डेविड लिविंगस्टोन | David Livingstone Biography

डेविड लिविंगस्टोन

डेविड लिविंगस्टोन | David Livingstone Biography

“सधर्म के प्रचार के लिए अफ्रीका जाने के लिए मार्ग का निर्माण करूंगा ।“

इससे पहले उसने इस महाद्वीप की कई साहसिक यात्राएं की थीं । उसका विश्वास था कि अफ्रीका के साथ व्यापार खुल जाने पर अरबों और दूसरे गुलाम यात्रियों को मुक्ति मिल जायेगी । इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए इस साहसी व्यक्ति ने अपना सारा जीवन अफ्रीका की खोज-यात्राओं में बिता दिया । अनेक खतरों और कठिनाइयों का मुकाबला करते हुए अंत में उसने अपने प्राणों का बलिदान दे दिया ।

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डेविड लिविंगस्टोन का जन्म १९ मार्च, १८१३ को स्कॉटलैंड के ब्लैटायर (Blantyre) नामक स्थान पर हुआ था । उसके मां-बाप काफी गरीब थे, इस कारण उसे दस साल की उम्र में ही एक कपड़े की मिल में नौकरी करनी पड़ी । उसने एक पत्र में लिखा था कि मैं इस मिल में केवल खाने-पीने में लगाए गए वक्त को छोड़कर प्रातः ६ बजे से लेकर रात के ८ बजे तक काम करता हूं । इतनी व्यस्तता के बावजूद भी यह बालक रात्रि में दो घंटे पढ़ने के लिए जाता था । उसने लैटिन भाषा और दूसरे विषयों का अध्ययन किया । सन् १८३६ से १८३८ के दौरान, मिल की नौकरी से कुछ पैसा कमाने के बाद उसने ग्लासगो विश्वविद्यालय में चिकित्सा की पढ़ाई की | अंत में उसने लंदन मिशनरी सोसायटी से शास्त्र का अध्ययन किया ।

सन् १८३८ के अंत मे उसे एक प्रार्थना पत्र भेजा गया और इस सोसायटी ने उसे मिशनरी के रूप में दक्षिण अफ्रीका भेजने का निश्चय किया । वह एक चतुर चिकित्सक था । नवंबर, १८४० में उसके अफ्रीका जाने की पूरी तैयारी कर दी गयी ।

३१ जुलाई, १८४१ को लिविंगस्टोन अपने उद्देश्य केन्द्र कुरमान (Kuruman) पहुंचा । कुछ ही दिनों में उसका यह विचार बना कि ईसाई धर्म के प्रचार के लिए वह अफ्रीका के आंतरिक भागों में जाये ।

सन् १८४३ में वह उत्तर की ओर चल पड़ा, तब तक वह एक खोज-यात्री बन चुका था । एक धर्म प्रचारक के रूप में वह दक्षिणी अफ्रीका के विभिन्न भागों में सन् १८४९ से १८५६ के बीच में कई कठिन यात्राएं करता रहा और अनेक महत्त्वपूर्ण आविष्कार भी किये । सन् १८५७ में उसने जैंबेजी नदी (Zambezi River) के ऊपरी भागों का पता लगाया जो उन दिनों के मानचित्रों में गलत प्रदर्शित किये जाते थे । सन् १८५५ की बात है कि जब वह जैंबेजी नदी के बहाव की दिशा में एक नौका पर जा रहा था तो उसने आकाश में पानी की फुहारें बादल के रूप में देखीं । आगे बढ़ने पर उसने देखा कि जैंबेजी नदी का पानी चार सौ फुट की गहरायी में एक प्रपात के रूप में गिर रहा था ।

महारानी विक्टोरिया के सम्मान में उसने इस प्रपात का नाम विक्टोरिया फाल (Victoria Falls) रखा । लिविंगस्टोन ने अज्ञात स्थानों, नदियों व झीलों की कठिन यात्राएं कीं । यद्यपि वह एक धर्म प्रचारक था लेकिन उसका नाम अफ्रीका के अज्ञात प्रदेशों के खोजी के रूप में अधिक प्रसिद्ध है ।

सन् १८५६ में जब वह इंग्लैंड लौटा तो वहां उसका नाम एक महानतम खोज-यात्री के रूप में जनता में प्रसिद्ध हो गया । उसने लंदन मिशनरी सोसायटी को छोड़ दिया और सन् १८५८ में एक सरकारी नुमाइंदे के रूप में जैंबेजी के रहस्यों का पता लगाने के लिए फिर अफ्रीका पहुंच गया । उनका खोज-यात्री दल यात्रा पर चल पड़ा और कुछ ही दिनों में इस दल ने न्यासा (Nyasa) झील का पता लगाया ।

अपनी इस यात्रा के दौरान उसने पूर्तगालियों के अधीन ८४ गुलाम पुरुषों और महिलाओं को आजाद कराया । इससे पुर्तगालियों ने उसका विरोध किया जिसके परिणामस्वरूप सन् १८६३ में इस खोज-यात्री दल को इंग्लैंड वापस आना पड़ा ।

सन् १८६५ में अंतिम बार लिविंगस्टोन फिर अफ्रीका गया । इस बार उसका उद्देश्य नील नदी के उद्गम स्रोत का पता लगाना था । उसका स्वास्थ्य अनेक यात्राओं की कठिनाइयों के परिणामस्वरूप एवं उम्र के साथ काफी गिर गया था ।

यह बहादुर आगे बढ़ता गया और म्वेरू (Mweru) झील का पता लगाया | वह बहुत कमजोर हो गया तथा शरीर रोगियों जैसा हो गया था । सन् १८७१ में वह उजीजी (Ujiji) पहुच गया । रास्ते में अरब व्यापारियों के साथ वह आगे की ओर बढ़ा | कई वर्षों तक इंग्लैंड में उसके विषय में कछ भी नहीं सुना गया । लोगों को लगने लगा कि कहीं लिविंगस्टोन मर तो नहीं गया । अतः अमरीका के एक समाचार पत्र ‘न्यूयार्क हेरेल्ड’ (New York Herald) ने अपने एक संवाददाता हेनरी मार्टन स्टेनले (Henry Morton Stanley) को उसका पता लगाने के लिए भेजा । वह तीन वर्ष तक कठिन यात्रा करके उजीजी पहुंचा और वहां उसकी मुलाकात वृद्ध, कमजोर और सफेद दाढ़ी वाले व्यक्ति डॉ. लिविंगस्टोन से हुई । दोनों ने आपस में हाथ मिलाया और खुशी से फूले न समाये ।

सन् १८७२ में स्टेनली को वापस लौटना था । उसने लिविंगस्टोन से वापस चलने की बहुत प्रार्थना की लेकिन उसको तो आगे बढ़ने की धुन लगी हुई थी । उसे नील नदी के उद्गम का पता लगाना था । २५ अगस्त को फिर यह बहादुर यात्री आगे बढ़ने लगा । चलते-चलते जब वह चितांबो (Chitambo) गांव पहुंचा तो अत्यधिक कमजोरी के कारण इस साहसी यात्री की वहीं मृत्यु हो गयी । इस प्रकार १ मई, १८७३ को यह महान खोज-यात्री भगवान को प्यारा हो गया । उसका पार्थिव शरीर वहां से इंग्लैंड लाया गया और इस महान खोज-यात्री को महान सम्मान के साथ वेस्टमिनिस्टर ऐबे (Westminster Abbey) में दफनाया गया ।

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