शंकरदेव |Sankardev | ShankarDev

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शंकरदेव – Sankardev – ShankarDev

शंकरदेव आलिपुखुरि नाम के गांव में १४४८ ई. में दशहरे के
दिन पैदा हुए थे। शंकरदेव की माता सत्यसंधा देवी और पिता कुसुंबर भुइ
या उनके बचपन में ही चल बसे थे। कूसुंबर
“शिरोमणि भुइया”(बड़े जागीरदार) थे। उनकी मरने पर कारोबार शंकरदेव के
दादा जयंत ने संभाला। शंकरदेव का लालन-पालन उनकी दादी खेरसूती करने लगी।

शंकर के बारह वर्ष खेलकूद में ही
बीत गए। बाल संगियो के साथ शंकर दल बनाए हुए जंगल-जंगल फिरते। तीर कमान से शिकार
करते
, चिड़िया पकड़ते, ब्रह्मपुत्र में
आर-पार तैरते और धमाचौकड़ी मचाते
थे। वह बडे नटखट थे
और बड़े निडर भी। कहते हैं कि एक बार वह एक सोते हुए रिछ पर चढ़ बैठे थे। रीछ उठा
और उन्हें ले भागा। किसी तरह शंकर बच सके।

उनका पढ़ाई मे मन नही लगता था| वह खेल कूद मे खान-पान तक भूल जाते थे | बुलाने पर भी घर न आते थे | लोग उन्हे ढूंढते और वह
भागते फिरते थे
| पकड़े जाते तो खूब पिटते | एक दिन दादी खिलाने बैठी तो रोकर पूछने लगी की – “तू पढ़ता क्यो नही ?”

शंकर पसीज गए और कहा – “अच्छा
अब सारे शास्त्र पढ़ डालूँगा”

दादा उन्हें चटसाल में बिठा आए। गुरु जी का नाम था महेंद्र
कंदली। इस बार शंकर पढ़ाई में जुट गए
| खेलकूद भूल गए। ५
वर्ष तक बस पढ़ाई ही पढ़ाई की। ५ वर्ष बाद व्याकरण, काव्य और धर्म
शास्त्रों के पंडित
बनकर घर लौटे।

चटसाल में रहते समय शंकरदेव कुछ योग भी साधते रहते थे। पर
धीरे-धीरे उन्हें भागवत में इतना रस आने लगा की योग मार्ग छोड़ दिया। अब हर घड़ी
भागवत ही लिए रहते। पढ़ते
, गुनते और दूसरों को समझाते । उन्हें भागवत की
भक्ति में इस प्रकार डूबा हुआ देख बड़े-बूढ़े ताने मारते
थे – “शंकर ! बेटा हमसे तो अब कुछ होने से रहा, हमारे सब के लिए तू ही बैकुंठ बना दें”

शंकरदेव सचमुच बैकुंठ बनाने में जुट गए। उन्हें चित्रकारी
का कुछ अभ्यास था। बड़े-बड़े पर्दे लिए और उन पर चित्र आंकने लगे। रंगों
की मदद से ७ पदों पर सात स्वर्ग बनाएं। सातो में सात
भगवान चित्रित किए। जहां-तहां झीलें फुलवाडिया बनाई। जब चित्र बनकर तैयार हुए तब
देखकर लोग दंग रह गए। खबर फैली कि शंकरदेव ने स्वर्ग के चित्र खींचे हैं। राज्य भर
के लोग स्वर्ग देखने आने लगे। क्या बच्चे क्या बूढ़े नर नारियों का तांता बंध गया।
कभी-कभी तो गांव में
पैर रखने के लिए भी जगह न होती। लोग
चित्रों को समझना चाहते थे। प्रत्येक स्थल का वर्णन सुनना चाहते थे। शंकर को
हर समय बार-बार उन्हे समझाना पड़ता था।

आखिर उन्होंने एक उपाय निकाला। गांव की सामान्य बोली में “चिन्ह-यात्रा” नामक एक नाटक लिखा।
सिखा पढ़ाकर
नाटक तैयार किया गया। रामराम गुरु को सूत्रधार बनाया। उन्हीं पर्दो
को सजाकर अभिनय शुरू हुआ। शंकर भेष बदल-बदल कर एक साथ कई पात्रों के रूप में
रंगमंच पर आते। बा
जे  वालों की कमी पड़ती तो, खुद मंच पर फिर पहुंच जाते थे। नट-नटियो के सगे लोग भी उन्हें पहचान नहीं पाए।
सभी पात्रों के बारे में उन्हें यही लगता कि यह भी शंकर ही हैं।

