विपिन चन्द्र पाल | Vipindra Chandra Pal

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विपिन चन्द्र पाल | Vipindra Chandra Pal


हात्मा
गांधी से पहले भारत के प्रधान नेता लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक थे। उनके नाम के साथ
उन दिनों दो और नेताओं के नाम लेने की प्रथा थी-लाल
, बाल, पाल।
बाल से मतलब बाल गंगाधर तिलक
, लाल से
लाला लाजपत राय और पाल से
विपिन चन्द्र पाल था।

 

बिपिन चन्द्र पाल का जन्म प्रथम स्वतंत्रता
युद्ध के एक साल बाद यानी १८५८ में हुआ था। उनके पिता अच्छे वकील थे। बाद में वह
मुंसिफ बना दिए गए थे। उन दिनों भारतीयों को केवल छोटी नौकरियां ही मिलती थीं बाकी
सब नौकरियां अंग्रेजों के लिए सुरक्षित रखी जाती थीं
, विपिन
चन्द्र पाल मैट्रिक तक सिल्हट में ही पढ़ते रहे और उसके बाद वह उच्च शिक्षा के लिए
कलकत्ता आए। उन दिनों कलकत्ता में ब्रह्म समाजी नेता श्री केशवचन्द्र सेन
की धूम
थी। वह अ
द्भूत वक्ता
थे। जो भी उनका व्याख्यान सुनता था वह उनका भक्त हो जाता था। विपिन चन्द्र पाल ने
उनके व्याख्यान सुने और वह  सनातन धर्म
छोड़कर ब्रह्म समाजी बन गए। इस पर उनके पिता उनसे बहुत नाराज हुए
, पर
वह टस से मस नहीं हुए। तब उनके पिता ने यह प्रण किया कि फिर उनका मुंह नहीं
देखेंगे। साथ ही उन्होंने अपनी वसीयत में यह लिख दिया कि मेरे लड़के को मेरी जायदाद
से एक भी पैसा न मिले।कहना न होगा कि इस बात से उन्हें बहुत दुःख हुआ
, पर
विपिन चन्द्र पाल की समझ में जो बात आई उससे वह पीछे हटने वाले नहीं थे। वर्षों
पिता और पुत्र में कोई संबंध नहीं रहा
, पर जब
विपिन चन्द्र पाल बहुत प्रतिभाशाली साबित हुए तो उनके पिता ने बेटे को क्षमा कर
दिया और २५००० रुपये दिए। विपिन चन्द्र पाल ब्रह्म समाज के इतने भक्त बने कि यह
राह चलतों को
, जो कि ब्रह्म समाज का विरोध करते
थे
,
सार्वजनिक रूप से चुनौती देते थे कि आओ मेरे
साथ बहस कर लो।

ब्रह्म समाज के विरोधियों में कालीचरण
बैनर्जी का नाम बहुत प्रसिद्ध था। कालीचरण बैनर्जी ब्रह्म समाज के विरुद्ध धुआंधार
भाषण देते फिर रहे थे। विपिन चन्द्र पाल ने उनको चुनौती दी कि पहले के जमाने के
शास्त्रार्थ के ढंग पर एक सभा बुलाई जाए और कालीचरण तथा विपिन चन्द्र दोनों उसमें
भाषण दें। फिर देखा जाए कि जनता किसकी बात पसंद करती है। कालीचरण इस नौजवान के
प्रस्ताव पर राजी नहीं हुए। तब विपिन चन्द्र पाल ने एक सार्वजनिक स्थान पर एक के
बाद एक सात भाषण दिए जिसमें उन्होंने कालीचरण की अच्छी तरह खबर ली।

 

ब्रह्म समाज सुधारवादी समाज था। वह
ढोंग-ढकोसला और पौंगा-पंथ का विरोधी था। हां
, बाद
में चलकर उसमें भी अपना पौंगापंथ बन गया
, पर
विपिन चन्द्र पाल के समय वह मात्र सुधारवादी समाज था। विपिन चन्द्र पाल केवल
व्याख्यान देने तक ही सीमित नहीं रहे बल्कि मौका आते ही उन्होंने दिखलाया कि वह
ब्रह्म समाज की बातों को मानते भी हैं और उन पर अमल भी करते हैं। जब उनकी पहली
पत्नी मर गई और उन्होंने फिर से शादी करने का निश्चय किया तो उन्होंने सुप्रसिद्ध
नेता सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी की विधवा भतीजी से शादी की। उन दिनों विधवा विवाह से
लोग बहुत कतराते थे
| इस
प्रकार विपिन चन्द्र पाल अपने सिद्धांत के पक्के थे। शिक्षा पूरी करने के बाद

दस साल तक अध्यापक का काम करते रहे। फिर उन्होंने कांग्रेस में प्रवेश किया। उन दिनों
कांग्रेस पढे-लिखे लोगों की एक सालाना सभा थी। फिर भी उसका प्रभाव काफी था क्योंकि
ब्रिटिश सरकार कांग्रेस को देख कर यह पता लगाती रहती थी कि जनता किस हद तक नाराज
है।

        

