ओय्यारत्त चंतु मेनोन | चंतु मेनोन | Oyyarathu Chandu Menon

ओय्यारत्त चंतु मेनोन | चंतु मेनोन | Oyyarathu Chandu Menon

जिस प्रकार हिंदी में उपन्यास सम्राट प्रेमचंद ने जमींदारी के दूषित परिणामों का जीता-जागता चित्र हमारे समक्ष प्रस्तुत किया है, ठीक उसी प्रकार मलयालम में ओय्यारत्त चंतु मेनोन ने मलाबार के नंपूतिरि लोगों का किया है, जो जमींदार थे। जमींदारों और उनके आश्रितों के आचार-विचार, सामाजिक अवस्था, आलस्य के कारण उन लोगों के अधःपतन का उन्होंने अच्छा चित्रण किया है।

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ओय्यारत्त चंतु मेनोन का जन्म


ओय्यारत्त चंतु मेनोन का जन्म ९ जनवरी १८४७ में उत्तरी मलाबार के एक मध्यम वर्ग के नायर घराने में हुआ। १० वर्ष की उम्र में ही इनके पिताजी और बड़े भाई का देहांत हो गया|

ओय्यारत्त चंतु मेनोन की शिक्षा


तलश्शेरी के बासल मिशन द्वारा स्थापित स्कूल में भर्ती होकर इन्होंने प्रांरभिक शिक्षा प्राप्त की। ट्यूशन द्वारा अंग्रेजी का ज्ञान प्राप्त किया। फिर “अन् कोवन्टड सिविल सर्विस” नामक परीक्षा में बैठे और उत्तीर्ण हुए। १८६४ में तलश्शेरी की छोटी अदालत में छठे गुमाश्ते के रूप में इनकी नियुक्ति हुई । कुछ दिनों के बाद तलश्शेरी के सब-कलेक्टर श्री लोगन ने अपने अधीन इनको तीसरा गुमाश्ता बनाया। ओय्यारत्त चंतु मेनोन और लोगन साहब की मैत्री दृढ़तर होती गई। लोगन साहब का काफी प्रभाव चंतु मेनोन पर पड़ा था। १८६९ में लोगन साहब कोषिक्कोड में कलेक्टर नियुक्त हुए। १८७१ में चंतु मेनोन का भी तबादला हेड पुलिस मुंशी के रूप में कोषिक्कोड में किया गया। १८७४ में मुसिफ और तत्पश्चात १८९१ में वह सब-जज नियुक्त हुए।

१८९७ में इनकी सेवाओं से संतुष्ट होकर ब्रिटिश सरकार ने इनको “रायबहादुर” की पदवी भी दी। १८८९ में चेन्नई विश्वविद्यालय ने इनको अपना “फेलो” बनाया। ७ सितंबर १८९९ तक कोषिक्कोड में वह सब-जज के रूप में काम करते रहे।

उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण में भारत में अंग्रेजों के शासन की जड़ जम चुकी थी और अंग्रेजी का बोलबाला हो रहा था | छापेखानों की स्थापना होने से पद्य एवं गद्य साहित्य में प्रगति होने लगी। अंग्रेजी साहित्य का भारतीय साहित्य पर प्रभाव पड़ा। चंतु मेनोन पर भी अंग्रेजी साहित्य का बहुत प्रभाव पड़ा।

इंदुलेखा नामक उपन्यास की रचना


वह स्वयं लिखते हैं – “एक जमाने में उपन्यास (अंग्रेजी उपन्यास) पढ़ने का मुझे व्यसन-सा हो गया था। परंतु मेरी धर्मपत्नी को इससे कुंठा होने लगी। तब मैंने अपनी श्रीमतीजी को संतुष्ट करने के लिए अंग्रेजी उपन्यासों की संक्षिप्त कथावस्तु सुनानी शुरू की मेरे इस कार्य ने पत्नी की आकांक्षा और अधिक तीव्र की और अधिकाधिक उपन्यासों की कथा सुनाने के लिए हठ करने लगी। मैं बहुत तंग हो गया। मैने सोचा-क्यों न अंग्रेजी उपन्यासों के ढंग पर मलयालम में एक मौलिक उपन्यास लिख डालू। मेरे इस इरादे का परिणाम यह हुआ कि मैंने इंदुलेखा नामक उपन्यास लिखना प्रारंभ किया और दो ही महीने में उसे समाप्त कर दिया। १७ अगस्त १८८९ को यह समाप्त हो गया।“

इंदुलेखा का जनता ने हार्दिक स्वागत किया और इसने पाठकों के मन पर अमिट छाप छोड़ी। इसका पहला संस्करण तीन महीने में ही समाप्त हो गया| यद्यपि यह मलयालम का पहला उपन्यास नहीं है, किंतु यह अत्यंत उच्च कोटि का उपन्यास है। इसकी भाषा बड़ी सरल और रोचक है, और जगह-जगह इसमें हास्य और व्यंग्य भरा था।

शारदा नामक उपन्यास की रचना


ओय्यारत्त चंतु मेनोन की द्वितीय कृति शारदा है। इसका प्रथम भाग लिखने के बाद लेखक की मृत्यु हो गई। इसे पूरा करने के लिए दो-तीन लेखकों ने प्रयत्न किए। परंतु प्रथम भाग के समान यह कृति सुंदर नहीं बन सकी। यह भी एक सामाजिक उपन्यास है। इसमें छोटी-सी बात के लिए अदालत की शरण लेने वालों, मुकदमे को बढ़ाने वाले वकील, मुखिया आदि भिन्न-भिन्न स्वभाव के मनुष्यों का चित्र खींचा गया है।

