महात्मा हंसराज का जीवन परिचय | Biography of Mahatma Hansraj

महात्मा हंसराज का जीवन परिचय | Biography of Mahatma Hansraj

उनीसवीं शताब्दी के अंत में जिन महापुरुषों ने देश में शिक्षा व समाज-सुधार के क्षेत्र में काम शुरू किया, उनमें महात्मा हंसराजजी का नाम बहुत ऊंचा है। एक ओर जहां वह डी.ए.वी. शिक्षा संस्थाओं के संस्थापक थे, वहां अछूतोद्धार आदि के क्षेत्र में उनका योगदान कम नहीं था। उन्होंने अपना सारा जीवन ही शिक्षा और समाज-सुधार के कार्यों के लिए अर्पित कर दिया और बड़ी-से-बड़ी बाधा उन्हें पथ से डिगा नहीं सकी।

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महात्मा हंसराज का जन्म | Birth of Mahatma Hansraj


महात्मा हंसराजजी का जन्म १९ अप्रैल १८६४ को होशियारपुर शहर (पंजाब) से दो-तीन मील दूर बसे बजवाड़ा नामक कस्बे में हुआ था। उनके पिता का नाम लाला चूनी लाल और माता का नाम गणेश देवी था। उनके माता-पिता बहुत अमीर नहीं थे। उनका स्कूल घर से दूर था। गर्मियों में नंगे पैर से आते समय धूप से तपती हुई रेत से जब उनके पैर जलने लगते, तो वह अपनी तख्ती स्कूल नीचे रख देते और उस पर खड़े होकर अपने पैरों की जलन मिटाते और कुछ देर बाद फिर तपती रेत पर चलने लगते। इस पर भी अपनी श्रेणी में वह सदा प्रथम आते।

हंसराजजी अभी १२ बरस के ही थे कि उनके पिता का देहांत हो गया। तब उनके बड़े भाई लाहौर चले आए और अपने छोटे भाई को भी ले गए |

लाहौर मे एक बार एक दुकान पर गणित की पुस्तक खरीदने गए। दुकानदार ने मजाक में गणित का एक कठिन प्रश्न उन्हें हल करने के लिए दिया और कहा कि “यदि तुमने यह प्रश्न हल कर दिया तो मै तुम्हें मुफ्त में किताब दे दूंगा।“ कहना न होगा कि हंसराजजी को मुफ्त में ही किताब मिली।

महात्मा हंसराज की शिक्षा | Teachings of Mahatma Hansraj


सन् १८८० में उन्होंने एंट्रेस-परीक्षा पास की और १८८५ में बी.ए. की। पंजाब-भर में उन्हें द्वितीय स्थान मिला। संस्कृत और इतिहास में उन्होंने विशेष योग्यता प्राप्त की।

उन दिनों बी.ए. पास करने पर ऊंची-से-ऊंची नौकरी के दरवाजे खुल जाते थे, परिवार वालों को आशा हुई कि अब हमारी गरीबी दूर हो जाएगी। परंतु इसी बीच एक ऐसी घटना हुई, जिसने उनकी जीवन-धारा ही बदल दी।

दयानंद एंग्लो वैदिक कालेज की स्थापना | Establishment of Dayanand Anglo Vedic College


१९७७ में आर्य समाज का प्रचार करते हुए स्वामी दयानंदजी लाहौर पहुंचे और वहां उनकी धूम मच गई। यह दोनों भाई भी उनसे बहुत प्रभावित हुए। ३० अक्तूबर १८८३ को जहर दिए जाने के कारण अजमेर में स्वामीजी का स्वर्गवास हो गया। लाहौर के आर्यसमाजियों ने अगले ही महीने यह तय किया कि उनकी स्मृति में दयानंद एंग्लो वैदिक (डी.ए.वी.) कालिज व स्कूल खोले जाएं, जहां पाश्चात्य विद्या के साथ-साथ पूर्वी ज्ञान और विशेषकर वेदों की शिक्षा दी जा सके।

