गणेश श्रीकृष्ण खापर्डे | दादासाहेब खापर्डे | G. S. Khaparde

गणेश श्रीकृष्ण खापर्डे | दादासाहेब खापर्डे | G. S. Khaparde

महाराष्ट्र में लोकमान्य तिलक के समकालीन नेताओं में श्री दादासाहेब खापर्डे का स्थान बहुत उल्लेखनीय है। वास्तव में तो वह उनके दाहिने हाथ थे। १८५७ में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह हुआ था, इनके माता-पिता को उसका प्रत्यक्ष अनुभव था। इसलिए उन पर जन्म से ही देशभक्ति के संस्कार पड़े।

श्री दादासाहेब खापर्डे का पूरा नाम गणेश श्रीकृष्ण खापर्डे था। उनका जन्म २७ अगस्त १८५४ को हुआ। पारिवारिक संकटों के कारण उनके पिता को १४ वर्ष की उम्र में ही डाकिए की नौकरी करनी पड़ी। अंग्रेजों के जमाने में जो अफसर इंग्लैंड से यहां आते थे, उनकी चिट्ठियां बांटने का काम उनका था, क्योंकि वही अंग्रेजी लिख-पढ़ लेने वाले व्यक्ति थे। अंग्रेजी का कुछ ज्ञान होने के कारण डाकखाने में उन्हें कभी-कभी दफ्तर का भी काम करना पड़ता। रात में वह रास्तों में लगी हुई बत्ती के नीचे बैठकर उसकी रोशनी में अंग्रेजी की और पढ़ाई करते थे, और इस प्रकार अपना ज्ञान बढ़ाते थे। ज्ञान की यही लालसा उनके बेटे दादासाहेब को भी विरासत में मिली।

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दादासाहेब की प्राथमिक शिक्षा नागपुर में हुई और मिडिल तथा हाई स्कूल शिक्षा अकोला में। दादासाहेब को स्कूल की किताबों में उतना रस नहीं मिलता था, जितना कि अन्य बड़ी-बड़ी पुस्तकें पढ़ने में। संस्कृत तथा अंग्रेजी में वह अपनी कक्षा के विद्यार्थियों में बहुत आगे रहते थे। कालेज में अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि-वड्सवर्थ के नाती प्रो.वड्सवर्थ उन्हें अंग्रेजी पढ़ाया करते थे और प्रकांड पंडित डा. रामकृष्णपंत भांडारकर संस्कृत। इसका परिणाम यह रहा कि कालेज में अंग्रेजी तथा संस्कृत में उनका सानी कोई छात्र नही था। संस्कृत के तो वह इतने पंडित हो गए थे कि आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद जब मुंबई के एल्फिस्टन कालेज में गए, तब दादासाहेब ने उनके साथ संस्कृत में इतनी सुंदर तथा समीचीन और शुद्ध चर्चा की कि स्वामीजी ने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। इसी तरह मुंबई में रहते हुए उन्होंने गुजराती भाषा पर इतना अधिकार पा लिया कि उस भाषा के अच्छे माहिर लोग भी खापर्डेजी के गुजराती उच्चारण को तथा मुहावरे आदि को सुनकर दंग रह जाते थे, उर्दू के भी वह अच्छे जानकार थे।

दादासाहेब खापर्डे आगे चलकर वकालत करने लगे थे। वकालत की परीक्षा पास करने तक उन्होंने इतना ज्ञान प्राप्त कर लिया था, कि उनका भाषण सुनने के लिए बहुत भीड़ हो जाया करती थी। अच्छे-अच्छे विद्वान लोग भी उनके विचारों का लोहा मानने लगे थे। फिर भी वह बहुत ही सीधे-सादे और सरल थे। क्योंकि उन्हें गरीबी का अनुभव था, वह कभी भी गरीबों की उपेक्षा न करते थे। उन्हें स्कूल तथा कालेज में जो छात्रवृत्ति प्राप्त होती थी, उसकी सारी राशि वह गरीब छात्रों को दे दिया करते थे। खापर्डेजी की इस उदारता के कारण ही विदर्भ के बहुत से गरीब लोग पढ़-लिखकर बड़े बन गए।

गरीबों की सहायता करने का गुण इनके परिवार में ही था। इनके सामने दो बार भारी अकाल पड़े थे। दोनों बार खापर्डेजी ने अमीरों से पैसा एकत्रित कर अनाज की सस्ती दुकानें खुलवाई थी और सरकारी अधिकारियों की उपेक्षा के बावजूद अपने घर के अहाते में तीन-चार सौ लोगों को जगह दी थी। इनके भोजन का प्रबंध भी दादासाहेब स्वयं करते थे। इस कारण, उन्होंने अपने परिवार के लिए साल-भर के लिए जो अनाज ले रखा था, वह दो-तीन महीनों में ही समाप्त हो गया। अकाल-पीड़ितों की सेवा तथा सहायता के लिए खापर्डेजी ने दिन-रात तन, मन और धन लगाकर काम किया, जिससे उनका स्वास्थ्य खराब हो गया, और वकालत की आय भी घट गई।

