गुरु गोविन्द सिंह की जीवनी । Guru Gobind Singh

गुरु गोविन्द सिंह की जीवनी । Guru Gobind Singh

२२ दिसम्बर १६६६ में गुरु गोविन्द सिंह का जन्म बिहार प्रदेश के पटना नगर में हुआ था । अत्याचारी मुगल शासकों द्वारा जब इनके पिता श्री गुरु तेग बहादुर सिंह का क्रुरता, निष्ठुरता और निर्दयता के साथ वध किया गया था, तब इनकी आयु नौ वर्ष की थी । पिता की हत्या होने की चोट बालक गोविन्द सिंह के कोमल हृदय पर बड़ी ही गहरी बैठी थी । परन्तु उस कोमल हृदय ने केवल यही सोचकर मौना कर लिया था, कि समय आने पर इसका बदला अवश्य लिया जायेगा ।

जब श्री तेगबहादुर को मुसलमान बनाने के लिये मुगल-सम्राट ने दिल्ली बुलाया, तभी वे भलीभांति समझ गये,कि अब उनके प्राण अवश्य लिये जायेंगे । इसलिये मृत्यु को सहर्ष गले लगाने को तैयार होकर ही वे दिल्ली के लिये रवाना हुए । उस समय उन्होंने वीर पुत्र श्री गोविन्द सिंह के हाथों में गुरु हरगोविन्द की तलवार देते और गुरु की गद्दी पर बैठाते हुए कहा था – “प्राणो की बाज़ी लगाकर इसकी सम्मान-रक्षा करनी होगी । मेरे लिये मौत का बुलावा आया है । दिल्ली में मेरी मृत्यु निश्चित है।”

बालक के कलेजे पर इन वाक्यों का कैसा असर पड़ा होगा, यह अनुमान करते ही बनता है । इसके बाद जब पिता का कटा हुआ मुण्ड दिल्ली से आया, और गुरु गोविन्द ने उसे देखा, तो उनका खून उबल उठा । उन्होंने सिक्खों को उसी समय ललकारना चाहा; परन्तु सिक्ख-साप्रदाय की अवस्था उस समय बड़ी विकट हो रही थी । कोई सिक्ख अपने को सिक्ख कहने में भी डरता था । गुरु गोविन्द सिक्खों की इस कमज़ोरी का अनुभव कर पुनः मौन हो गए ।

अब उन्होंने प्रायः बीस वर्ष तक कठोर साधना और तपस्या की । फिर सिक्ख-सम्प्रदाय को एक क्षत्रिय-शक्ति के रूप में परिवर्तित करने की कल्पना उनके मन में जाग उठी । इस कल्पना को उन्होंने पुरा करके ही छोड़ा । उन्होंने कहा,-” स्वतंत्रता की देवी भूखी हैं । हमें बलिदान होने की आवश्यकता है । आओ, देखें, कौन-कौन सिक्ख अपना मुण्ड बलिदान चढ़ाने को तैयार है ?” इस पर पाँच सिक्ख तैयार हुए । फिर तो कुछ ही समय में ८० हज़ार सिक्ख गुरु की शरण में आ उपस्थित हुए। गुरु ने समस्त सिक्खों का बड़ा ही प्रबल संगठन किया । सिक्ख-समाज एक विशाल योद्धा-जाति के रूप में परिणत हुई ।

परन्तु उनके विभव-प्रभाव को बढ़ते देख, आसपास के हिन्दू राजाओं को भय होने लगा । गुरु की शक्ति बढ़ाते हुए उनकी शरण में आने के बदले वे गुरु के विद्रोही बन गये। यवन-सम्राट के पास आवेदन-निवेदन किये गये, कि गुरु का बल तोड़ा जाये । सम्राट औरंगजेब उन दिनों दक्षिण भारत में थे । उन्होंने सरहिन्द और लाहौर के गवर्नर को गुरु की शक्ति नष्ट करने के लिये उन पर आक्रमण करने का आदेश दिया । सन् १७०१में गुरु का “ आनन्दपुर ” घेर लिया गया । सिक्खों ने उनका सामना बड़ी वीरता के साथ किया । पर बहुत दिनों तक घेरे में रहने के कारण खाद्य-पदार्थो की कमी हो गयी । कष्ट असहाय हो उठे । अन्त में नगर से निकलने का निश्चय हुआ और गुरु सिर्फ थाड़े से सिक्खों को साथ ले, मरने-मारने को तैयार होकर नगर द्वार से निकल पड़े ।

गुरु गोविन्द सिंह के पुत्र


इस अवसर पर केवल ४० सिक्खो ने हज़ारों मुसलमानों का सामना किया । घोर संग्राम करते और युद्ध में कटते-काटते हुए केवल पाँच सिक्ख जीवित बच निकले । गुरु के दो पुत्र भी इस युद्ध में मारे गये थे । पर दो छोटे पुत्रों को, जो गंगू नामक नौक रके हवाले किये गये थे, मुसलमानों ने पकड़ लिया । उनसे मुसलमान होने को कहा गया । पर वे राज़ी न हुए । उन पर धर्म त्यागने के लिये बड़े-बड़े अत्याचार किये गये । अन्त मे जीवित दशा में ही वे दीवार में चून दिये गये; पर धर्म त्याग करना स्वीकार नहीं किया ।

गुरु गोविंद सिंह और औरंगजेब


गुरु इसी समय छद्म-वेश में निकल गये थे और फीरोज़पुर जा पहुँचे थे । वहाँ उन्होंने बड़़ी शीघ्रता से काफी सेना संग्रह कर ली । नयी सेना के साथ उन्होंने पुनः मुगलो पर आक्रमण किया । इस बार मुगलो को जान बचाकर भागना पड़ा । सम्राट् औरंगजेब ने उनके असाधारण पराक्रम की बात सुनी । अब उन्होंने गुरु से मेल करना चाहा । गुरु गोविन्द सिंह ने उनके पास एक बड़ी ही कड़ी चिट्ठी भेजी और यह भी लिखा, कि यदि आप इस चिट्ठी को पढ़कर भी मुझसे मिलना चाहेंगे, तो मैं मिलूँगा ।

औरंगजेब ने उसे पढ़ा, पर क्रोध नहीं किया । उसने पुनः गुरु को बुलाया । सन् १७०१ में गुरु औरंगजेब से मिलने के लिये दक्षिण भारत की ओर रवाना हुए । पर राह में ही उन्हें यह खबर मिली, कि सम्राट् औरंगजेब की मृत्यु हो गयी है औरंगजेब के बाद बहादुर-शाह ने उनसे मेल किया । उसने उन्हें उपहार स्वरूप बहुत से मूल्यवान् पदार्थ प्रदान किये और उन्हें गोदावरी प्रान्त का गवर्नर नियुक्त किया ।

गुरु गोविन्द सिंह की मृत्यु


गुरु गोविन्दसिंह ने गुरु की प्रथा का अन्त कर दिया और गुरु-मठ या संगत के द्वारा सिक्खों के नियन्त्रण का आदेश दिया । सन् १७०८ में धर्म की आलोचना करते समय एक गुप्त मुसलमान घातक ने गुरु को छूरा भोक दिया, जिससे उनका शरीरान्त हो गया ।

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