शरतचंद्र चट्टोपाध्याय | Sarat Chandra Chattopadhyay

शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की जीवनी

Sarat Chandra Chattopadhyay Biography

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कालेज में विज्ञान की परीक्षा थी। बालक के उत्तरों को पढ कर परीक्षक हैरान रह गया। सोचा, हो न हो, इसने नकल की है। उसने बालक को बुलाया और फिर से नए प्रश्न पूछे। बालक ने उनके जो उत्तर दिए, उन्हें सुन कर परीक्षक को बालक की स्मरण शक्ति का लोहा मानना पड़ा।

Sarat Chandra

संक्षिप्त विवरण(Summary)[छुपाएँ]
शरतचंद्र चट्टोपाध्याय जीवन परिचय
पूरा नाम शरतचंद्र चट्टोपाध्याय
जन्म तारीख १५ सितंबर १८७६
जन्म स्थान देवानंदपुर गांव(बंगाल)
धर्म हिन्दू
पिता का नाम मोतीलाल
नाना का नाम केदारनाथ गांगुली
माता का नाम भुवनमोहिनी
पत्नि का नाम हिरण्यमयी देवी
भाई/बहन २ भाई १ बहन, प्रभासचंद्र,
प्रकाशचंद्र, अनीला देवी
शिक्षा प्रारम्भिक शिक्षा(देवानंदपुर),
हुगली ब्रांच स्कूल, एंट्रेंस
कार्य कहानी लेखन, उपन्यासकार,
हावड़ा कांग्रेस कमेटी
के प्रधान,
आमतौर पर लिए जाने वाला नाम शरत
मृत्यु तारीख १६ जनवरी १९३८
मृत्यु स्थान कलकत्ता
उम्र ६१ वर्ष
मृत्यु की वजह लू लगने के
बाद बीमार
उपलब्धिया कलकत्ता विश्वविद्यालय से
जगततारिणी” स्वर्ण पदक,
ढाका विशवविद्यालय ने
डाक्टर की उपाधि
शरतचंद्र का साहित्य कहानी(मंदिर, बड़ी दीदी, रामेर सुमति,
पथे निर्देश, बिंदो का लल्ला, महेश)
उपन्यास(पथ के दाबेदार)

था न अनोखा बालक? छुटपन में जब वह बहुत शरारत करता, तो मां उसे मारती और कहती – क्या करेगा यह लड़का? कैसे चलेगा इसका काम ?

उनकी सास कहती – “बहु, तू इसे मत मारा कर। कहे देती हूं कि एक दिन मति फिर जाएगी और वह बहुत बड़ा आदमी बनेगा। मैं वह दिन देखने के लिए नहीं रहंगी, लेकिन मेरी बात झूठ नहीं होगी।“

सचमुच वह लड़का बहुत बड़ा आदमा हुआ। उसकी दादी वह दिन देखने के लिए नहीं रही। मां-बाप भी नहीं रहे।

कौन था यह लड़का? यह लड़का था भारत का प्रसिद्ध लेखक शरतचंद्र चट्टोपाध्याय

शरतचंद्र का जन्म १५ सितंबर १८७६ में बंगाल प्रांत के हुगली जिले के देवानंदपुर गांव में हुआ था। उस दिन पूर्णिमा थी पूर्णिमा को चांद पूरा निकलता है। शरतचंद्र नाम भी चांद की याद दिलाता है।

शरतचंद्र के दादा बड़े वीर, बड़े निडर थे वह जमाना जमीदारों का था। उनके जुल्म की कहानियां किसने नहीं सुनी? किसी बात पर शरत के दादा ने किसानों का पक्ष लेकर जमीदार का विरोध किया। बस, उन्हें घर छोड़ना पड़ा। इतना ही नहीं, बाद में उनका कटा हुआ सिर एक घाट पर पड़ा मिला। कोई और होता तो बुरी तरह घबरा जाता, लेकिन शरत की दादी नहीं घबड़ाई। रातों रात भाई के पास चली गई । इसी देवानंदपुर गांव में इनके भाई का घर था। उस समय शरत के पिता मोतीलाल बालक थे।