इस संस्था में वर्तमान प्रणाली के अवगुणों को त्यागकर केवल गुणों को ग्रहण किया जाए। दस्तकारी आदि की शिक्षा भी दी जाए। कालिज खोलने की योजना बन गई और उसके लिए आठ लाख रुपये जमा करने का फैसला किया गया, परंतु केवल दस हजार रुपये ही इकट्ठे हुए और धनाभाव के कारण कालिज व स्कूल शुरू न हो सके। हंसराजजी इस स्थिति को सहन न कर सके। उन्होंने अपना जीवन इस काम के लिए अर्पित करने का निश्चय कर लिया।

एक दिन वह अपने बड़े भाई लाला मूलराज से कहने लगे कि “यह बहुत दुख की बात है कि पैसे की कमी के कारण दयानंद कालिज शुरू नही हो पा रहा। मैं कालिज चलाने के लिए अपना जीवन अर्पण करना चाहता हूं। मेरी इच्छा है कि बिना एक पैसा लिए अपना जीवन कालिज को दान कर दूं। परंतु यह काम बिना आपकी सहायता के नहीं हो सकता।“

बड़े भाई को अपने छोटे भाई की यह बात बहुत पसंद आई। उन्होंने कहा कि “तुम बेखटके कालिज की सेवा करो। मैं तुम्हारे और तुम्हारे परिवार के खर्च के लिए आधा वेतन, अर्थात ४० रुपये मासिक देता रहंगा।“ हंसराजजी की मनोकामना पूरी हुई। उन्होंने आर्य समाज, लाहौर, के प्रधान को चिट्ठी लिख दी कि स्कूल खुलने पर वह अवैतनिक मुख्याध्यापक बनने के लिए तैयार हैं। इस पत्र ने आर्य समाज के कार्यकर्ताओं में नई जान फूक दी। एक जून १८८६ को आर्य समाज, लाहौर, के भवन में स्कूल खोल दिया गया। महात्मा हंसराजजी इसके अवैतनिक मुख्याध्यापक नियुक्त हुए।

स्कूल तेजी से प्रगति करने लगा। केवल पांच दिन में ही स्कूल में ३०० विद्यार्थी दाखिल हो गए। दो-तीन साल बाद ही स्कूल का नतीजा भी अन्य स्कूलों के मुकाबले अच्छा आने लगा।

१८८९ मे ही स्कूल बढ़कर कालिज बन गया और महात्माजी ही उसके प्रिंसिपल नियुक्त किए गए | १८९६ मे कालिज मे इंजीनियरिंग क्लास भी शुरू हो गई | महात्माजी कालिज के विध्यार्थी को अंग्रेज़ी और इतिहास के साथ-साथ धर्म-शिक्षा भी देते थे।

कालिज के प्रिसिपल होने के साथ-साथ वह होस्टल के प्रधान सुपरिटेंडेंट भी थे, होस्टल में संध्या-हवन के साथ वह विद्यार्थियों के स्वास्थ्य पर भी बहुत बल देते थे। इसलिए कुश्ती सिखाने के लिए एक पहलवान भी रखा गया।

महात्माजी को कालिज के प्रबंध के साथ-साथ उसके लिए चंदा भी इकट्ठा करना पड़ता था। उन्हीं के अथक परिश्रम के कारण स्कूल व कालिज के नए भवन लाखों रुपयों की लागत से बने।

यद्यपि कालिज के लिए महात्माजी ने लाखों रुपये जमा किए, परंतु उनका अपना जीवन बहुत ही सादा था। काफी समय तक वह चार रुपये महीने के किराए वाले छोटे से मकान में रहे। उनके अपने कमरे में सादी-सी दरी बिछी रहती थी, जिसके एक कोने पर महात्माजी बैठते थे। कमरे का कुल फर्नीचर दो डेस्क और एक छोटी-सी तिपाई थी। मेहमानों को भी भूमि पर ही बैठना होता था, क्योंकि कमरे में कोई कुर्सी ही न थी। इसके बगल में उनके आराम का कमरा था, जिसमें एक चारपाई और एक कंबल ही होता था। उनकी पोशाक थी – खादी का कुरता और खादी का पाजामा, और पैरों में देसी जूता। अधिक कपड़े वह न पहनते थे और न ही रखते थे। सर्दियों में कश्मीरी पट्टू का कोट पहन लेते थे।

