सूरदास | Surdas

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सूरदास – Surdas

हिंदी भक्त
कवियों में महात्मा सूरदास का स्थान तुलसीदास से किसी तरह कम नहीं है। हिंदी
साहित्य को सूरदास ने बहुत कुछ दिया है।

यू ठीकठीक नहीं कहा जा सकता कि सूरदास का जन्म किस सन में हुआ था
और किस सन में उनकी मृत्यु हुई। परंतु इस बात में संदेह नहीं कि वह बादशाह अकबर के
समय में हुए थे
| “आईने अकबरी”  उनका जिक्र आया है। परंतु, जैसे आजकल प्रत्येक अंधा जो थोड़ाबहुत गा लेता है
सूरदास कहलाने लगता है
|  वैसे ही उस समय
भी बहुत से अंधे और कई आंख वाले भी अपने भजन कीर्तन के कारण सूरदास कहलाने लगे थे।
इनमें तीन सूरदास बहुत प्रसिद्ध हुए।

इन सुरदासो में
से एक बिल्व मंगल थे
, जिन के विषय में यह कहा
जाता है कि उन्होंने अपनी दोनों आंखों में सुई चुभो ली थी और इस प्रकार सूरदास बने
थे। दूसरे सूरदास का असली नाम मदन मोहन था। वह अकबर के दरबार में गाया और ना
चा करते थे और सुर ध्वज होने के कारण सूर कहलाने
लगे थे। तीसरे सूरदास वह थे
, जिन्होंने जन्म से अंधे होते हुए भी सूरसागरकी रचना की थी और जिसके कारण ही सूरदास का नाम हिंदी साहित्य में अमर
हो गया।

सूरदास के जन्म और
उनकी मृत्यु के विषय में अभी निश्चय पू
र्ण रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। किंतु अब तक के प्रमाणों से जान
पड़ता है की सूरदास का जन्म १४८३ ई. अर्थात(संवत १५४०) में हुआ उनकी मृत्यु १५८५ ई.
अर्थात (संवत १६४२) में हुई
, इस प्रकार
सूरदास
की १०२ वर्ष की आयु थी |

सूरसागर” के अतिरिक्त उनके लिखे हुए दो ग्रंथ और मिलते हैं। एक का
नाम “सुरसारावली”
और दूसरे का नाम “साहित्य
लहरी” है।

साहित्य लहरी में
सूरदास ने अपने वंश का संक्षेप में परिचय दिया है। अपना वंश परिचय उन्होंने उस समय
की परंपरा के अनुसार पौराणिक शैली में दिए हैं। सूरदास ने लिखा है कि राजा पृथु ने
एक बार यज्ञ किया। उस यज्ञ से एक दिव्य पुरुष उत्पन्न हुआ। ब्रह्मा ने इस दिव्य
पुरुष का नाम ब्रह्मराव रखा। इसी ब्रह्मराव के कुल में चंद्रभट्ट (चंद्र वरदाई) का
जन्म हुआ। दिल्ली की सम्राट पृथ्वीराज के दरबार में चंद्रभट्ट का बहुत मान हुआ।
इसी ने “पृथ्वीराजरासो” नामक ग्रंथ की रचना की। इसी चंद्रभट्ट के वंश में आगे चलकर
हरचंद उत्पन्न हुए। यही हरचंद्र महात्मा सूरदास के पितामह थे। सूरदास जिनका असली
नाम सूरज चंद्र था सात भाई थे और सातों में वह सबसे छोटे और जन्म से अंधे थे। उनकी
छह भाई युद्ध में मारे गए। छह भाइयों की मृत्यु हो जाने पर सूरजचंद्र विरक्त होकर
अकेले ही घर से निकल पड़े। अंधे होने के कारण व रास्ते में एक कुएं में गिर पड़े
और ७ दिन तक उसी में पड़े रहे। कहते हैं की सातवें दिन स्वयं भगवान कृष्ण ने उनका
उद्धार किया और उन्हें दिव्य दृष्टि दी। उसी समय से सूरदास ब्रज में रहने लगे और
भगवान कृष्ण की भक्ति में लीन हो गए।

ऊपर की कहानी
सूरदास ने स्वयं कहीं हैं। इस कहानी पर से पौराणिकता का पर्दा हटा कर यह अनुमान
करने का प्रयत्न किया गया है कि
सूरदास की पूर्वज
ब्रह्म अर्थात ज्ञान का प्रचार करने वाले ब्राह्मण थे। इस ब्राम्हण वंश में
पृथ्वीराज के समय चंद्रभट्ट और आगे चलकर बादशाह अकबर के समय सूरजचंद्र उत्पन्न
हुए। सूरजचंद्र जन्म के अंधे तो थे ही अज्ञान के कुएं में गिर पड़े। भगवान कृष्ण
ने उन पर कृपा की और दिव्य दृष्टि देकर अज्ञान के गड्ढे से निकाला । इस प्रकार
दिव्य दृष्टि पाकर उन्होंने एक लाख पदों की रचना की। एक लाख पद लिखने की बात
उन्होंने “सुरसारावली” में स्वयं लिखी है
|    