उस समय की प्रथा के अनुसार मोतीलाल का विवाह बचपन में ही हो गया था। विवाह के बाद मां ने बेटे को पढ़ने के लिए ससुर के घर भागलपुर भेज दिया। शरत के नाना केदारनाथ गांगुली बड़े आदमी थे। मोतीलाल ससुराल में रहने लगे। लेकिन वह अधिक न पढ़ सके। दिल उनका बहुत बड़ा था। प्यार भी खूब करते थे, लेकिन काम करना नहीं जानते थे बस, सपने ही देखा करते। उनमें और भी गुण थे। मसलन वह बहुत सुंदर अक्षर लिखते थे, बहुत बढ़िया चित्र बनाते थे, बहुत अच्छी कहानी लिखते थे लेकिन न तो उन्होंने कभी कोई चित्र पूरा किया, न कभी कोई कहानी।

शरत की मां का नाम भुवनमोहिनी था। सुंदर वह नहीं थीं पर स्वभाव उनका सबको मोहने वाला था। काम भी खूब करती थीं। घर चलाती थीं। घर चलाने की सामग्री भी जुटाती थीं। किसको किस चीज की जरूरत हैं, कौन किस वक्त खाना खाता है, किसका बच्चा किस समय सोता है, वह इन सब बातों का ध्यान रखती थीं। सबको खिला कर खाती, सबको सुला कर सोती।

शरत बचपन में गांव के स्कूल में ही पढ़ते थे। फिर इनकी मां उन्हें अपने पिता के यहां भागलपुर ले गई। पढ़ने के साथ-साथ उनको अखाड़े का भी शौक था, इनके मित्र भी बहुत थे। इनमें राजेंद्र उर्फ राजू नाम का एक लड़का इनका बहुत बड़ा मित्र था सच तो यह है कि वह इनके सब भले-बुरे कामों का गुरु था। गाना-बजाना, नाव खेना, मछलियां पकड़ना और मुसीबत में हर किसी का साथ देना शरत ने इसी से सीखा था लेकिन शरत के पिता भागलपुर में भी बहुत दिन न रह सके। फिर देवानंदपुर लौटे। यहां शरत हुगली ब्रांच स्कूल में पढ़ने लगे और राज की शिक्षा के कारण जल्दी ही लड़कों के सरदार बन गए।

शरत के पिता गांव लौट तो आए पर खाएं कहां से ? जम कर काम करने की आदत ही नहीं थी। मन मार कर मां को फिर पिता के घर लौटना पड़ा। यहां आकर शरत फिर स्कूल में भरती हुए और अठारह साल की आयु में १८९४ में यहीं से उन्होंने एंट्रेंस की परीक्षा पास की।

इन्हीं दिनों शरत ने साहित्य की ओर ध्यान दिया। एक उपन्यास लिखा, फिंर फाड़ डाला, क्योंकि वह उनको पसंद नहीं आया था एक-एक करके कई रचनाएं उन्होंने इसी तरह फाड़ डालीं। यह फाड़ना अच्छा ही हुआ। वह आज के लेखक की तरह नहीं थे जो एक रही सी रचना करने के बाद अपने को महान लेखक समझने लगता है। लिखना तो साधना है और शरत सचमुच ही साधक थे। वर्षों तक चुपचाप उनकी साधना चलती रही। वह पढ़ते भी खूब थे। पुस्तकालय से सबसे अधिक पुस्तकें लाते। तुरंत कहानी बना कर साथियों का मनोरंजन करना भी उन्हें खूब आता था।

जिस वर्ष उन्होंने एंट्रेंस की परीक्षा पास की उसके अगले वर्ष उनको मां की मृत्यु हो गई। परिवार पर मानो मुसीबत का पहाड़ टूट पड़ा हो। पिता तो कुछ करना जानते थे नहीं पेट में अन्न नहीं, हाथ में पैसे नहीं। शरत लगे रहते थे नाचने-गाने और नाटक में। उन्हीं दिनों किसी बात को लेकर मामा के घर में इनका अपमान हुआ और वह दुखी हो कर घर से भाग गए। बचपन में पहले भी भाग चुके थे, छः महीने बाद लौटे लेकिन परीक्षा में नहीं बैठ सके। फीस के लिए पैसे नहीं थे और अध्यापक लोग भी इनको आवारा समझने लगे थे। कुछ भी हो, पढाई समाप्त हो गई। वह फिर नाटक-थियेटर में लग गए । लेकिन ऐसे कब तक चलता? छोटे-छोटे भाई-बहन थे। विवश होकर शरत ने वानली इस्टेट में नौकरी कर ली। संगीत और शिकार के कारण अफसर को यह प्यारे थे, लेकिन पिता की तरह इनमें भी टिकने की आदत नहीं थी। एक दिन नौकरी छोड़ दी और पुस्तक पढ़ने-लिखने में लग गए। इन दिनों इन्होंने खूब लिखा। आगे चल कर इन दिनों को लिखी पुस्तकें बहुत प्रसिद्ध हुई ।

