संस्कृत दुनिया
की महान भाषाओं में से एक हैं। आज हमारे देश में संस्कृत बोलने वालों की संख्या कम
है, लेकिन किसी समय संस्कृत
ही लिखने व पढ़ने की भाषा थी। जयदेव
इस भाषा के मधुरतम कवि हुए। मुख्य बात यह है की जयदेव ने केवल एक ही काव्य लिखा। इस ग्रंथ का नाम है ‘गीत-गोविंद‘। अपने इस काव्य द्वारा जयदेव अमर हो गए हैं। केवल एक काव्य लिखकर इतनी अधिक
ख्याति पाने वाले कवि संस्कृत में तो क्या संसार की अन्य भाषाओं में भी कम ही हुए
हैं।
जयदेव का जन्म
बंगाल के एक छोटे से गांव केन्दुबिल्व मैं हुआ था। यह स्थान आजकल पश्चिम बंगाल के
वीरभूमि जिले में हैं। माना जाता है कि उनका जन्म १२वीं शताब्दी के आसपास हुआ था। उन दिनों बंगाल
में सेन वंश के राजा लक्ष्मण सिंह राज्य करते थे और दिल्ली की गद्दी पर चौहान वंश
का बादशाह था।
जयदेव के पिता का
नाम भोजदेव और माता का नाम रामदेवी था। जब जयदेव बहुत छोटे थे, तभी उनके माता-पिता की मृत्यु हो गई थी। इस तरह
बहुत छोटी सी आयु में ही उनसे माता-पिता का स्नेह छिन गया।
उनके बचपन के
बारे में अधिक जानकारी नहीं मिलती। उनकी विवाह के संबंध में बस इतना मालूम है कि
उनका विवाह पद्मावती नाम की एक कन्या से हुआ था। जयदेव के विवाह की कहानी बड़ी
रोचक है। कहते हैं, पद्मावती के पिता
ने एक दिन एक स्वप्न देखा। स्वप्न में भगवान जगन्नाथ ने उनसे कहा कि पद्मावती का
विवाह जयदेव से कर दो। इस पर पद्मावती के पिता ने पूरी में एक वृक्ष के नीचे अपनी
कन्या का हाथ जयदेव को सौंप दिया।
पद्मावती के
विचार भी बड़े धार्मिक थे। इसलिए दोनों का विवाह बड़ा सुखी सिद्ध हुआ। वे बडे मेल
से रहते थे। दोनों का आपस में इतना प्रेम था कि एक के बिना दूसरा रह नहीं सकता था।
पद्मावती ने जयदेव के जीवन पर बहुत अधिक प्रभाव डाला। जयदेव को कविता लिखने के लिए
भी पद्मावती से बड़ी प्रेरणा मिली।
कुछ समय बाद
जयदेव ब्रज में वृंदावन और आसपास के दूसरे स्थान देखने गए। वृंदावन में कृष्ण का
बचपन बीता था। यहीं पर कृष्ण गोपियों के साथ खेला करते थे और यही कृष्ण का राधा से
प्रेम हुआ था। बड़े होने पर कृष्ण वृंदावन से मथुरा और बाद में मथुरा से द्वारिका
चले गए थे। गीत-गोविंद में जयदेव ने कृष्ण के हास-विलास की मधुर कहानी लिखी हैं। वृंदावन
की जमुना वहां के लता-वृक्ष और वहां की कुंज-गलियों को देखकर जयदेव अपनी सुध-बुध
भूल गए थे। आगे चलकर वृंदावन की यही झांकी उनके गीत-गोविंद में साकार हो उठी।
बंगाल लौटने पर
जयदेव बंगाल के राज दरबार की शोभा बढ़ाने लगे। वह राज दरबार के ५ रत्नों में से एक थे।
राजा और रानी, दोनों ही उनका
बड़ा आदर करते थे। लेकिन एक बार जब जयदेव बाहर गए हुए थे, तब रानी को मजाक सूझा ।
उसने पद्मावती से कहा कि जयदेव तो इस संसार में नहीं रहे। पद्मावती जयदेव को बहुत
प्यार करती थी। यह खबर सुनकर उसे इतना दुख हुआ कि वह मूर्छित होकर गिर पड़ी और उसने अपने प्राण त्याग दिए।
लौटने पर जब
जयदेव को सारा हाल मालूम हुआ, तो उनका दिल भी
टूट गया। उन्होंने फैसला किया कि अब वह राजा के यहां नहीं रहेंगे। वह राज-दरबार
