स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी,
कांग्रेस के सदस्य व अध्यक्ष,
स्वराज्य पार्टी की स्थापना
मृत्यु तारीख १६ जून, १९२५
मृत्यु स्थान दार्जिलिंग
उम्र ५५ वर्ष
मृत्यु की वजह लंबे समय तक बुखार
पदवी देशबंधु

चित्तरंजन ने अपनी स्कूल और कालेज की पढ़ाई कलकत्ता में पूरी की। अपने कालेज की पढ़ाई के दिनों वह “विद्यार्थी संघ” के सेक्रेटरी थे। उन दिनों वह संघ बंगाल के नीजवानों का मुख्य संगठन था। बीस वर्ष की उम्र में बी.ए. पास करने के बाद, उन्हें इंडियन सिविल सर्विस की परीक्षा पास करने के लिए विलायत भेजा गया। वहां पहुंचते ही वह दादाभाई नौरोजी के पालियामेंट के चुनाव कार्य में पूरे दिल से लग गए। उस समय अंग्रेज खुल्लम-खुल्ला कहा करते थे कि इंग्लैंड ने भारत को तलवार के बल पर जीता है और तलवार के सहारे ही उसे काबू में रखेगा। चित्तरंजन दास से यह न सहा गया। उन्होंने उसका बड़ा ही मुंहतोड़ जवाब दिया। उन्होंने कहा – “अंग्रेजों ने तलवार-बंदूक के सहारे लंबे-चौड़े और शानदार भारत को कहीं नहीं जीता। यह उनके सैनिक बल की नहीं, कूटनीतिक चाल की जीत थी इसे तलवार की विजय कहना और तलवार की नीति बरतने की धमकी देना सरासर ओछापन और शर्मनाक है।“

ऐसे शब्दों का एक नौजवान विद्यार्थी के मुंह से निकलना स्पष्टत: उसके चरित्र को व्यक्त करता है। वह तत्काल अंग्रेजों की नजर में चढ़ गए और इस देशभक्ति की भावना का फल उन्हें आई.सी.एस. की परीक्षा में असफलता के रूप में मिला। पर इस असफलता का उन्हें जरा भी मलाल नहीं हुआ। उन्होंने अपना पूरा ध्यान कानून की पढ़ाई में लगा दिया और १८९३ में बैरिस्टर बन कर स्वदेश लौटे।

भारत लौटने पर दिसंबर, १८९३ में वह कलकता हाईकोर्ट के बैरिस्टर बने। पर दुर्भाग्यवश उस समय तक उनके पिता सालिसिटर के काम से छुट्टी ले चुके थे। फलतः उन्हें अपने पेशे में पिता की सहायता नहीं मिल पाई और वकालत के पेशे में चोटी पर आने के लिए उन्हें पंद्रह साल तक ईंतजार करना पड़ा। इस बीच उनका ध्यान साहित्य रचना की ओर भी गया और उनकी पहली कविता पुस्तक प्रकाशित हुई।

उनका विवाह असम के बिजनी राज्य के दीवान की बड़ी पुत्री वासंती देवी के साथ हुआ।१८९६, जब कि वह न बैरिस्टर के रूप मे चमके थे और न लेखक के रुप में | दुखदायी घटना घटी, वह और उनके पिता दोनों अपने पहले कर्जे और अपने एक मित्र के तीस हजार रूपये के कर्जे के कारण दिवालिया बन गए।

पर यह स्थिति अधिक समय तक न रही | १९०८ मे उनकी वकालत आश्चर्यजनक रूप से चमक उठी। उस वर्ष उन्होने बंगाल के क्रांतिकारी युवको के मुकदमे की पैरवी का भार अपने ऊपर लिया | मानिकतल्ला बम कांड के सनसनीखेज मुकदमे में उन्होंने अरविंद घोष और दूसरी क्रांतिकारियों की पैरवी इस योग्यता से कि की वह उस युग के सबसे बड़े वकील मान लिए गए। सभी ने मुक्त कठ से उनकी प्रशंसा की |यहा तक की कलकत्ता हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस जैनकिस ने भी अपने फैसले मे लिखा – “मै खास तौर से यह लिखना चाहता हूं कि जिस यौग्यता से अभियुक्ती के प्रमुख वकील सी. आर. दास ने मुकदमें की पैरवी की है, वह अत्यंत सराहनीय है।“