ओय्यारत्त चंतु मेनोन का व्यक्तित्व


ओय्यारत्त चंतु मेनोन का व्यक्तित्व प्रभावशाली था। दर्शनीय आकृति, छह फुट का कद और हृष्ट-पुष्ट शरीर। इनकी तोंद भी बहुत बड़ी थी। ओय्यारत्त चंतु मेनोन को एक बार एक कोट सिलवाने की जरूरत पड़ी। एक दर्जी बालक नाप लेने के लिए आया। अन्य अंगों की नाप के बाद कमर की नाप लेते समय बालक सामने खड़े होकर तोंद की नाप नहीं ले सका। इसलिए उसने मेनोन से कहा कि फीते के इस हिस्से को अपनी अंगुली से दाबे रखिएगा, ताकि मै पीछे से घूमकर आपके पेट की नाप ले सकूं। यह सुनते ही मेनोन की हंसी फूट पड़ी और उन्होंने उस बालक को पुरस्कार के रूप में एक रुपया दिया। इस घटना से उनकी हंसोड़ प्रकृति का परिचय मिलता है।

ओय्यारत्त चंतु मेनोन के जीवन की घटनाए


उपन्यासकार होने के साथ-साथ वह बड़े रसिक और कलामर्ज्ञ थे। उन दिनों कथकली प्रचार था। जब कभी मंदिरों में कथकली होती तो मंदिरों में उसके प्रदर्शन के बाद कलाकार लोग ओय्यारत्त चंतु मेनोन के घर अपनी कला दिखाते। एक बार उनकी अदालत में भी एक ऐसा ही रोचक मुकदमा पेश हुआ। पूरम महोत्सव के अवसर पर बाजा बजाने के लिए एक ढोलची भी बुलाया गया। परंतु उसे अधिक पैसा न देकर उससे कम प्रवीणता दिखाने वाले कलाकार को अधिक पारिश्रमिक दिया गया। कलाकार को यह बात पसंद नही आई। ओय्यारत्त चंतु मेनोन की अदालत में यह मुकदमा पेश हुआ। उस समय एक अंग्रेज, डेविड साहब कोषिक्कोड के जिला जज थे। उनकी आज्ञा थी कि मुकदमे के समय आस-पास किसी प्रकार का शोरगुल न हो। सब लोगों पर उनका काफी आतंक था। चंतु मेनोन ने जज साहब को थोड़ा-सा छकाने का निश्चय किया, उन्होंने निश्चय किया कि दोनों ढोलचियों की कला का मूल्यांकन ढोल बजवाकर ही किया जाए। जज साहब के समीपवर्ती कमरे में जोर से ढोल बजने लगा। आवाज मुखरित होने लगी। पास के कमरे में डेविड साहब की अदालत लग रही थी। इस आवाज से वह बहुत परेशान हुए। डेविड साहब ने अपने चपरासी के हाथ चिट लिखकर भेजी। चपरासी चंतु मेनोन के पास पहुचा, परंतु चंतु मेनोन तबला सुनने में मगन थे। चपरासी मेनोन के पास खडा-खडा कांप रहा था। चपरासी के वापस न आने पर जज डेविड साहब स्वयं बाहर आए और सब-जज मेनोन के कमरे में पहुंचे। लेकिन रसिक शिरोमणी मेनोन ढोलक की ध्वनि में इतने तल्लीन थे कि उन्हें जिला-जज के अपने पास खड़े होने का पता तक नहीं था। अंत में उस मारार (जिस ढोलची ने शिकायत की थी) के अनुकूल फैसला हुआ। उसके बाद जब उन्होंने आंख खोलकर देखा तो जज साहब खड़े थे – तुरंत उनके मुंह से निकल पड़ा-“कष्ट के लिए माफी चाहता हूं, परंतु मुझे तो न्याय करना था और उसके लिए ढोल बजवा कर देखना जरूरी था।”

उनके जीवन की एक और घटना भी मनोरंजक है। एक बार एक जटाधारी संन्यासी उनके पास आया। हाथ में कमंडल और गले में रुद्राक्ष-माला। समस्त शरीर पर भस्म। उसे काशी जाना था और गाड़ी का किराया लेने वह चंतु मेनोन के यहां आया था। उसे देखते ही उन्हें मजाक की सूझी। वह अंदर गए और अपनी सुंदर पत्नी के साथ बाहर आए। ब्राह्मण की लालसा भरी दृष्टि उस स्त्री पर पड़ी। चंतु मेनोन ने कहा, “ब्राह्मण देवता, अब काशी जाने की क्या आवश्यकता है? यह समक्ष स्थित मेरी बहन है। इससे विवाह करके यहीं पर रहते क्यों नहीं?” यह बात सुनते ही ब्राह्मण का संन्यास भाग गया, उसने कमंडल छोड़ दिया। हजामत बनवा ली। इसके बाद क्या हुआ, इसका वर्णन नहीं मिलता। परंतु चंतु मेनोन के मजाकिया स्वभाव का पता जरूर चलता है।

ओय्यारत्त चंतु मेनोन की मृत्यु


७ सितंबर १८९९ को कचहरी से चंतु मेनोन घर आए। अपने एक मित्र वकील कृष्णन नायर से बातचीत कर रहे थे कि अचानक उनकी तबीयत खराब हो गई और वह लेट गए। हृदयगति के रुक जाने से इनका जीवन-दीप बुझ गया। इस प्रकार मलयालम साहित्य का जगमगाता हुआ सितारा अचानक अस्त हो गया।

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