खापर्डेजी बहुत दानी थे। जो लोग उनसे उधार पैसा ले जाते थे, वे अक्सर उसे लौटाते तक नहीं थे। लोग तो यहां तक कहा करते थे कि “भई, पैसा खापर्डेजी से ही लो, क्योंकि उसे लौटाने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी।“ एक बार तो उनके पास तुरंत देने के लिए नकद रकम नहीं थी, तो उन्होंने किसी से कर्ज लेकर एक मित्र को पांच हजार रुपये दिए थे।

दादासाहेब अपने संपर्क में आने वाले हर व्यक्ति को प्रभावित कर लेते थे, इन्हीं गुणों के कारण दादासाहेब ने वकालत में खूब धन कमाया। वह बहुत ही लोकप्रिय हो गए। किंतु केवल पैसे के लालच से उन्होंने अपनी वकालत की फीस के लिए किसी को चूसा नहीं। अपराधी व्यक्ति को बचाने के लिए उसका वकील बनना वह कभी स्वीकार नहीं करते थे।

दादासाहेब खापर्डे की युवकों में बड़ी आस्था थी। अमरावती में उन्होंने युवकों के लिए कई अखाड़े चलाए थे। कुश्तियों का दंगल कहीं भी हो, दादासाहेब वहां उसे देखने के लिए तथा नए पहलवानों को प्रोत्साहन देने के लिए अवश्य जाया करते थे। कथा, कीर्तन तथा सत्संग भजन-मंडली के कार्यक्रमों में भी वह अवश्य शामिल होते थे। उनके घर में भी रात को वेद-वेदांत के स्वाध्याय का एक नियमित वर्ग चला करता था। कितने भी व्यस्त रहने के बावजूद रात का यह वैदिक-शिक्षा-वर्ग खापर्डेजी ने बीसियों वर्ष निःशुल्क चलाया था।

खापर्डेजी को नाटकों का भी बहुत शौक था, वह रंगमंच की प्रगति चाहते थे और उसके लिए आवश्यक सहायता देने के लिए भी तत्पर रहते थे | उन दिनों कृष्णाजी प्रभाकर खाडिलकर, देवल, तथा बोडस आदि नाटककारों तथा अभिनेताओं के कारण महाराष्ट्र का रंगमंच बहुत ऊंचे स्तर का हो गया था। इन ख्यात-नामा नाटककारों के नाटकों का वाचन, पहली बार खापर्डेजी के घर ही होता था।

खाडिलकरजी अपने नए-नए नाटक खापर्डेजी को सुनाने के लिए कितनी ही बार अमरावती गए थे। वह जमाना ही ऐसा था कि चिद्वत्ता तथा लोकप्रियता, दोनों में ही अग्रसर खापर्डेजी जैसा व्यक्ति राजनीति की चपेट में अवश्य आ जाता था। खापर्डेजी भी लोकमान्य तिलक के अनुयायी बन गए।

अमरावती में कांग्रेस के अधिवेशन में पंडाल में तिलक की तस्वीर लगाने का आग्रह खापर्डेजी ने स्वागताध्यक्ष के नाते किया। कांग्रेस-अधिवेशन में श्री सुरेंद्रनाथ बेनर्जी ने भी उनका विशेष रूप से उल्लेख किया। किंतु तिलक के प्रति उनकी श्रद्धा केवल यही तक सीमित न रही। १८९७ में जब तिलक को गिरफ्तार किया गया, तब उनकी ओर से पैरवी करने के लिए दादासाहेब खापर्डे ने निधि एकत्रित की और उसका प्रारंभ स्वयं २०० रुपये का चंदा देकर किया।

लोकमान्य तिलक ने महाराष्ट्र में हर साल मनाए जाने वाले गणेशोत्सव को एक राष्ट्रीय रूप देने का प्रयास किया था और उसके माध्यम से जनता में नई जागृति पैदा की थी। १९०३ में खापर्डेजी ने उसी परंपरा को और आगे बढ़ाया और अमरावती में एक ऐसा गणेशोत्सव मनाया, जिसमें हिंदुओं के साथ मुसलमान भी उत्साह और उल्लास के साथ शामिल हुए।

इसके बाद तो दादासाहेब खापर्डे सार्वजनिक मामलों तथा कार्यों में अग्रसर रहे। कितनी ही शिक्षा-संस्थाओं के संस्थापक-संचालक तो वह रहे ही, कई शिक्षा-संस्थाओं की इमारतें बनवा देने के लिए आवश्यक निधि इकट्ठा करने में उन्होंने अथक परिश्रम किया। अमरावती नगरपालिका के अध्यक्ष के नाते उन्होंने शहर के लिए पीने के पानी की व्यवस्था की।