पिता जी को नाना प्रकार के पत्थर इकट्ठे करने का शौक था। एक दिन शरत ने चुपके से उन कीमती पत्थरों को उठाया और एक धनी के पास गिरवी रख आए, किसी गरीब मित्र को रुपये की सख्त जरूरत थी। पिता जी को पता लगा तो बहुत नाराज हुए। घर से निकल जाने को कह दिया। शरत ने बड़े-बड़े अपराध किए थे, पर पिता ने कभी भी कुछ नहीं कहा था इन पत्थरों के लिए घर से निकल जाने को कह दिया। वह कुछ नहीं बोले। उसी दिन घर छोड़ दिया और नागा साधुओं के साथ दूर-दूर तक घूमते रहे।

कई महीने बाद साधु के वेश में वह मुजफ्फरपुर पहुचे । यहां वह शीघ्र ही लोक-प्रिय हो गए । क्योंकि बांसुरी बहुत अच्छा बजाते थे और खुब सेवा करते थे। वे रोगी जिनका कोई नहीं था, शरत उनकी जी-जान से सेवा करते, जो असहाय व्यक्ति मर जाते उनका आदर के साथ संस्कार करते। यहीं पर उनका परिचय एक युवक जमीदार महादेव साहू से हुआ | कई महीने शान के साथ इनके पास रहे। शरत १९०१ के अंत में घर से भागे थे पिता जी की मृत्यु १९०२ के अंत में हो गई। तुरंत भागलपुर पहुंचे। जेब में एक पाई भी नहीं थी। साइकिल बेच कर पिता का अंतिम संस्कार किया। बस, अब इस संसार में वह थे और थे उनके तीन छोटे भाई बहन। किसी तरह उनको इधर-उधर रिश्तेदारों के पास छोड़ कर वह नौकरी की तलाश में कलकत्ता पहुंचे। कुछ दिन अपने एक वकील मामा के पास रहे, लेकिन यहां भी इनका अपमान होता था, इसलिए एक दिन चुपचाप एक मित्र की सहायता से रंगून चले गए।

जाने से पहले उन्होंने एक प्रतियोगिता के लिए एक कहानी भेजी थी । इस कहानी का नाम था “मंदिर” । यह कहानी उन्होने अपने नाम से नहीं भेजी, अपने मामा सुरेंद्रनाथ के नाम से भेजी थी जो इनके बड़े मित्र थे। बाद में इसी कहानी पर प्रथम पुरस्कार मिला।

रंगून में इनके एक रिश्ते के मौसा बहुत बड़े वकील थे । उन्होंने शरत को बड़े प्यार से अपने पास रखा। वकील बनाने का प्रयत्न किया। लेकिन बर्मी भाषा की परीक्षा पास नहीं कर सके और वकील बनने से रह गए। उन्होंने रेलवे के दफ्तर में नौकरी कर ली, लेकिन कुछ दिन बाद अचानक मौसा की मृत्यु हो गई और यह घर से भाग गए। कहते हैं, बहुत दिनों तक साधु के वेश में घूमते रहे । इन दिनों इन्होंने बहुत कुछ देखा, लेकिन अंत में जुलाई १९०६ में यह लुका-छिपी का खेल समाप्त हो गया और वह नौकरी करने लगे। जनवरी १९०३ में वह रंगून आए थे और अप्रैल १९१६ में भारत वापस आने तक वह नौकरी ही करते रहे। इन वर्षों में उन्होंने वहां के जीवन का खूब अध्ययन किया इसकी चर्चा उनके उपन्यासों में आती है।

संगीत, शिकार, सेवा और अध्ययन के कारण वहां वह बहुत लोकप्रिय हो गए। बातचीत करने का उनका ढंग कुछ ऐसा था कि कोई भी उनसे प्रेम किए बिना नहीं रह सकता था । वो स्वभाव से वह बहुत लजीले थे, लेकिन बड़े हमदर्द भी थे, दूसरों का दर्द देख कर वह केवल रोकर ही नहीं रह जाते थे, उस दर्द को दूर करने के लिए जो कुछ हो सकता था करते थे।

