मुहम्मद इक़बाल की कविताए व शायरी | Muhammad Iqbal Ki Kavita Aur Shayari

मुहम्मद इक़बाल की कविताए व शायरी

Muhammad Iqbal Ki Kavita Aur Shayari

Mohd Iqbal Shayari

अपने गुरु की शान में उन्होंने अपनी कविता “बस्ती का मुसाफिर” में लिखा है :

वह शमे बारगहे खांदाने मुरतज़वी
रहेगा मिस्ले हरम जिसका आसतां मुझको।
नफ़स से जिसके कली मेरी आरजू की खिली
बनाया जिसकी मुरव्वत ने नुक्तादा मुझको।

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इकबाल ने फारसी के एक शेर में आरनोल्ड से बिछुड़ने का दुख इस प्रकार प्रकट किया है :

“कृपा के मेघ ने भेरे से अपना आचल उताया और चला गया। मेरी आशाओं की कलियों पर थोड़ा-सा बरसा और चला गया……”


इकबाल की कविता हिमालय पर्वत बहुत प्रसिद्ध हुई है :

ऐ हिमालय, ऐ फ़सीले किशवरे हिंदोस्तां।
चूमता है तेरी पेशानी को झुक कर आसमां ।

यह कविता “मखडन” नाम की पत्रिका के पहले अंक में १९०९ में प्रकाशित हुई थी।


“बाले जबरील” के पहले पृष्ठ पर भर्तृहरि के एक श्लोक का अनुवाद इस प्रकार किया है:

फूल की पत्ती से कट सकता है हीरे का जिगर।
मर्दे नादां पर कलामे नरमो नाजुक बेअसर ।


इकबाल की रचनाओं के कुछ उदाहरण :

करम तेरा कि बेजौहर नहीं मैं
गुलामे तुगरूलओ संजर नहीं मैं
जहां बीनी मेरी फितरत है लेकिन
किसी जमशेद का सागर नहीं मैं

गुज़र औकात कर लेता है यह कोहो बियावां में
कि शाही के लिए ज़िल्लत है, कारे आशियां बंदी

है यही मेरी नमाज़ है यही मेरा वजू
मेरी नवाओं में है मेरे जिगर का लहू
राहे मुहब्बत में है कौन किसी का रफ़ीक
साध मेरे रह गई एक मेरी आरजू

बुतखाने के दरवाजे पे सोते है बिरेहमन
तकदीर को रोता है मुसलमां तहे मेहराब
मशरिक से हो बेज़ार न मगरिब से हज़र कर
फ़ितरत का इशारा है कि हर शब को सहर कर

गर्चे मकतब का जवां जिंदा नज़र आता है
मुर्दा है मांग के लाया है फिरंगी से नफ़स

उट्ठो मेरी दुनिया के गरीबों को जगा दो।
काखे-उम्रा के दरो दीवार हिला दो।
जिस खेत से दहकां को मुयस्सर न हो रोज़ी,
उस खेत के हर गोशाए गंदुम को जला दो।

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