इसके बाद तो उनके पास मुकदमों का ऐसा तांता बंधा कि समय की कमी के कारण उन्हें बहुत से मुकदमे वापस कर देने पड़ते । १९१३ तक सी.आर. दास विशेष रूप से फ़ौजदारी मुकदमो के ही वकील थे, पर जब डुमराव राज्य के प्रसिद्ध मुकदमे की उन्होंने पैरवी की, तब दीवानी के क्षेत्र में भी लोग उनका लोहा मान गए | अब तो देश के सभी राजे-महाराजे उन्हें अपना वकील बनाने के लिए उतावले हो उठे।

कहते हैं कि उनकी वकालत के आखिरी तीन-चार वर्षों में उनकी आमदनी कम-से-कम तीन-चार लाख रुपए सालाना थी | और जब १९२० में उन्होंने गांधी जी के असहयोग आंदोलन में भाग लेने के लिए अपनी वकालत छोड़ी थी, उस समय यह लगभग ३०००० रूपये महीना कमाते थे।

चित्तरंजन दास कांग्रेस में सबसे पहले १९०६ में एक प्रतिनिधि के रूप में प्रविष्ट हुए। पर इसके बाद भी आठ-दस वर्षों तक उन्होने कोई सक्रिय हिस्सा नहीं लिया। उन्नीस सौ सत्रह में बंगाल प्रांतीय राजनीतिक सम्मेलन में प्रधान बन जाने के बाद से वह राजनीति के क्षेत्र में सक्रिय हुए। फिर तो, वह कांग्रेस के एकप्रमुख कार्यकर्ता बन गए और उसकी सभी मुख्य समितियों के सदस्य चुने जाने लगे। १९१९ में कांग्रेस द्वारा नियुक्त जालियावाला बाग और पंजाब हत्याकांड जांच समिति के भी वह सादस्य नियुक्त हुए। रोलेट एक्ट जिसे “काला कानून” कहा जाता था, उसके विरोध में श्री दास मे ही सबसे पहले अमृतसर कांग्रेस में गांधी जी के सत्याग्रह आंदोलन का समर्थन किया।

१९२० में कांग्रेस के नागपूर अधिवेशन में भी उन्होंने अपनी शानदार ५० हजार रुपये माहवार की वकालत छोड़ी और खद्दर के कपड़े धारण कर लिए। इस समय से वह एक गरीब आदमी जैसा जीवन बिताने लगे । उनके कपड़े ही नही बदले, हृदय भी पूरी तरह बदल गया। यह एक सच्चे राजनीतिक संन्यासी बन गए। इसी समय उन्हें अपने देशवासियों से “देशबंधु” की उपाधि मिली।

वैभवमय जीवन से संन्यास धारण करने के बाद चितरंजन दास असहयोग आंदोलन को सफल बनाने में पूरी तरह जुट गए। इसके लिए उन्होंने काफी संख्या में स्वयं सेवक भर्ती किए। नवंबर, १९२१ में वह असहयोग और खिलाफत आंदोलन के बंगाल प्रदेश के संचालक बने और कुछ समय बाद सरकार द्वारा गिरफ्तार कर लिए गए। इसी कारण, वह अध्यक्ष चुने जाने के बावजूद १९२१ में अहमदाबाद में हुए कांग्रेस अधिवेशन की अध्यक्षता भी न कर सके। इस बार उन्हें छ: महीने कैद की सजा मिली।

१९२२ में कांग्रेस और देश के राजनीतिक वातावरण में शिथिलता आ गई थी और चौरी-चौरा की दुर्घटना के बाद कांग्रेस कार्यकारिणी ने बारदोली में असहयोग आदोलन को प्राय: वापस ले लिया था । महात्मा गांधी के गिरफ्तार हो जाने के कारण कांग्रेस के आदोलन में यह दिलाई आई थी। लोकमान्य तिलक दो वर्ष पहले ही मर चुके थे। अत: अब देश को इस शिथिलता से निकालने के लिए एक नेता की सख्त जरूरत थी। इस मौके घर दास महोदय आगे आए। उन्होंने गया कांग्रेस में अध्यक्ष पद से “कॉसिल प्रवेश” का कार्यक्रम रखा। उसका लक्ष्य कौंसिलों में प्रवेश करके सरकार का तीव्र विरोध करना था पर उनका प्रस्ताव स्वीकृत नहीं हुआ और उन्होंने तथा मोतीलाल नेहरू ने मिल कर १९२३ में “स्वराज्य पार्टी” की स्थापना की। अंत में, बाध्य होकर, १९२४ में कांग्रेस को उनका कीसिल प्रवेश का प्रस्ताव स्वीकार करना पड़ा।

