महादेव गोविन्द रानडे |
Mahadev Govind Ranade
भारतीय कांग्रेस के जन्मदाता मिस्टर ए०ओ०ह्यूम
का मत था कि भारतवर्ष में यदि कोई ऐसा व्यक्ति था, जो
रात-दिन चौबीसों घंटे अपनी मातृभूमि की चिंता करता था, तो
वह महादेव गोविन्द रानडे थे। रानडे ने ३०-३५
वर्ष तक भारतवर्ष की उस समय सेवा की जब देश में जागृति की नींव नए सिरे से रखी जा
रही थी। वह उन लोगों में से थे, जिन्होंने १८८५
में अखिल भारतीय कांग्रेस की स्थापना में सक्रिय सहयोग दिया था।
रानडे ने १८ जनवरी १८४२ मंगलवार को पूना में
गोविन्द अमृत रानडे के यहां जन्म लिया। बचपन में उनका पालन-पोषण भली प्रकार हुआ
था। रानडे के पूर्वज किसी-न-किसी पद पर पेशवाओं के दरबार में रहे थे। उनके पड़दादा
अप्पा जी पंत पुना में सांगली रियासत के
प्रतिनिधि थे। उनके दादा अमृत राव पूना जिले में मामलतदार थे और उनके पिता नासिक जिल
में निफाद के मामलतदार के हेड क्लर्क थे। जिस समय रानडे का जन्म हुआ उनके पिता
को आय कुल ३५ रुपया माहवार थी, पर बाद में
उन्हें कोल्हापुर में एक अच्छी नौकरी मिल गई और
उनकी आय २५० रुपया माहवार तक पहुंच गई। इस प्रकार रानडे एक बहुत साधारण परिवार के
थे।
उन्होंने पूना में ही प्राथमिक शिक्षा पाई।
ग्यारह वर्ष की आयु में उन्होंने अंग्रेजी की पढाई आरंभ की। रानडे उन इक्कीस विद्यार्थियों
में से थे, जिन्होंने १८५९ में बम्बई विश्वविद्यालय
की प्रथम मैट्रिकुलेशन परीक्षा पास की थी। बाद में कोल्हापुर हाई स्कूल में भर्ती
हुए। वह बी०ए० में प्रथम आए और एम०ए० में उन्हें स्वर्ण-पदक दे कर सम्मानित किया
गया। इसके अगले वर्ष उन्होंने एल॰एल०बी० की परीक्षा पास की। रानडे को न तो उनके
माता-पिता और न उनके शिक्षक ही प्रतिभाशाली मानते थे बचपन में वह जरा दब्बू थे और
पढ़ने-लिखने में भी मामूली थे।
रानडे की इतिहास में विशेष रुचि थी। अपने
विद्यार्थी जीवन में भी वह विविध विषयों पर लेख-लिखा करते थे। मराठी के गौरवपूर्ण
इतिहास को रानडे ने अपनी सशक्त लेखनी से संवार कर जनता के सामने रखा। इस कार्य से
उन्हें हानि भी सहन करनी पड़ी। सरकार ने उनकी छात्र-वृत्ति कुछ समय के लिए रोक दी।
रानडे का जीवन शिक्षा विभाग में मराठी
अनुवादक के रूप में आरंभ हुआ। बाद में वह न्याय विभाग में अनेक पदों पर काम करते
रहे और अंत में बम्बई हाई कोर्ट के जज बनाए गए। वह साढ़े सात वर्ष से अधिक समय तक
हाई कोर्ट के जज रहे। रानडे एक प्रसिद्ध और सफल जज थे उन्होंने अपने कई फैसलों में
बड़ी निर्भीकता का परिचय दिया। उन्हें कानून की मूल बातों का बड़ा अच्छा ज्ञान था।
मुकदमों
की सुनवाई वह बड़े गौर से करते थे और बहुत अधिक परिश्रम के बाद अपने फैसले सुनाते
थे।
देश में उठ रहे समाज-सुधार के आंदोलनों से भी
रानडे को दिलचस्पी थी। प्रार्थना-समाज, आर्य-समाज
और ब्रह्म-समाज के सुधार कार्यों से वह प्रभावित हुए। प्रगतिशील विचारधारा का
