भाई वीर सिंह की कविता | Bhai Vir Singh Ki Kavita

भाई वीर सिंह की कविता | Bhai Vir Singh Ki Kavita

Bhai Vir Singh Ki Kavita

भाई वीर सिंह की कविता में प्रकृति प्रेम और सामाजिक अंश, दोनों के दर्शन मिलते हैं। अपने गले में लिपटी एक बेल के हटाए जाने पर जरा इस पेड़ की पुकार सुनिए :


हाय न घ्रीक सानू, हाय थे न मार खच्चां,
हाय न बिछोड़ गल लगियां नू पापिया।
प्यारे न बिछोड़िए वे, मिले न निखेड़िए वे,
आसरे न तोडिए वे, अवे पाडिए न जोड़ियां ।

हाय, तू मुझ पर अत्याचार न कर। इस गले लिपटी बेल को क्यों मुझ से जुदा करता है। दो गले मिले हुए को बिछोड़ कर उनका सहारा नहीं तोड़ना चाहिए।


कश्मीर के इच्छाबल चश्मे पर गहरी शाम घिरी देख कर कवि प्रश्न पूछता है:


सन्झ होई परछावें छुप गए, क्यों इच्छावल तू जारी।
नैं सरोद कर रहीउवें ही, ते दुखों बी नहिं हारी।

सांझ की परछाई ढल आई है। तू अब भी क्यों अविराम बहता जा रहा है ? तुझे थकान ने चूर नहीं किया?

चश्मे का उत्तर हैं:


सीने खिच्च जिन्होंने खाधी ओ कर आराम नहीं बहिदे।
निहूं वाले नेणां को नींदर, ओ दिन रात पए बहिदे।

जिनके सीने में लग गई, वह भला कब आराम से बैंठते हैं? प्रेम तथा करुणा से पूर्ण आंखों में नींद कहां? वे तो रात-दिन बहती है।


भाई वीर सिंह की “किक्कर” नामक कविता प्रसिद्ध है। “किक्कर” अर्थात बबूल के वृक्ष ने इस छोटी सी कविता में अपनी आत्मकथा कही है। किक्कर कहता है :


ऊर्ध्व ग्रीव में ऊर्ध्व गमनरत महाकाश-दिशि जाऊ,
ऊर्ध्व दृष्टि में निरखू निज प्रभु, उसकी छटा न पाऊ।
नगर, ग्राम औ महल, मड़ैया, कुटी, उटज नाचा हूं,
झंझा, मेह, उपल, आतप, मैं नंगे सीस बिताऊं ।
लो अंबर के स्वामी, मुझको नहीं लालसा और,
एक वितस्ति ठांव भू से ली, बढ़ं रस बाढ़ं टिकूं इस ठौर।
फूलूं, फलूं, बढ़, रस बांटू, रहूं अलिस ढर जाऊं।
रे जग, अन्न वस्त्र-गृह, यह सब, बिन मांगे मर जाऊं।
कर आहार पवन का, पीकर वर्षा-नीर जिऊंगा,
गत शतियों से स्थित मैं योगी, शतियों और टिकूंगा।
छेड़-छाड़ करता न कभी मैं, मैं विरक्त निगुणिया,
फिर भी मेरे लिए कुल्हाड़ा? अरी, वाह री दुनिया !

सांझ की परछाई ढल आई है। तू अब भी क्यों अविराम बहता जा रहा है ? तुझे थकान ने चूर नहीं किया?


भाई वीर सिंह ने गांधी जी के निर्वाण पर भी एक लंबी कविता लिखी है। इसे पढ़ कर नवीन जी को ऐसा लगा कि गांधी जी की महायात्रा पर लिखे गए काव्यों में भाई वीर सिंह की यह रचना “गांधी जी” एक उच्चकोटि का काव्य है :


वह सोया पड़ा था राज-मार्ग के समीप ही
धरती की गोद के बीच,
हरी-हरी घास की बिछौनी थी
धरती की गोद के बीच,
मीठी-मीठी गंध उठ रही थी
हौले-हौले बह रही थी बयार,
और (वह बयार) एक युवती के सदृश उसके पास खड़ी हो गई। और बोली- कौन है यह मुझे सुगंध-मगन करनहारा ?
किस मां का जाया है यह?
किस सुहाग भरी का प्रीतम है यह ?
धरती बोली :
यह सुगंधी है
अब सुगंध देने वाला है
सुगंधदाता होने के कारण कहलाया है।
गांधी यह।
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इस लंबी कविता का अंतिम पद है :
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वह मर गया,
वह अग्नि-भेंट हो गया!
विभूति के फूल यमुना, गंगा, नर्मदा ले गई।
पर, पर, वह जी उठा हृदयों के बीच,
खेल रहा है प्यार-पालनों के मध्य,
हां, वह अमर हो गया
जगत-गुणज्ञता के रंगमहलों के मध्य
दीया फूट गया,
रंगमहलों के मध्य।
बत्ती बुझ गई,
पर-जगा गई घट दीपमाला
निर्वाण प्राप्ति दीपक की
ज्वाला-संस्पर्श जाज्योति ।



वह सोया पड़ा था राज-मार्ग के समीप ही
ऊच्चा उट्ट जिमी तों प्यारे,
तैनू खंभ रब्ब ने लाए
ऊच्च नजर ते हिम्मत ऊच्ची
दाईया ऊच्चा रक्खीं,
अरशी ताघ जिदे ही पल्ले,
उह क्यों पुंजे आवे?

ए प्यारे मनुष्य, तू सदा धरती से ऊंचा उठ कर देख। परमात्मा ने तुझे पंख दिए है। जिसके पास ऊंची निगाह और ऊंचा साहस है, वह क्यों नीचे गिरेगा?

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