कांग्रेस में प्रवेश करने से पहले पाल
क्रांतिकारी गुप्त समिति के सदस्य थे पर इस गुप्त समिति ने कोई काम नहीं किया था।
हां
,
कुछ पढ़े लिखे लोग बैठ कर ब्रिटिश सरकार के
विरुद्ध यह विचार किया करते थे कि कैसे उसे समाप्त कर दिया जाए। जब विषिन चन्द्र
पाल ने कांग्रेस में प्रवेश किया तो वह फौरन ही प्रसिद्ध वक्ता के
रूप मे प्रसिद्ध हो गए।
कांग्रेस का तीसरा अधिवेशन मद्रास में हो रहा था और उसके सभापति उन दिन के प्रसिद्ध
बैरिस्टर बदरू
द्दीन तैयबजी
थे। बंगाल से अस्सी प्रतिनिधि एक स्टामर रिजर्व करके मद्रास आए थे। विपिन
चन्द्र पाल तथा
सरेन्द्र नाथ बैनर्जी बंगाली प्रतिनिधियों के नेता थे। उन दोनों ने यह प्रस्ताव
हुआ कि
अस्त्र कानून
हटा लिया जाए। कहना न होगा कि उनके भाषणों से कांग्रेस में खलबली मच गई। उधर जो
अंग्रेज कांग्रेस में थे
वे भी घबरा
गए।

 

विपिनचन्द्र पाल ने जो भाषण दिया उससे उनका
नाम सारे भारत में फैल गया। इसके बाद वह बराबर कांग्रेस में जाते रहे। १९०० में वह
इंग्लैंड गए
| वहां
भी वह बराबर भाषण देते रहे और अंग्रेजी पत्रों में लिखते रहे। इसके साथ ही वह अपनी
जीविका भी
चलाते रहे
| उन्होंने
इंग्लैंड में रहकर “स्वराग्य“ नामक एक पत्रिका निकाली। जब वह भारत लौटे तो
उन्होंने “न्यू इंडिया” नाम से एक अंग्रेजी साप्ताहिक चलाया।

 

बाद में वह अरविन्द घोष के पत्र “वन्दे
मातरम्”
में भी काम करते रहे । बंग-भंग और स्वदेशी
आंदोलन के जमाने में विपिन चन्द्र पाल बड़े जोरों से काम करते रहे। जब बंगाल में
दमन चक्र जोरों से चला तो उग्र राष्ट्रीय पत्र “संध्या” के सम्पादक
ब्रम्हा बांधव
उपाध्याय तथा “वन्दे मातरम्” के सम्पादक अरविन्द पकड़ लिए गए
| अदालत
ने विपिन चन्द्र पाल से कहा कि वह अरविन्द के विरुद्ध गवाही दें
, पर
विपिन चन्द्र पाल ने ऐसा करने से इनकार किया। इससे उन पर अदालत की मानहानि का मुकदमा
चला पर विपिन चन्द्र पाल बिलकुल नहीं झुके। उन्होंने कहा
, “मैं
किसी भी प्रकार एक देशभक्त के विरुद्ध अदालत में खड़े होने के लिए तैयार नहीं हूं
, चाहे
मुझे फांसी पर ही क्यों न
चढ़ा  दिया
जाए।” विपिन चन्द्र पाल को छः महीने की सजा दी गई। जिस दिन उन्हें सजा
हुई उस
दिन छात्रों ने अदालत के सामने जबर्दस्त प्रदर्शन किया। इस प्रदर्शन के मौके पर
छात्रों
और पुलिस वालों में झगड़ा हो गया।

 

सुशील सेन नामक एक छात्र को इस संबंध में
गिरफ्तार कर लिया गया। उसका
मुकदमा  मिस्टर
किंग्जफोर्ड की अदालत में पेश हुआ। उन दिनों किंग्ज़फोर्ड राजनीतिक कैदियों को कड़ी
सजा देने के लिए कुख्यात हो रहे थे। उन्होंने सुशील सेन को बेंत लगाने की सजा दी।
इस पर जनता में और भी रोष फैला। बाद में प्रसिद्ध क्रांतिकारी खुदीराम
किंग्ज़फोर्ड को मारने के लिए गए थे। उन्होंने गलती से किंहीं दूसरे लोगों को मार
दिया और उन्हें फांसी दी गई।

            

जब विपिन चन्द्र पाल को सजा हुई तो
सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी की अध्यक्षता में एक सभा
की  गई, जिसमें
विपिन चन्द्र पाल को बधाई दी गई और सभा की तरफ से उनकी प
त्नी को
१००० रुपये की थैली भेंट की गई। छूट कर विपिन चन्द्र पाल बहुत जोश के साथ काम करने
लगे।

 

विपिन
चन्द्र पाल बराबर देश का दौरा करने लगे। वह जहां भी जाते
, हजारों
की तादाद में लोग उनका ओजस्वी भाषण सुनने के लिए एकत्र होते । उनके संबंध में
कहा जाता है
कि वह उस युग के बहुत बड़े वक्ता थे। उन्होंने मद्रास में कुछ भाषण दिए
, जिस
पर उन्हें मद्रास के बाहर निकाल दिया गया। बाद में बम पर कुछ लेख लिखने के कारण उन
पर एक मुकदमा चला
, पर उनको सज़ा नहीं हुई।

 

१९१९ में वह कांग्रेस के शिष्टमंडल में
विलायत भी गए। इस अवसर पर उन्होंने भारत की स्वतंत्रता की अच्छी वकालत की। बाद में
वह बराबर कांग्रेस में कुछ न कुछ भाग लेते रहे
, पर
महात्मा गांधी के उदय के साथ-साथ वह अस्तगत से हो गए। बात यह थी कि वह नए युग की
नई राजनीति के साथ ताल-मेल रख कर नहीं चल सके। फिर भी यह मानना पड़ेगा कि उन्होंने
अपने समय में बड़ा काम किया।

 

१९२८ में जो सर्वदल सम्मेलन हुआ उसमें विपिन
चन्द्र पाल ने भाग लिया था। विपिन चन्द्र पाल की लिखी हुई कई पुस्तकें हैं
, जिनमें
उन्होंने अपने जमाने की राजनीति व्याख्या की है। वह भारतीय सभ्यता और संस्कृति के
अच्छे विद्वान थे। १० मई १९३२ को उनका देहांत हो गया।
           

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