इस समय तक चित्तरंजन दास जनता में इतने लोकप्रिय हो गए थे कि उनका एक-एक वाक्य लोग सहर्ष सुनते थे । अत: स्वाभाविक ही था कि उनकी “स्वराज्य पार्टी” को लोगों का प्रबल सहयोग मिलता। उनकी स्वराज्य पार्टी शीघ्र ही चमक उठी, उसने १९२४ के चुनाव में बंगाल और मध्यप्रदेश में सबसे बड़े दल के रूप में सफलता पाई । फलत: लार्ड लिटन ने बंगाल में मंत्रिमंडल बनाने के लिए श्री दास को निमंत्रित किया, पर उन्होंने जवाब दिया – “मैं और मेरा दल दोहरी शासन प्रणाली को सफल बनाना नहीं चाहते। इसके विपरीत उसका सदा के लिए खात्मा करते की प्रतिज्ञा लेकर ही हम काउंसिल में घुसे हैं ।“ उन्होंने ऐसा ही किया भी। १९२४-२५ में बंगाल काउंसिल में स्वराज्य पार्टी ने सरकार के सभी प्रस्ताव ठुकराए और दोहरे शासन के थोथेपन को खोल कर रख दिया। इस प्रकार चितरंजन दास का कौसिल प्रवेश सफल सिद्ध हुआ।

१९२४ में ही स्वराज्य पार्टी ने कलकत्ता कारपोरेशन के चुनावों में सफलता प्राप्त की और श्री दास उसके मेयर बने। इसी वर्ष उन्होंने भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन की अध्यक्षता भी की और कांग्रेस के बेलगांव अधिवेशन में जिसकी सभापति महात्मा गांधी थे, भाग लिया।

१९२४ का साल वस्तुत: चित्तरंजन दास के लिए बड़ा महत्त्वपूर्ण था। इस वर्ष उनकी गतिविधियां इतनी बढ़ीं कि वह सर्वत्र छा से गए। समाचार-पत्रों में दास-ही-दास नजर आते। इसी वर्ष स्वराज्य पार्टी ने अपने सीराजगंज सम्मेलन में श्री गोपीनाथ साहा के प्रति जो एक अंग्रेज श्री डे के हत्यारे माने गए थे, सहानुभूति का प्रस्ताव भी पास कर दिया। फलतः दास और उनकी स्वराज्य पार्टी, दोनों बड़ी नाजुक हालत में फंस गए। लेकिन चित्तरंजन दास उसमें से साफ निकले और उन्होंने कांग्रेस की अहिंसा और क्रांतिकारियों की हिंसा के संबंध को बड़े प्रभावशाली ढंग से स्पष्ट किया। उन्होंने यह मामला तत्कालीन भारत मंत्री लार्ड बर्कनहैड के सामने भी रखा। इस संबंध में उन्होंने कहा – मैंने पहले ही स्पष्ट कर दिया है और अब फिर से स्पष्ट किए देता हूं कि राजनीतिक हत्याओं या अन्य किसी भी प्रकार की हिंसा का मैं सिद्धांततः विरोधी हूं। पर साथ ही, सरकार को भी यह मानना चाहिए कि क्रांतिकारी चाहे कितनी ही गलती पर हों, उनके तरीके चाहे कितने ही व्यर्थ हों और उनके काम चाहे कितने ही अपराधपूर्ण और निंदनीय हों, उनके जीवन का मुख्य उद्देश्य देश को राजनीतिक और आर्थिक स्वतंत्रता के लिए बलिदान करना है।“