एक बार साहूकार उनसे मिलने आया। उसका विचार था कि कालिज के प्रिंसिपल है, ठाठ रहते होंगे। पर वह यह देखकर दंग रह गया कि वह एक मामूली तख्त पर फटा हुआ कंबल ओढ़े बैठे कुछ लिख रहे थे। अगले दिन वह दो कश्मीने के शाल लेकर उनके पास पहुंचा और निवेदन करने लगा कि यह फटा कंबल उतार दीजिए और यह शाल ओढ़ लीजिए। किंतु महात्माजी अपना फटा कंबल छोड़ने को तैयार नहीं हुए। साहूकार के अत्यंत आग्रह पर उन्होंने वे शाल कालिज के कोष में दान कर दिए।

महात्माजी स्वयं ही सेवाभावी न थे। अन्य सेवाभावी व्यक्तियों को भी वह आगे लाते थे। उन्होंने कालिज के आजीवन सदस्यों की योजना शुरू की। ये सदस्य कालिज से नाममात्र का खर्चे लेकर आजीवन कालिज की सेवा करते थे। इन्हीं आजीवन सदस्यों के बल पर देश-भर में डी.ए.वी. कालिजों व स्कूलों का जाल बिछ गया है।

जब कालिज की सेवा करते-करते २५ वर्ष हो गए तो उन्होंने कालिज के प्रिंसिपल-पद से त्यागपत्र दे दिया। उस समय उनकी उम्र केवल ४८ वर्ष की थी और यदि वह चाहते तो और कई वर्षों तक प्रिसिपल बने रह सकते थे परंतु उन्हें तो समाज-सेवा की धुन थी। जब उन्होंने इस्तीफा दिया तो डी.ए.वी. कालिज पंजाब का सबसे बड़ा कालिज बन चुका था। एम.ए. की कक्षाओं के अतिरिक्त वहा इंजीनियरिंग कक्षा, आयुर्वेद विभाग, उपदेशक विद्यालय, दस्तकारी स्कूल आदि भी खुल चुके थे। सस्कृत शिक्षा का विशेष प्रबंध था। कालिज का अपना भवन था और उसके कोष में आठ लाख से भी अधिक रुपये जमा थे। इस सबका श्रेय महात्मा हंसराजजी को ही था।

महात्मा हंसराज की समाज सेवा कार्य | Social Service Work of Mahatma Hansraj


एक प्रकार से महात्मा हंसराज ने भारतीय स्कूलों व कालिजों की स्थापना का मार्गदर्शन किया। डी.ए.वी. स्कूल की देखा-देखी ही अन्य भारतीय स्कूल भी खुले।

इस्तीफा देने के बाद १९१२ में वह दयानंद कालिज कमेटी के प्रधान बने। इस समय उन्होंने स्कूल-कालिज में कई सामाजिक सुधार भी लागू किए, उन दिनों बाल-विवाह का बहुत प्रचलन था। उन्होंने १९१५ में डी.ए.वी. स्कूल में विवाहित छात्रों का प्रवेश बंद करा दिया। बाद में एफ.ए. कक्षाओं में भी केवल अविवाहित छात्रों को ही भरती किया जाने लगा।

छूत-अछुत मिटाने में भी महात्मा हंसराजजी ने बहुत काम किया। दयानंद स्कूल व कालिज में सभी वर्णों के छात्र दाखिल हो सकते थे। १९२६ में एक चमार विद्यार्थी जब दयानंद कालिज छात्रावास में दाखिल हुआ तो ब्राह्मण रसोइए ने उसे भोजन कराने से इंकार कर दिया। परंतु महात्माजी ने विद्यार्थियों को समझाया और छात्रावास के ७०० विद्यार्थियों ने रसोइए के विरुद्ध हड़ताल कर दी। अंततः रसोइए को झुकना पड़ा और सब विद्यार्थियों ने चमार विद्यार्थी के साथ मिलकर भोजन किया।

