समर्थ रामदास | Samarth Ramdas

 %25E0%25A4%25B8%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25B5%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25AE%25E0%25A5%2580%2B%25E0%25A4%25B0%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25AE%25E0%25A4%25A6%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25B8
समर्थ रामदास | Samarth
Ramdas

शिवाजी के गुरु समर्थ स्वामी रामदास थे । महाराष्ट्र राज्य
के औरंगाबाद जिले में आंबड़ नामक परगने में जांब नामक एक गांव है ।
यही १६०८ में स्वामी रामदास का जन्म हुआ था ।
इनका असली नाम नारायण था । रामदास बचपन में बहुत चंचल और ऊधमी थे । अपना सारा समय
वह छतो और पेड़ों पर चढ़ने तथा अन्य शैतानियां करने में व्यतीत करते थे ।

रामदास के पिता का नाम सूर्याजी पंत और माता का नाम राणुबाई था । दोनों के
विचार बड़े धार्मिक थे । बहुत समय तक उनकी कोई संतान न थी । इसलिए दोनों दुखी रहते
थे । एक बार जब दोनों एक यज्ञ कर रहे थे तो राणुबाई ने एक सपना देखा । सपने में
किसी ने कहा तुम्हारे दो पुत्र होंगे । ऐसा हुआ भी
, छोटे पुत्र का
नाम नारायण था ।

बड़े होने पर नारायण का नाम पड़ा रामदास । एक दिन रामदास की
मां ने उनसे कहा कि तुम विवाह कर लो । उस समय उसकी आयु बारह वर्ष की थी । किसी
प्रकार उन्होंने मां कि आज्ञा मान ली और धूमधाम से वैवाहिक विधियां पुरी होने लगी
। पर जब पाणिग्रहण का समय आया
, तो ब्राम्हणों ने “ शुभ मंगल सावधान”
मंत्र अर्थात पैरो में गृहस्थी रूपी बेड़ी पड़ रही है
, सावधान हो जाओ
कहा । रामदास इस मंत्र को सुनकर सोचने लगे “मैं इतना सावधान तो रहता हूं”। न जाने
ये लोग मुझसे और क्या आशा करते हैं।

यह सोचकर रामदास वहां से भाग गए । लोगों ने उनका बहुत पीछा
किया
, परंतु वह किसी के
भी हाथ नहीं आए । इसके बाद वह पंचवटी के टाकली नामक गांव में रहने लगे । वहां वह
प्रतिदिन गोदावरी नदी में स्नान करने जाया करते थे । कभी-कभी दोपहर तक पानी में
खड़े हुए जप करते रहते थे और मछलियों के काटने पर भी उन्हें पता नहीं चलता था ।
अपना भोजन वह भिक्षा मांगकर किया करते थे । ग्यारह वर्ष तक वह इसी प्रकार जीवन
बीताते रहे ।

इसके पश्चात वह तीर्थों कि यात्रा करने निकले । वहां साधु-संतो
से मिलते और उनके ज्ञान का लाभ उठाते । इस समय उन्होंने देश की आर्थिक स्थिति का
अच्छी प्रकार से अध्ययन किया । एक दिन उन्होंने सुना कि उनकी मां उनके वियोग में
रोते-रोते
अंधी हो गई हैं। वह
तुरंत अपनी मां से मिलने के लिए चल पड़े । वर्षों बाद उन्हें घर आया देखकर मां को
अत्यंत प्रसन्नता हुई
, परंतु आंखे चली जाने से वह उन्हें देख न सकती थीं,  इसलिए बोली – “बेटा
नारायण ! तुम अब कितने बड़े हो गए हो
? आंखे न होने से आज मै तुम्हे देख नहीं सकती

              

मां के दुख से दुखी होकर रामदास उनके चरणों में गिर पड़े ।

रामदास जी घूम-घूम कर समाज का संगठन किया करते थे और धर्म
का उपदेश दिया करते थे । अपने योग्य शिष्यों पर मठो का प्रबंध छोड़कर वह अगले
स्थानों में पहुंच जाते थे । इस प्रकार प्रतिदिन जैसे-जैसे उनके शिष्यों की संख्या
बढ़ने लगी
,  वैसे ही वैसे उनकी कीर्ति
भी दिन दूनी रात चौगुनी फैलने लगी
,  यहां तक कि
सम्पूर्ण भारत वर्ष के महापुरुष उनके दर्शन करने आने लगे ।