चिन्ह-यात्रा” शंकर की दूसरी रचना थी। छात्र
जीवन में ही वह खंडकाव्य लिख चुके थे।

पुस्तक में उनका कुछ अपना संदेश भी आ ही गया। इसका कारण था
उनका भागवत प्रेम। भागवत को उन्होंने पढ़ा ही नहीं था
, गुना भी था। इससे
वह इस नतीजे पर पहुंचे कि धर्म के पचड़े बेकार हैं। धर्म तो सीधा -सरल होना चाहिए।
उन्होंने ईश्वर प्राप्ति के लिए भक्ति के रास्ते को चुना।

शंकरदेव की इस धर्म ने लोगों के मन में विश्वास पैदा किया
और यह भाव भरा की दुनिया में सभी बराबर हैं। सबका अपना-अपना महत्व है। इससे परस्पर
भेदभाव कम हुए। व्यक्ति को समाज
मे सिर उठाकर संतोष
के साथ जीने का सहारा मिला।

जब शंकरदेव २१ वर्ष के थे, तब वह कीर्तन लिखने लगे। इनमें भागवत पर कथाएं होती। सरल
शब्दों
, सरल गीतों और सरल कथाओं में भक्ति, एकता, समता और ममता का महत्व
समझाना ही इनकी कीर्तनो की विशेषता
है|

घर वालों ने जब देखा कि वह तो
दिन रात धर्म-कर्म में ही व्यस्त रहते हैं तब उन्होंने शंकरदेव का ब्याह सूर्यवती
देवी से कर दिया। साथ ही भुइयागिरी की जिम्मेदारी कंधों पर डाल दी।
शंकरदेव ने दोनों जिम्मेदारियां संभाल ली। फिर भी वह अपना अधिक समय
कृष्ण के गुण गाने और धर्म फैलाने में ही बिताते थे।

जात-पात के भेदभाव से उस समय बड़ा बुरा हाल
था। ब्राह्मण और भुइया कायस्थ ऊंची जात माने जाते थे बाकी लोग नीची जात। इनमें भी
ऊंचाई नीचाई थी। मल्लाह सबसे नीचे थे। शंकर को यह सब भेदभाव पसंद नहीं था
, इसीलिए उन्होंने
जात-पात पर गहरी चोट की।

बरदोवा के पास एक नाला था। वर्षा के समय में जब इस नाले में बाढ़ आती तो वह खेतों की
फसल बहा ले जाता था। प्रज्ञा ने उनसे
बांध बनवाने
के लिए
विनती की |

शंकर ने सभी गांव के लोगों को जुटाया और बांध बनवाने लगे।
पर बांध टूट जाता था। अंत में शंकर ने कहा – “मिट्टी का पहला ढेला अगर कोई सती
डालें तो बांध टीके”

सती की खोज शुरू हुई। आखिर एक केवट युवती राधिका आगे आई और बांध का
कार्य शुरू हुआ साथ ही साथ बांध
टिक गया। ऊंची-जात वालों का घमंड
चूर हो गया। आज तक यह नाला सती नाला कहलाता है।

शंकर कोई ३० वर्ष के हुए तो उनकी
बेटी हुई। उन्होंने उसका नाम रखा मनु। मनु के जन्म के ९ महीने बाद ही शंकर की
पत्नी का देहांत हो गया। इसके ९
वर्ष बाद शंकर तीर्थ
करने निकले। उन दिनों तीर्थ का अर्थ था सारे देश में पैदल
घूमना, वह १२ वर्ष इधर-उधर घूमें। हर जगह लोग उनके उपदेश से मुग्ध
हो गए। इस यात्रा में उन्होंने कितने ही शिष्य बनाएं। फिर  जब वह बरदोवा लौटे
, तब सगे-संबंधी और प्रजा की
बहुत जोर डालने पर दूसरी शादी कर ली।

इसी बीच भुइया लोगो और कछारियो में अनबन हुई। कुसुंबर के
बाद शासन ढीला पड़ गया था। कछारी चढ़ आए थे। शंकर ने सामना करना ठीक ना समझा।
उन्होंने बरदोवा छोड़कर चले जाने का निश्चय किया।

यह घटना १५१६ ई॰ की थी | शंकरदेव ६८ वर्ष
के हो चुके थे। अब तक वह अपनी
कीर्तन घोषा नामक पुस्तक के
आठ खंडों के अलावा भक्ति प्रदीन
, रुकमणी हरण काव्य, बड़े-गीत” भागवत के छठे (अजामिल की कहानी) और आठवे-स्कंध” (गज ग्राह अमृत
मंथन हरमोहन )तथा गुणमाला की कुछ अध्याय लिख चुके थे।

ब्रह्मपुत्र नदी के पास जहां उन लोगों ने
शरण ली थी
, भोटिया लोग कभी भी हमला किया करते थे। भुइया लोगों को रहना मुश्किल हो गया। शंकर अपना दल-बल लेकर माजुली(टापू) पर
चले गए। यहां वह १४
वर्ष रहे। यही उन्हें
अपने कई प्रमुख चेले मिले। इन्हीं में माधवदेव भी थे। वह शास्त्रार्थ करने आए थे
लेकिन शंकर को देखते ही सारा घमंड भूल गए और उनसे दीक्षा ले ली। जीवन भर
वह शंकर के साथ रहे। उन्होंने शंकर के मत को फैलाया।

शंकरदेव अपने शिष्यों के साथ पाटबाउसी में कीर्तन किया करते
थे
, इसीलिए उनके भक्त पाटबाउसी तो दूसरा वृंदावन
मानते हैं। यहां चांदवा (चांदशाह) नाम
का एक मुसलमान
सज्जन और गारो कबीले के गोविंद नामक नेता आकर इनकी शिष्य हुए। इन दोनों ने जात-पात
और छुआछूत मिटाने तथा पूरी असम जाति को एक करने की दिशा में बहुत बड़ा काम किया।
शंकर जहां कहीं जाते हैं कीर्तन स्थल खुलवा आते
थे| बाद में कीर्तन
स्थल ही देहातों की शासन केंद्र और संस्कृति केंद्र बने।

वह पाटबाउसी से ही ९७ साल की अवस्था में दूसरी तीर्थ यात्रा
पर निकले। इस बार वह गंगा
, नवद्वीप, कबीरमठ, श्री क्षेत्र और
पुरी की यात्रा कर आए।

जब शंकर लौट कर आए तो उन्होंने पूरे असम में किर्तनो की धूम
मचा दी। उनका प्रभाव पहले से कई गुना बढ़ गया था। उनकी विरोधी घबराए और यह अफवाह फैलाई
की शंकरदेव हिंदू धर्म को मिटाना चाहते हैं। कोच राजा ने शंकर की गिरफ्तारी का
आदेश जारी कर दिया। राजा के भाई दीवान चिलाराय शंकर
को अच्छी तरह जानते थे। उन्होंने शंकर को चुपके से बुलवा लिया। दरबार में पेशी
हुई। पंडित लोग शंकर से शास्त्रार्थ करने को झपटे। पर शंकर ने उन्हें मात कर दिया।
इससे उनका सम्मान और बढ़ गया। वहीं उन्होंने अपनी “गुणमाला” नामक पुस्तक पूरी करके
राजा को भेंट की। राजा यह कमाल देखकर चकित रह गए। उसने पुरस्कार में शंकर को
भेट दी

कहते है की एक सौ बीस वर्ष की अवस्था में १५६८ ई॰ की भादो सुदी दूज को सामूहिक कीर्तन करते करते हैं, महापुरुष शंकरदेव ने अपनी देह त्याग दी |

शंकर आदर्श गृहस्थ थे। उनकी गृहस्थी बड़ी थी। अपने बच्चों
के लिए उन्होंने शिक्षक रख छोड़े थे। खेती नौकर देखते थे। अतिथियों और सहायता
मांगने वालों से उनका घर सदा भरा रहता। उनकी उदारता की कोई सीमा न थी।

शंकर ने जनता को पुरोहितों के पंजे से छुड़ाया और जात-पात
की जड़े हिला दी। शंकर असम की जाति चेतना के अग्रदूत थे। उनका नाम कभी भुलाया नहीं
जा सकता। वैष्ण
साधुओं ने उनकी
कई जीवन चरित्र लिखे हैं
|

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