दादासाहेब खापर्डे बच्चों के मित्र थे। उनकी शिक्षा-दीक्षा में कोई बाधा आने देना नहीं चाहते थे। बाहर राजनीतिक क्षेत्रों में स्वदेशी का आंदोलन बल पकड़ता जा रहा था, ब्रिटिश सरकार के अधिकारी छात्रों को इस आंदोलन से दूर रखना चाहते थे। इसलिए अमरावती के सरकारी स्कूल के छात्रावासों में रहने वाले छात्रों पर यह पाबंदी लगाई गई कि वे स्वदेशी आंदोलन की सभाओं में उपस्थित न रहें। किन्तु छात्र भला क्यों मानने लगे? वे उन सभाओं में उपस्थित रहते थे। खुफिया पुलिस की रिपोर्ट पर सरकार ने उन सभी छात्रों को छात्रावास से निकाल दिया। तब दादासाहेब खापर्डे ने छात्रों का पक्ष लिया और सरकारी अधिकारियों के रोष की चिंता न करते हुए, उन्होंने उन छात्रों के लिए एक स्वतंत्र स्कूल खोला, जो बिना सरकारी सहायता लिए चलाया जा सके। इस प्रकार, खापर्डे की प्रेरणा से कई राष्ट्रीय पाठशालाएं खुलीं।

केवल खापर्डेजी ने स्वतंत्र शिक्षा संस्थाएं खोलने का विचार रखा, बल्कि उसको मूर्त रूप देने के लिए गांव-गांव का दौरा किया और चंदा एकत्र कर, वहां विद्यालय स्थापित करके ही चैन ली। “बरार एजुकेशन सोसायटी” की स्थापना में दादासाहेब की ही प्रेरणा सबसे प्रबल रही। इस सोसायटी के स्कूलों में औद्योगिक शिक्षा का प्रबंध भी उन्होंने करवाया। सरकार को राष्ट्रीय शिक्षा का यह प्रयास फूटी आख भी नहीं सुहाता था। इसलिए बरार एजुकेशन सोसायटी तथा उसके अंतर्गत खोले गए विद्यालयों को सरकारी अनुदान देना बंद कर दिया गया। फिर भी खापर्डेजी के अथक प्रयास से सारी संस्थाएं सार्वजनिक चंदे के सहारे बराबर चालू रही।

इस प्रकार नरमपंथी माने जाने वाले दादासाहेब दिन-प्रतिदिन तिलक के गरमपंथी विचारों के अनुयायी बनते जा रहे थे और उधर सरकार उन पर उतनी ही मात्रा में नाराज होती जा रही थी। खापर्डेजी ने स्वदेशी आंदोलन का न केवल मुंबई या विदर्भ में, बल्कि गुजरात, कलकत्ता तथा वाराणसी तक जाकर जोर-शोर से प्रचार किया। जबलपुर प्रांतीय सम्मेलन में १९०६ में स्वदेशी का प्रस्ताव रखा, जिससे उपस्थित लोगों में बड़ी सनसनी तथा भय की भावना फैल गई थी। उसी दिन शाम को एक भारी सभा में खापर्डेजी ने स्वदेशी पर भाषण दिया। इस सभा की अध्यक्षता उन्हीं के साथ जबलपुर गए डा. मुंजे को करनी पड़ी, क्योंकि कोई भी स्थानीय प्रतिष्ठित व्यक्ति अध्यक्षता करने का साहस नहीं कर सका था। जबलपुर-सम्मेलन के बाद दादासाहेब स्वदेशी के प्रचार के लिए गुजरात और सात दिन देहातों में घूम-घूमकर स्वदेशी का प्रचार किया। वहां से तिलक के साथ ही वह बंगाल गए और कलकत्ता, खड़गपुर आदि कई स्थानों पर उन्होंने न केवल स्वदेशी के प्रचार का, किंतु उसके साथ ही विदेशी के बहिष्कार का भी खूब डटकर प्रचार किया, सभाएं की, छात्रों तथा युवकों के सम्मेलनों में मार्गदर्शन किया।

१९०६ की कलकत्ता-कांग्रेस में होमरूल (स्वराज्य) की मांग की गई थी। उसमें तिलक के साथ खापर्डेजी ने इतना अधिक हाथ बंटाया था कि कांग्रेस-अधिवेशन में स्वदेशी तथा बहिष्कार के प्रस्ताव लाने पर विचार करने के लिए श्री विपिनचंद्र पाल के घर पर जो प्रतिनिधियों की बैठकें हुआ करती थीं, उन्हें खापर्डे कान्फ्रेंस कहा जाता था ।

सन् १९०८ में जब लोकमान्य तिलक को राजद्रोह के आरोप में छह वर्ष की सजा सुनाई गई, तब उसके विरुद्ध अपील करने के लिए दादासाहेब खापर्डे इंग्लैंड गए। उस समय उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं था और घर-गृहस्थी चलाने के लिए उनके पास पर्याप्त पैसा भी नहीं था। किंतु उन्होंने उसकी परवाह नहीं की, क्योंकि वह धुन के पक्के आदमी थे। तिलक को हुई सजा के विरुद्ध प्रिवी कौसिल में अपील करने तथा उसके असफल होने पर ब्रिटिश संसद में तिलक-रिहाई का आंदोलन चलाने के लिए दो साल तक वह इंग्लैंड में ही रहे। इस तरह दादासाहेब खापर्डे भारत की आजादी की लड़ाई में तिलक के दाहिने हाथ बन गए।

८४ वर्ष की आयु में, १ जुलाई १९३८ को उनका स्वर्गवास हो गया।

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