पर सूरदास के
लिखे हुए ७००० पद ही मिल सके हैं। हो सकता है एक लक्ष्य पद बंद का यह अर्थ हो कि
उन्होंने एक लक्ष्य यानी एक ही लगन लगा कर पद्यबद्ध पदों की रचना की। परंतु सात
हजार पद भी कम नहीं होते और इनके संग्रह का
 सूरसागर” नाम सार्थक ही हैं।

सूरदास बादशाह
अकबर के राज्य काल में हुए थे। कहते है कि पर अकबर ने तानसेन से सूरदास का एक पद
सुनकर उनसे मिलने की इच्छा प्रकट की। उस समय सूरदास मथुरा में थे। सुर साहित्य के
विद्वानों का मत है कि अकबर ने वही जाकर सूरदास से भेंट की थी। कुछ विद्वानों के
अनुसार सूरदास और अकबर की भेंट दिल्ली में हुई थी। औरों का मत है कि इन दोनों
महापुरुषों की भेंट प्रयाग में उस समय हुई जब अकबर वहां किला और बांध बनवाने ग
थे

जान पड़ते हैं कि
अकबर को बिल्वमंगल सूरदास से और मदन मोहन सूरदास से पूर्ण संतोष नहीं हुआ था। जब
सूरसागर की रचने वाले सूरदास की ख्याति उनकी कानों तक पहुंची तब अपने समय में नर
रत्नों को ढूंढ -ढूंढ कर अपने दरबार में रखने वाले इस महान शासक ने सच्चे सूरदास
की खोज की और उससे मिला। परंतु वह उन्हें दिल्ली बुलाकर अपने दरबार में लाकर रखने
के प्रयास में सफल नहीं हुआ। सूरदास ने
तो अपना जीवन कृष्ण भगवान की सेवा में अर्पित कर दिया था।

उन्हीं दिनों एक
और महापुरुष हुए थे
, जो सूरदास को अकबर से भी
महान प्रतीत हुए । सूरदास ने उनकी सेवा में रहना अधिक पसंद किया। वह महापुरुष थे
आचार्य वल्लभाचार्य। वैष्णव धर्म की महान प्रचारक हैं। जब वह दक्षिण में दिग्विजय
कर उत्तर आए तब सूरदास की ख्याति सुनकर वह स्वयं ही उनसे मिलने चले। उस समय सूरदास
जी गोघट में सन्यासी बनकर रहते थे। यह स्थान आगरा और मथुरा के बीच में था। आचार्य
वल्लभ ने अपने इष्ट देव की आराधना के लिए गोवर्धन में छोटा सा मंदिर बनवाया था। यह
मंदिर श्री नाथ मंदिर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस मंदिर में पूजा और आराधना का सब
प्रबंध था। केवल कीर्तन का प्रबंध करना बाकी था। इसी से सूरदास जी का सहयोग
प्राप्त करने के लिए वल्लभाचार्य गौ घाट पहुंचे
थे

आचार्य ने उन्हें
दीक्षा दी
, उन्हें “भागवत”  से कुछ अंश सुनाएं | अब तो सूरदास जी के हृदय में संपूर्ण भागवत की लीला रचित
हो उठी। उन्होंने वल्लभाचार्य से दीक्षा ली और अपने समस्त शिष्य को भी उनसे दीक्षा
दिलवाई और सब को लेकर उनके साथ ब्रज में चले आए। गोवर्धन में पहुंचने पर आचार्य ने
सूरदास को श्रीनाथजी का दर्शन कराया।

सुर का अर्थ सूरज
होता है। “सूरसागर”
के पदों में उन्होंने अपना नाम सूर, सूरज या सूरजदास दिया है । सूर शब्द छोटा होने से सबसे अधिक प्रचलित हुआ और
कदाचित उनके जन्मांध होने के कारण यह सब अंधे का पर्याय बन गया यहां तक कि आजकल
किसी अंधे को सूरदास
कहो तो वह प्रसन्न
होगा और बड़े गर्व अनुभव करेगा
| इस प्रकार
सूरदास के पद जहां आंख वालों को हर्षित करते हैं वहां उनका जीवन अनुभव को एक मार्ग
दिखाता है। अंधे उनके जीवन से यह शिक्षा लेते हैं की आंख ना होने पर भी भगवान का
भजन कर अपने जीवन को सार्थक बना सकते हैं। 

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