सी. विजयराघवारचार्य | C. Vijayaraghavachariar

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सी. विजयराघवारचार्य | 

C. Vijayaraghavachariar 


कांग्रेस के कुछ संस्थापकों में से एक थे
हमारे चरितनायक श्री सी०
विजयराघवारचार्य उनका
जन्म
१८५२
में सेलम (मद्रास) में हुआ था। शुरू से ही उनके मन में देश सेवा की भावना लहरें
लिया करती थी। उन्होंने देखा कि अंग्रेजों ने भारत को हर तरह से कुचलने
की कोशिश
की है। अपने गरीब और लाचार
, बेज़बान, सीधे
साधे देश-भाइयों की दशा देख कर उन्हें मार्मिक पी
ड़ा
होती थी। वह जानते थे कि जब तक देश की जनता को नए  सिरे से एक झंडे के नीचे संगठित करने वाली कोई
राष्ट्रीय संस्था नहीं बनेगी तब तक देश का कल्याण नहीं हो सकता। इसलिए जब १८८५ में
ह्यूम ने कांग्रेस की स्थापना करने लिए बम्बई में एक सम्मेलन बुलाने की योजना बनाई
तो विजयराघ
वारचार्य
भी उसमें
शामिल हुए

 

कांग्रेस के प्रथम बम्बई अधिवेशन में भाग
लेने के साथ ही उस संस्था के साथ उनका
जो नाता
कायम हुआ वह उनकी मृत्यु होने तक लगभग बराबर बना रहा। कांग्रेस के साथ उन
का संबंध
करीब ६० वर्ष तक रहा और अपने जीवन के ये ६० वर्ष उन्होंने हर तरह से कांग्रेस को मजबूत
बनाने और उसके जरिए अपने देश को सेवा करने में ही बिताए ।

कांग्रेस में शामिल होने के बाद ही अपनी
योग्यता और प्रतिभा के बल पर विजयराघ
वारचार्य
ने अपने साथियों के मन में जगह बना
ली । उनकी विद्वता, और
विलक्षण
ता ने
शीध्र ही उन्हें कांग्रेस के नेताओं को पहली पंक्ति में ला खड़ा किया। १८८७ में
मद्रास में कांग्रेस का तृतीय वार्षिक अधिवेशन हुआ। इसके सभापति बदरुद्दीन तैयबजी
थे इस अधिवेशन में इस बात की जरूरत महसूस की गई कि कांग्रेस का भी अपना एक बाकायदा
संविधान हो। कांग्रेस की लोकप्रियता बढने लगी थी और उसकी सदस्य-संख्या भी बढ़ रही
थी। ऐसो दशा में उसे नियमों से बांध कर एक सुसंगठित संस्था का रूप देने के लिए
कांग्रेस के मद्रास अधिवेशन में तीन व्यक्तियों की एक संविधान समिति नियुक्त की
गई। श्री विजयराघ
वारचार्य
कांग्रेस का संविधान बनाने वाली इस तीन सदस्यों की समिति के एक प्रमुख सदस्य थे।
यह बड़ी जिम्मेदारी का काम था और इस काम के लिए सारे देश के दिग्गज नेताओं में से
बहुत छांट कर ही तीन आदमी लिए गए थे यह इस बात का सबूत है कि उनकी काबलियत की
कितनी धाक थी। इस समिति के सदस्य की हैसियत से उन्होंने अपनी जिम्मेदारी का बड़ा
ही योग्यतापूर्वक निर्वाह किया और कांग्रेस का संविधान बनाने में उनका बहुत बड़ा योगदान
रहा। लेकिन यहां यह बताना जरूरी है कि मद्रास के सार्वजनिक जीवन में उनका स्थान बहुत
पहले ही बन चुका था और जिस साल कांग्रेस की स्थापना हुई उसी साल वह मद्रास
लेजिस्लेटिव
कौसिल के सदस्य भी बने थे। वह १८८५ से लेकर १९०१ तक लेजिस्लेटिव कौसिल सदस्य रहे।
यहां रह कर भी वह बरा
र जनता की सेवा करते रहे और जनहित के
प्रश्नों पर हमेशा जोरदार तरीके से सरकार को प्रभावित करते रहे ।

 

कांग्रेस का १५वां अधिवेशन, जिसके
सभापति बंगाल के
श्री रमेशचन्द्र
दत्त थे
,
भारत के ऐतिहासिक नगर लखनऊ में हुआ और इस
अधिवेशन में श्री विजयराघ
वारचार्य को कांग्रेस कमेटी का सदस्य नियुक्त किया
गया।

 