उन्होंने हृदय से स्वागत किया। वह मानते थे कि राममोहन राय ने देश को सही रास्ता
दिखाया है। वह स्वयं भी सुधार कार्यों में भाग लिया करते थे।
पुना मे महाराष्ट्र-समाज
में रानडे ने ही उत्साहपूर्वक प्राण फूंके। डा०भाऊदाजी और दादाभाई नौरोजी के
पथ-प्रदर्शन में रानडे ने शिक्षित लोगों को देश हित के कार्य के लिए एकत्र किया, जनता
को उसकी भलाई की बातें बताई और उन्हें काम करने की प्रेरणा दी। सरकारी नौकरी में
रहते हुए भी उन्होंने जनता से सम्पर्क बनाए रखा। कितनी ही सार्वजनिक सेवाओं के वह
संचालक व संरक्षक वर्ग तथा सभी आंदोलन के प्राण-स्वरूप थे।
रानडे ने संघशक्ति के द्वारा भारतीय राजनीतिक
आंदोलन का मार्ग सरल किया देशहित ही उनकी देश भक्ति और
राजभक्ति थी। वह हर काम राष्ट्र-हित के लिए किया करते थे। न्याय उनका जीवन दर्शन था।
रानडे की प्रतिभा शासन अधिकारियो से
छिपी न
रह सकी। उन्हें हाईकोर्ट का न्यायाधीश नियुक्त किया गया। न्याय के क्षेत्र में उनकी
ख्याति ऐसी थी कि उन्हें न्यायमूर्ति रानडे के नाम से सम्बोधित किया जाता रहा है।
पूना में १८९५ के कांग्रेस अधिवेशन में
सदस्यों में परस्पर मतभेद हो गया कि समाज-सुधार के मामलों में कांग्रेस भाग ले या
नहीं?
इस मतभेद को रानडे ने बुद्धिमानी से सम्भाला।
श्री केशवचन्द्र सेन ने समाज सुधार कार्यों
के लिए “प्रार्थना समाज” नामक
एक संस्था की स्थापना की थी। श्री सेन के बाद “प्रार्थना-समाज” का
कार्य भी रानडे को सम्भालना पड़ा। वहा अब उसके प्रमुख नेता थे। प्रार्थना-समाज
अपने को हिन्दू मानते थे और भारतीय संतों में आस्था रखते थे। राजनीति से दूर रह कर
एकमात्र समाज-सुधार का कार्य करना सदस्यों का कर्तव्य माना जाता था।
रानडे ने प्रार्थना समाज के मंच से महाराष्ट्र में अँधविश्वास
और हानिकर रूढ़ियों का विरोध किया। अपने समय के वह एक उच्च कोटि के समाज-सुधारक
थे।
रानडे की दृष्टि में उस समय भारत के विकास के
लिए चार कार्य क्षेत्र थे-धार्मिक,सामाजिक, औद्योगिक
और राजनीतिक। धर्म में उनका अंधविश्वास नहीं था। वह प्राचीन धार्मिक मतों में सुधार के पक्षपाती थे।
वह मानते थे कि देश-काल के अनुसार धार्मिक आचरण बदलते रहते हैं |
समाज-सुधार के अंतर्गत उन्होंने
स्त्री-शिक्षा का प्रचार, मादक
द्रव्यों का निषेध, बाल-विवाह तथा जाति-भेद का विरोध, विधवा
विवाह का समर्थन और सामाजिक कुरीतियों का खंडन किया। भारत की औद्योगिक या आर्थिक
दशा को उन्नत बनाने के लिए रानडे ने व्याख्यान देकर, ग्रंथ
लिखकर तथा देश की दुर्दशा के अनेक पहलुओं की ओर तात्कालिक सरकार का ध्यान दिलाकर
प्रशंसनीय कार्य किया था। उन्होंने कहा था कि भारतवर्ष को विदेशी अंग्रेज व्यापारियों
का क्षेत्र कभी न बनने दिया जाए क्योंकि उससे देश की दशा शोचनीय ही बनी रहेगी।
भारत में स्वदेशी माल के निर्माण एवं देश में बनी वस्तुओं के उपयोग की जाए |
१६ जनवरी १९०१ को उन्होंने यह संसार छोड़
दिया।