५ फरवरी, १९१२ की बात है। उनके पडोस में आग लग गई। बर्मा में लकड़ी के मकान होते हैं। देखते-देखते उनका मकान भी जलने लगा जल्दी में बहुत थोड़ा सामान उतार के और इनकी सभी वस्तुएं, पुस्तकालय, पांडुलिपियां जल कर राख हो गई। लेकिन तभी पता लगा कि पड़ोसी का एक बकरी का बच्चा अंदर रह गया है। शरत अपने प्राणों को संकट में डाल कर अंदर गए और बच्चे को बहार निकाल लाए, पशु-पक्षियों तक से वह इतना प्रेम करते थे कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता।

भागलपुर में रहते समय उन्होंने अनेक पुस्तके लिखी थीं। उनमें एक थी “बड़ी दीदी” | उनके पीछे एक मित्र ने वह कहानी एक पत्र में छपबा दी। उसके छपते ही बंगाल में तहलका मच गया। लोगों ने समझा हो न हो रवीद्रनाथ ने ही यह कहानी लिखी है। लेकिन उन्होंने इंकार कर दिया की मैंने नहीं लिखी । लेकिन इसका लिखने वाला अवश्य बहुत बड़ा लेखक है।

अंतिम पृष्ठ पर शरतचंद्र का नाम छपा था । पर तब उन्हें कौन जानता था। स्वयं शरत को बहुत दिन बाद इसका पता लगा। उसके बाद जैसे झिझक खुल गई और उन्होंने कलकत्ता आकर लोगों से मिलना-जुलना और लिखना शुरू कर दिया।

इस समय “यमुना” में उनकी एक के बाद एक कई कहानियां छपी। “रामेर सुमति”, “पथे निर्देश” और “बिंदो का लल्ला” इत्यादि । इन कहानियों से उनकी धाक जम गई। सभी उनसे रचनाएं मांगने लगे। लेकिन उनका स्वास्थ्य खराब था। बरमां की जलवायु उन्हें अनुकूल नहीं लग रही थी। पेट में बराबर दर्द रहता था। डाक्टरों ने कहा, अब आप रंगून छोड़ ही दीजिए।

किसी तरह मित्रों की सहायता से सौ रूपये माहवार का प्रबंध हुआ और चौदह वर्ष बाद शरतचंद्र ने रंगून छोड़ दिया।

कलकता लौटने पर वह प्रसिद्ध ही नहीं हुए, पैंसा भी खूब मिलने लगा। १९२३ तक उनकी आय एक हजार रू० मासिक से बढ़ गई। उनके एक भाई प्रभासचंद्र संन्यासी हो गए थे। दूसरे भाई प्रकाशचंद्र को बुला कर उन्होंने अपने पास रखा और उसका विवाह भी किया। बड़ी बहन अनीला देवी को भी अकसर अपने घर बुलाते थे। देखते-देखते उनका घर मित्रों और नए लेखकों का अड़डा बन गया। शरत का साहित्य पढ़ो तो एक बात साफ दिखाई देगी कि उन्होंने पतितों गिरे हुओं का सहानुभूति के साथ चित्रण किया पाप से घृणा करो, पापी से नही,| यह उनके साहित्य का मूलमंत्र है।

शरत केवल लेखक ही नहीं थे, स्वाधीनता संग्राम के एक सेनानी भी थे | सन १९२१ से लेकर १९३८ में अपनी मृत्यु तक वह हावड़ा कांग्रेस कमेटी के प्रधान रहे। वह मानते थे, राजनीति में योग देना सब देशवासियों का कर्तव्य है विशेषकर हमारे देश में राजनीतिक आंदोलन देश की मुक्ति का आंदोलन है। साहित्यिकों को इसमें सबसे आगे बढ़ कर योग देना चाहिए। अपने एक उपन्यास “पथ के दाबेदार” में उन्होंने क्रांतिकारियों के जीवन का चित्रण किया है।