दयानंद कालिज के साथ-साथ महात्माजी आर्य समाज के कार्यों में भी बहुत रुचि लेते थे, उनके परिश्रम के कारण पंजाब, सिंध, बलोचिस्तान आदि में आर्य समाजों का जाल बिछ गया। सामाजिक सुधारों और जनता की सेवा का काम भी चलता रहा| वह केवल कोरे उपदेश नहीं देते थे, वरन उन पर अमल भी करते थे। उन दिनों मोची, धोबी आदि को स्वर्ण हिंदू बहुत नीच मानते थे | इस भावना को दूर करने के लिए उन्होंने अपने चचेरे भाई को लाहौर में जूतों और बूटों की दुकान खुलवा दी।

इसी तरह उनके एक और संबंधी ने कपड़े धोने की एक लान्ड्री खोली। उन दिनों में ये बहुत ही क्रांतिकारी कदम थे। दयानंद इंडस्ट्रियल स्कूल में भी दर्जी, लोहार, बढ़ई और जिल्द बनाने के काम की शिक्षा दी जाने लगी। इस स्कूल के कारण भी उंच-नीच का भेद और छुआछूत काफी कम ही गई।

दयानंद दलित उद्धार मंडल की स्थापना | Establishment of Dayanand Dalit Liberation Mandal


छुआछूत दूर करने का काम केवल पंजाब तक ही सीमित नहीं रहा। दक्षिण भारत में मलाबार के अछूतों को भी उन्होंने आर्यसमाजी बनाया और वहां के अछूतों को पहली बार सड़कों पर बेरोकटोक चलने की अनुमति दिलाई। कांगड़ा के अछूतों के लिए बावड़ियां और तालाब बनवाए। उनके उद्धार के लिए दयानंद दलित उद्धार मंडल की स्थापना की गई।

महात्माजी ने विधवा-विवाह और स्त्री-शिक्षा के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय काम किया। कई कन्या पाठशालाएं खुलवाईं और कट्टरपंथी पंडितों से शास्तत्रार्थ भी किए। बाद में तो उन कट्टरपंथियों ने स्वयं भी कन्या पाठशालाएं खोलनी शुरू कर दी।

महात्माजी केवल धार्मिक नेता ही नहीं थे | जब बीकानेर, गढ़वाल, अवध, उड़ीसा और मध्य भारत में भारी अकाल पड़े तो वह तन-मन-धन से अकाल पीड़ितों की सेवा में जुट गए। कई जगह वह स्वयं गए और कई जगह अपने सहयोगियों को भेजा। इसी प्रकार कांगड़ा, क्वेटा और बिहार के भूकंप-पीड़ितों के लिए उन्होंने लाखों रुपये एकत्र करके भेजे। स्वामी विवेकानंद की तरह ही वह भी गरीबी को देश के लिए सबसे बड़ा अभिशाप मानते थे। उनकी राय थी कि एक भी पाई जो खर्ची जाए, देश के आदमियों के पालन में ही लगे। स्वदेशी का व्रत भी इसमें सहायक हो सकता है।

ब्याह-शादियों के अवसरों पर भी रुपया बर्बाद नहीं किया जाना चाहिए। बाल-विवाह को भी वह देश के पतन का कारण मानते थे। देश की अन्य बुराइयों में वह जात-पांत व अछूतों का प्रश्न, विधवाओं की दुर्दशा और नारी शिक्षा के अभाव को बड़ा मानते थे।

महात्मा हंसराज की मृत्यु | Death of Mahatma Hansraj


महात्मा हंसराजजी ठोस, परंतु मूक कार्यकर्ता थे आत्म-प्रचार से वह कोसों दूर भागते थे। लोगों ने उन पर राजनीति में शामिल होने के लिए बहुत जोर भी डाला। परंतु उनका एक ही जवाब था, मैं नींव में पड़ने वाला पत्थर हूं। रचनात्मक कार्य में लगा हूं और सदा इसी में लगा रहूंगा। और अपने जीवन के ७४ वर्षों में से ५८ वर्ष रचनात्मक कार्य में लगाने के बाद १५ नवंबर १९३८ को उन्होंने यह नश्वर देह त्याग दी। परंतु आज भी देश के १५ डी.ए.वी. डिग्री कालिज, ८५ डी.ए.वी. हायर सैकेंडरी और हाई स्कूल और उनमें पढ़ने वाले एक लाख से अधिक छात्र-छात्राएं उनका याद को ताजा बनाए है।

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