विजयराघवारचार्य
दक्षिण भारत के लोकप्रिय राष्ट्रीय नेताओं में अग्रगण स्थान रखते
थे और
मद्रास में उनका राजनीतिक प्रभाव बहुत ज्यादा था। १९०० में कालीकट में जो मद्रास
प्रां
तीय राजनीतिक
सम्मेलन हुआ
, उसके अध्यक्ष भी वही थे। यह बात
बहुत लोग जानते हैं कि इंग्लैंड में भारत के पक्ष में प्रचार-कार्य बहुत पहले से ही
हो रहा था। इस कार्य में जिस एक पत्रिका का विशेष हाथ था
, वह
थी “इंडिया” नामक पत्रिका। यह पत्रिका इंग्लैंड में ही छपती थी। इस पत्रिका के पास
पैसे के साधन बहुत कम थे और होते-होते स्थिति यहां तक खराब हुई कि इसके बंद होने
की आशंका होने लगी। इस पत्रिका का बंद होना भारत के राष्ट्रीय आंदोलन के लिए बहुत
हानिकर साबित होता क्योंकि इंग्लैंड में भारत के प्रति सहानुभूति पैदा करने और
भारतीय जनता के बारे में सच्ची जानकारी देने का काम उसके बिना नहीं हो सकता था। अब
भारतीय नेताओं को चिंता हुई कि “इंडिया”
को
बंद होने से किस तरह बचाया जाए। बहुत सोच-विचार करने के बाद यह तय हुआ कि हर
प्रांत के प्रमुख नेता अपने-अपने प्रांत से चंदा इकट्ठा करें और इंडिया के
संचालकों को भेजें। यह निश्चित था कि अगर काफी रुपया जमा करके भेजा जा सका तो
पत्रिका बंद नहीं होगी। पत्रि
का इंडिया के लिए मद्रास प्रांत से चंदा जमा
करने का काम एक समिति ने अपने कंधों पर उठाया। इस समिति के एक सदस्य विजयराघ
वारचार्य
भी थे उन्होंने अन्य सदस्यों के साथ मिल कर कठिन परिश्रम करके बहुत-सा रुपया
इकट्ठा किया और “इंडिया” के लिए भेजा।

         

१९०६ में कलकत्ता में कांग्रेस का जो २२वां
अधिवेशन हुआ तो उसमें भी वह प्रतिनिधि के रूप में उपस्थित थे। इस अधिवेशन में
इस्तमरारी बंदोबस्त के खिलाफ एक प्रस्ताव  पेश
करते हुए उन्होंने जो भाषण किया था वह सुनहरे अक्षरों में लिखे जाने योग्य हैं।
उन्होंने कहा था
,मै भूमि पर राजा का अधिकार कभी नहीं रहा, हमारे
ऋषियों ने कहा है कि यह धरती उन सबकी है जो इस पर जन्म लेते हैं। निजी सम्पत्ति और
जायदाद तभी पैदा होती है जब कोई व्यक्ति ज़मीन जोतता है
, खेती
करता है और राजा
, जिसका काम रक्षा करना है, अपनी
सेवाओं के बदले में किसानों से पैदावार का एक भाग पाता है। भूमि पर राजा का अधिकार
है
,
यह विचार पश्चिमी देशों की उपज है, सामंती
है
,
भारतीय नहीं।“

 

कांग्रेस में रह कर श्री विजयराघवारचार्य
पूरी लगन से देश सेवा के काम में लगे रहे और यद्यपि कांग्रेस की सभी नीतियों से वह
सहमत नहीं थे
, फिर भी वह सच्चे देशभक्त थे और व्यक्तिगत
स्वार्थों को उन्होंने जन-सेवा के आगे हमेशा हेय माना। देश में एकता की कमी उन्हें
हमेशा खटकती रहती थी और इस दिशा में उन्होंने हमेशा भरसक कोशिश जारी रखी। उन्हें इलाहाबाद
में होने वाले एकता सम्मेलन के खुले अधिवेशन का सभापति चुना गया । इस वर्ष और उससे
भी अगले वर्ष कांग्रेस को गैर कानूनी करार दे दिया
या
था
, इसलिए
कांग्रेस का कोई अधिवेशन नहीं हो सका सिविल नाफ़रमानी यानी सविनय अव
ज्ञा
का फैसला कांग्रेस कर चुकी थी और अंग्रेज सरकार भी गांधीजी तथा कांग्रेस नेताओं को
गिरफ्तार करके
आंदोलन को कुचलने पर आमादा थी
, पर देश को
तो आजादी की लौ लग चुकी
थी इसलिए लड़ाई जारी रही। सरकार दमन करती रही और
जनता सर हथेली पर लिए गांधी और देश के नाम पर बलिदान करने को बढ़ती रही।

 

विजयराघवारचार्य ने
आगे चल कर हिन्दू महासभा का समर्थन किया और हिन्दू
हासभा
के एक अधिवेशन में सभापति का पद भी ग्रहण किया। किंतु इससे उनकी राष्ट्रीय भावना
तथा देशभक्ति में कोई अंतर पड़ा
| १९४४ का भारत छोड़ो आंदोलन चले एक साल भी
पूरा नहीं हुआ था कि उनकी मृत्यु हो गई। मृत्यु के समय उनकी अवस्था लगभग ९३ वर्ष
की थी। 
         

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