चित्तरंजन दास अपने अंतिम समय में “देशबंधु” कहलाए और १६ जून, १९२५ को, केवल ५५ वर्ष की आयु में लंबे समय तक बुखार रहने के कारण दार्जिलिंग में जब उनका देहावसान हुआ, तब सारा देश एक कोने से दूसरे कोने तक सिहर उठा। उनकी मृत्यु से सचमुच देश को बहुत बड़ा धक्का लगा। महात्मा गांधी की अगवाई में कलकत्ता में लगभग तीन लाख नर-नारियों ने उनकी शवयात्रा में भाग लिया। इस महान नेता के अचानक उठ जाने से भारतीयों के हृदय पर कितना गहरा आघात पहुंचा, इसका पता देशबंधु की शवयात्रा के एक वर्णन से मिलता है। यह वर्णन इस प्रकार है : “लाखों में विरले लोग ही अनुभव कर सकते हैं कि पिछले बृहस्पतिवार को उस लोकप्रिय नेता की शवयात्रा का जो जुलूस कलकत्ता में निकला, वह कितना बड़ा और अनोखा था। वैसा दृश्य बहुत दिनों से सारे अंग्रेजी साम्राज्य में कहीं नहीं देखा गया था । फूलों से लदा चित्तरंजन दास का शव, अपार जन समुदाय के बीच दाहकर्म के लिए घाट पर ले जाया जा रहा था। डोल और रोने-पीटने के स्वर से सारा वातावरण गुंजायमान था। वैसा दृश्य साधारणतः हमारे यहां देखने को नहीं मिलता। जिस समय लंगोटीबंद महात्मा गांधी और कुछ दूसरे लोगों द्वारा कंधों पर उठा कर शव चिता पर ले जाया गया, उस समय भावुकता का अजीब पागलपन-सा फैल गया। वास्तव में, पश्चिम की कोई भी वीर पूजा भारत की हटती हुई मूर्त पूजा का, जो किसी महापुरुष के लिए अनुराग के रूप में प्रकट होती है, मुकाबला नहीं कर सकती।“

इस तरह के शोक प्रदर्शन को हमें सहानुभूति और सम्मान से देखना चाहिए, चाहे भारतीय शासन के भविष्य के बारे में हमारा कितना ही मतभेद क्यों न हो।

इसी वर्ष के आरंभ में चित्तरंजन दास ने अपनी सारी संपत्ति देशसेवा के लिए एक ट्रस्ट के सुपुर्द कर दी। उनका निवास स्थान अब भी “चित्तरंजन सेवा सदन” के रूप में लाखों भारतीयों का आरोग्यधाम बना हुआ है। यह स्त्रियो और बच्चों का बहुत बड़ा अस्पताल है। सचमुच उनकी देशसेवा और त्याग भावना को देख कर भारतीयों का मस्तक अपने आप श्रद्धा से झुक जाता है। उनके निधन के उपरांत महात्मा गांधी ने कहा था – “चित्तरंजन दास चल बसे, पर चित्तरंजन चिरंजीवी हैं। आज भी वह अपने देश के करोड़ों नर-नारियों के हदय में जीवित हैं।“


FAQ`s

Questation : देशबंधु के नाम से कौन जाना जाता है ?

Answer : चित्तरंजन दास जी देशबंधु के नाम से जाने जाते है |

Questation : चित्तरंजन दास का जन्म कब हुआ था ?

Answer : चित्तरंजन दास का जन्म ५ नवंबर, १८७० को कलकत्ता मे हुआ था |

Questation : चित्तरंजन दास का जन्म कहा हुआ था ?

Answer : चित्तरंजन दास का जन्म कलकत्ता (प॰ बंगाल) मे हुआ था |

Questation : चित्तरंजन दास के पिता का क्या नाम था ?

Answer : चित्तरंजन दास के पिता का नाम भवनमोहन दास था | वे कानूनी सलाहकार एवं पत्रकार थे। ब्रह्म समाज के एक प्रमुख सदस्य थे तथा उसके साप्ताहिक पत्र “ब्रह्म पब्लिक ओपीनियन”का संपादन भी करते थे।|

Questation : चित्तरंजन दास के माता का क्या नाम था ?

Answer : चित्तरंजन दास के माता का नाम निष्तारिणी देवी था |

Questation : चित्तरंजन दास की पत्नी का क्या नाम था ?

Answer : चित्तरंजन दास की पत्नी का नाम वासंती देवी था |

Questation : चित्तरंजन दास की मृत्यु कब हुई ?

Answer : १६ जून, १९२५ को, केवल ५५ वर्ष की आयु में लंबे समय तक बुखार रहने के कारण दार्जिलिंग में चित्तरंजन दास की मृत्यु हुई |

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