छोड़कर अपने गांव में जा बसे। उन्होंने जीवन के बाकी दिन अपनी इसी गांव में
अकेलेपन में बिताएं। उनकी मृत्यु के बाद केन्दुबिल्व में कई शताब्दियों तक उनके
जन्मदिन के अवसर पर हर साल उत्सव किया जाता था। इस उत्सव में रात के समय जयदेव-रचित
गीत बड़ी श्रद्धा से गाए जाते थे।
जय देवी अपना
अनूठा ग्रंथ, गीत-गोविंद पूरी
में लिखा था। इसमें राधा और कृष्ण की प्रेम की कहानी गीतों में लिखी गई है। कहते
हैं कि गीत-गोविंद जैसा प्रेम-काव्य भारत की और किसी भाषा में नहीं है। राजदरबारो और मंदिरों में लोग गीत गोविंद के पद श्रद्धा
से गाते आए हैं।
राधा और कृष्ण की
प्रेम की इस कहानी को कवि ने बड़े ही सुंदर ढंग से लिखा है।
कृष्ण और राधा के
जिस प्रेम का चित्र जयदेव ने गीत-गोविंद में किया हैं, वह सांसारिक नहीं है, देवीय हैं, क्योंकि उन्होंने कृष्ण के जिस समय की जीवन का
हाल लिखा है, उस समय कृष्ण केवल ८ वर्ष के थे। उनकी बंसी की
धुन पर खींच कर आने वाली ब्रज की गोपियां साधारण स्त्रियों नहीं थी। उन्हें अजीब
पागलपन था। कृष्ण के प्रेम में वे इतनी डूबी हुई थी कि वे चाहे जिस वेश में हो और
चाहे जहां हो, अपना काम-काज छोड़कर ,सुध-बुध भूल कर बंसी की पुकार के पीछे चल देती थी।
जयदेव ने गीत-गोविंद
में जिस कृष्ण भक्ति का वर्णन किया था , उसने बाद के कितनी कवियों
को प्रभावित किया। विद्यापति और चंडीदास इनमें प्रमुख हैं। विद्यापति पर जयदेव का
प्रभाव इतना अधिक था कि राजा शिव सिंह ने, जिनके दरबार में
विद्यापति रहते थे, उन्हें “अभिनव जयदेव” की उपाधि दी थी।
वैसे तो जयदेव के गीत गोविंद के पद सारे भारत में प्रसिद्ध हुए लेकिन दक्षिण भारत
में वे विशेष लोकप्रिय हुए हैं और वहां आज भी लोग उन्हें बड़े शौक से गाते हैं।
एक कहानी तह भी है की चैतन्य महाप्रभु उन दिनों पूरी में जीवन के अंतिम दिन बिता
रहे थे। वह धीरे-धीरे जगन्नाथ जी के मंदिर की ओर चले जा रहे थे कि तभी उनके कानों
में एक मधुर गीत पहुंचा। गीत चलता रहा और चैतन्य महाप्रभु मगन होकर
सुनते रहे। वह गीत में इतनी खो गए की जिस दिशा से गीत आ रहा था वह उसी दिशा में
भागने लगे। वह भागकर गाने वाले से लिपटना ही चाहते थे कि लोगों ने उन्हें अलग खींच
लिया। गाने वाली देवदासी थी और चेतन्य सन्यासी। भला सन्यासी देवदासी को कैसे छू
सकता था।
जयदेव ने अकेले
कवियो और संतों को भी प्रभावित नहीं किया, चित्रकार भी उनके गीत-गोविंद से प्रभावित हुए।
पुरी से बहुत दूर भारत के दूसरे ही छोर पर जम्मू की घाटियों में चित्रकारों ने गीत-गोविंद
की कहानी को लेकर चित्र बनाएं। यह चित्र बहुत ही सुंदर हैं, इन्हें बसौली शैली के चित्र कहा जाता है। बसौली पंजाब की पहाड़ी रियासत में
एक छोटी-सी जागीर थी। वहां की रानी मालिनी को चित्रों का बड़ा शौक था। कहा जाता है
कि यह चित्र उसी के कहने पर बनाए गए थे।
गीत-गोविंद काव्य
हैं, पर उसमें नाटक की गुण भी पाए जाते हैं। गीत गोविंद को
भारतीयों ने ही नहीं, विदेशियों ने भी बहुत पसंद किया है। बहुत सी
विदेशी भाषाओं में गीत-गोविंद का पद्ध में अनुवाद भी
हो चुका है। इनमें लैटीन, अंग्रेजी, जर्मन और फ्रेंच प्रमुख
हैं।