इस समय सारे देश में उनका नाम था। उनका सम्मान भी बहुत होता था। अनेक समाजों के सभापति बनते थे। सन १९२३ में कलकत्ता विश्वविद्यालय ने उन्हें “जगततारिणी” स्वर्ण पदक देकर उनका सम्मान किया। सन १९३४ में बंगीय साहित्य परिषद ने अपना विशिष्ट सदस्य निर्वाचित किया और १९३६ में ढाका विशवविद्यालय ने डाक्टर की उपाधि देकर उनका सम्मान किया। उनके उपन्यासों के नाटक बने और कलकत्ता में प्रसिद्ध अभिनेता शिशिर भादुड़ी ने उन्हें सफलतापूर्वक खेला। बाद में उनके उपन्यासों पर अनेक चलचित्र भी बने और बहुत लोकप्रिय हुए।

शरत की कहानी उनके कुत्ते के बिना पूरी नहीं हो सकती। उस का नाम था भेलू। बड़ा बदसूरत और बहुत ही भोंकनेवाला। आनेवाले उससे बेहद घबड़ाते थे। लेकिन जब वह बीमार पड़ा तो शरत ने अपने बेटे से भी अधिक प्यार से उसका इलाज करवाया । लेकिन वह बच नहीं सका। तब वह इतना रोये, इतना रोये कि सब दांतों तले अंगुली दबाने लगे। बड़े प्यार से उन्होंने शिवपुर के अपने घर में उसकी समाधि बनवाई।

उस जमाने में नारी बहुत दुखी थी। शरत ने पहली बार बंगाल की नारी को पालतू पशु पद पर बैठाया इसीलिए डनकी सत्तावनबी जन्मतिथि के सब तरह के अपमान की अवस्था से उठा कर मनुष्य उपलक्ष्य में बंगाल की नारियों ने उनका अभिनंदन करते हुए कहा – “सब तरह की हीनता की हालत में भी नारी की जो विशेषताएं हैं, वे सारे देश के सारे समाज में मौजूद हैं। तुमने इस सच्चाई को प्रकट किया है। हम तुममें श्रद्धा करती हैं, तुमको अपना समझती हैं, तुम्हारी वंदना करती हैं।“

शरत का गृहस्थ जीवन बहुत सुखी था। वह कभी आवारा थे, बदनाम थे, भिखारी थे। लेकिन अब वह सुखी थे उनकी पत्नी हिरण्यमयी देवी जिसे वह “बहू” या “बड़ी बहू” कह कर पुकारते थे, बहुत पति-परायणा थीं। वह बहुत सरल, व्रत-उपवास करने वाली तथा अतिथियों का आदर करने वाली हिंदू महिला थीं |

वह सामताबेड़ में मकान बनाकर रहने लगे थे। यहां के गरीब किसान उनको साहित्य सम्राट के रूप में नहीं, बल्कि गरीबों के मां-बाप के रूप में जानते थे वह भी अपने दुख के दिनों को नहीं भूले थे, चुपचाप सदा दूसरों की सहायता करते थे। अनेक क्रांतिकारियों की उन्होंने पैसे से सहायता की। मध्यम वर्ग के हिंदू परिवार के बारे में लिखा, लेकिन उन्होंने गांवों को भी भुलाया नहीं। जमीदारों और पुरोहितों के अत्याचार की कहानी भी वह भूले नहीं। उनकी “महेश” कहानी बहुत ही मार्मिक है। यह एक गरीब मुसलमान गफूर और उसके प्यारे बैल महेश की करुण कथा है।

उनका स्वास्थ्य सदा ही खराब रहा, लेकिन १९३६ में लू लगने के बाद से तो वह बराबर गिरता ही रहा। धीरे-धीरे उन्हें शैय्या की शरण लेनी पड़ी। हवा बदलने भी गए, लेकिन उससे भी कुछ लाभ न हुआ। अंत में डाक्टर विधानचंद्र राय की सलाह से एक्स-रे किया गया। पता लगा, जिगर का कैंसर है। यह मौत का बुलावा था, ऑपरेशन किया गया लेकिन कुछ लाभ नहीं हुआ और १६ जनवरी १९३८ की रात के दस बजे ६१ वर्ष की आयु महान कथाशिल्पी ने अंतिम सांस ली। उस दिन पूर्णिमा थी। जिस दिन जन्म लिया था उस दिन भी पूर्णिमा ही थी। पूर्ण चंद्र के प्रकाश में ही वह आए और पूर्ण चंद्र के उजियारे में ही वह चले गए। उनके साहित्य में यही उजियारा फैला हुआ है। उस समय उनकी आयु ६१ वर्ष ४ मास थी।

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