रामदास बहुत बड़े महात्मा होने के साथ साथ विद्वान,  कवि और राजनीतिज्ञ भी थे
। उनका लिखा हुआ “
दासबोध” अनेक विषयों के
ज्ञान का भंडार हैं । यह एक प्रकार का विश्व कोष है
, जिसमें सभी
प्रकारों के आचार-विचार की शिक्षा मिल जाती है। इसके अतिरिक्त उनके रचे हुए कई
ग्रंथ भी है। उन्होंने एक रामायण भी लिखी जो तुलसी के रामचरितमानस से दुगुनी है ।

रामदास जी का कहना था कि भगवान की दृष्टि में सब बराबर है।
भगवान तो केवल भक्ति के भूखे है । व्यक्ति को चाहिए कि वह स्वेच्छाचार न कर किसी न
किसी प्रकार से समाज की सेवा करते रहे ।

स्वामी रामदास ने अपना सम्पूर्ण जीवन परोपकार में ही बिताया
। उनका जीवन सेवा और त्याग का जीता जागता उदाहरण है।

            

एक बार स्वामी जी के आश्रम में बहुत से अतिथि आ गए। भंडार
में भोजन की कमी पड़ गई । रामदास जी ने थोड़े से मराठी पद लिखकर शिष्यों को दे दिए
, जिससे वे उन्हें
गाकर भीख मांग लाए। उस दिन उन्हें इतनी भिक्षा मिली जो हजारों अतिथियों के लिए
काफी थी । महाराष्ट्र प्रदेश में अब भी सैकड़ों भिक्षुक इन पदों को गाते हुए
भिक्षा मांगते हैं
|

उनका हृदय फूल सा कोमल और वज्र सा कठोर था ।  कर्तव्य के सामने वह किसी बात की चिंता नहीं
करते थे। शिवाजी से उनकी भेंट १६५९ में हुई थी । पहले तो गुरु रामदास शिवाजी से
बचते रहे
, पर अंत में जब एक दिन
शिवाजी ने यह प्रतिज्ञा की  कि गुरु के
दर्शन के बिना मैं भोजन नहीं करूंगा
,  तो गुरु रामदास उनके
सामने आए। इस प्रकार उन्होंने शिवाजी की बड़ी कठोर परीक्षा ली थीं। शिवाजी पर उनका
अगाध प्रेम था
, फिर भी उन्होंने कई बार
उनकी परीक्षा ली ।

रामदास जी का झुकाव बाल्यावस्था से ही वैराग्य की ओर था । उनकी
अद्भुत सामर्थ्य देखकर साधु
ने उन्हें “समर्थ”
 कहना आरंभ कर
दिया । जब समर्थ ने सातारा के किले में “जय-जय श्री रघुवीर समर्थ” का
जयघोष कर भिक्षा मांगी तो शिवाजी ने अपना सारा राज्य उनकी झोली में डाल दिया ।
समर्थ गुरु जो कुछ बोलते थे उनके शिष्य लिखते जाते थे । उनकी पवित्र वाणी लगभग बीस
ग्रंथों में संग्रहीत हैं।

शिवाजी के स्वर्गवास से उनको बहुत दुख हुआ, उसके बाद उन्होंने बाहर निकालना छोड़ दिया और
कोठरी में बंद होकर भजन करने लगे ।

शिवाजी की मृत्यु के एक वर्ष पश्चात १६८१ में गुरु रामदास ने
भी शरीर त्याग दिया । उस समय उनकी आयु ७३ वर्ष की थी ।

गुरु रामदास एक बहुत बड़े सन्यासी और धार्मिक नेता थे, लेकिन उनकी एक
विशेषता थी । उन्होंने देश को दासता की ज़ंजीरों 
से छुटकारा दिलाने का व्रत लिया था । अंत तक वह इसी उद्देश्य के लिए काम
करते रहे । सौभाग्य से उनको शिवाजी जैसा सपूत शिष्य के रूप में मिला
, जिसने उनके सपने को बहुत हद तक सच्चा कर
दिखाया ।
       

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *