वल्लतोल नारायण मेनन | Vallathol Narayana Menon

वल्लतोल नारायण मेनन | Vallathol Narayana Menon

केरल के बाहर ऐसे बहुत से लोग हैं, जो मलयालम साहित्य के बारे में तो एक अक्षर भी नहीं जानते, परंतु उन्होंने वल्लतोल नारायण मेनन का नाम अवश्य सुन रखा है। वल्लतोल नारायण मेनन सचमुच इतने महान थे। बंगाल की कला और साहित्य को समृद्ध बनाने में जो काम महाकवि रवींद्रनाथ ठाकुर ने किया, वही काम वल्लतोल ने केरल की कला और साहित्य को समृद्ध बनाने में किया।

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देश-विदेश में मलयालम के महान कवि के रूप में तो लोग उन्हें जानते ही हैं, केरल के प्रसिद्ध कत्थकली नृत्य के प्रचार-प्रसार में भी उनका योगदान सदा याद किया जाएगा। उनके ग्रंथों का अनुवाद रूसी, अंग्रेजी, हिंदी और बहुत सी अन्य भारतीय भाषाओं में हो चुका है। जिस तरह महाकवि रवींद्रनाथ ठाकुर ने विश्व भारती की स्थापना की थी, उसी तरह वल्लतोल ने केरल कला मंडलम की स्थापना की। यह केरल की कला और संस्कृति का मुख्य केंद्र बन गया ।

बड़े-बड़े देशी और विदेशी कलाकारों का सहयोग इसे मिला। वल्लतोल भारतीय कला की एकता में विश्वास रखते थे। इसलिए इसमें कत्थकली के अतिरिक्त अन्य भारतीय नृत्य-शैलियों का भी अध्ययन किया जाता है। केरल कला मंडलम् की स्थापना करके उन्होंने जनता में भारतीय नृत्य कला के प्रति श्रद्धा पैदा की।

पुरानी मद्रास प्रेसिडेंसी में वल्लतोल को आस्थान महाकवि माना गया। साहित्य अकादमी ने उन्हें पुरस्कृत किया। राष्ट्रपति ने उन्हें पद्मभूषण की उपाधि से विभूषित किया। मलयालम समझने वाले लोग उनकी कविता से मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। इसलिए उनका कुछ अधिक परिचय प्राप्त करना उचित ही होगा।

वल्लतोल नारायण मेनन का जन्म


महाकवि वल्लतोल नारायण मेनन का जन्म उत्तरी केरल में १६ अक्तूबर १८७८ को हुआ था। वह एक धनी और पुराने विचारों वाले नायर परिवार में पैदा हुए थे। इसलिए बचपन में उन्हें संस्कृत, आयुर्वेद, तर्कशास्त्र आदि का अध्ययन करना पड़ा। उन दिनों नायर परिवारों में चाचा को ही परिवार का मुखिया मानने का रिवाज था। उनके चाचा की मर्जी थी कि वल्लतोल बड़े होकर वैद्य बनें। वल्लतोल की रुचि तो बचपन से ही कविता की ओर थी । इसलिए उन्होंने संस्कृत में और अपनी मातृभाषा मलयालम में कविताएं करनी शुरू कर दीं। महाकवि कालिदास और भास के संस्कृत के अमर महाकाव्यों और नाटकों को उन्होंने खुब मनोयोग से पढ़ा। बाद में इनकी कुछ रचनाओं का अनुवाद उन्होंने मलयालम में भी किया | अपनी कई कृतियों के विषय उन्होंने संस्कृत से ही लिए।

वल्लतोल नारायण मेनन का विवाह


तेईस वर्ष की उम्र में उनकी शादी हो गई।

वल्लतोल नारायण मेनन की साहित्य


इसके बाद वह अपना गांव छोड़कर त्रिशूर चले गए। जहां उन्होंने एक छापेखाने का काम संभाल लिया, यहीं से साहित्य के क्षेत्र में उनका प्रवेश हुआ। बहुत-सी साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएं छपने लगी तभी उन्होंने वाल्मीकि रामायण का मलयालम में अनुवाद किया इससे केरल में वाल्मीकि रामायण का तो प्रचार हुआ ही, वल्लतोल भी कवि के रूप में प्रसिद्ध हो गए।

वल्लतोल नारायण मेनन का सुन न पाना


बत्तीस वर्ष की उम्र में ही उनके जीवन में एक बड़ी दुर्घटना हो गई, उनकी श्रवण शक्ति सदा के लिए जाती रही। उसके बाद से लोगों की बात सुनने के लिए उन्हें अपने एक मित्र की सहायता लेनी पड़ी थी। लोग जो बात कहते, उनका मित्र उसका सार अपनी अंगुली से वल्लतोल की हथेली पर लिख देता। पर इसी दुखद घटना को लेकर वल्लतोल ने एक प्रसिद्ध कविता की रचना की। “बधिर विलापम्” अर्थात् बहरे मनुष्य का विलाप। लेकिन इस दुर्घटना के बावजूद उनकी साहित्य सेवा में कोई कमी नहीं आई । उन्होंने पुराणों का मलयालम में अनुवाद किया, चित्रयोगम् नामक एक महाकाव्य की रचना की और बहुत सी खंड कविताएं लिखी जैसे बंधनस्थानय अनिरुद्धम्’ (अर्थात बंधा हुआ अनिरुद्ध)। उनकी कृतियों में संस्कृत और शुद्ध मलयालम का बड़ा सुंदर मेल दीख पड़ता है।

एक खास बात यह है कि यद्यपि वल्लतोल का बचपन संस्कृत विद्वानों के साथ बीता परंतु उन्होंने पश्चिम की कविता की शैली को भी बड़ी जल्दी अपना लिया। इसी के फलस्वरूप उन्होंने, “मगदलना मरियम” जैसी उच्च्चकोटि की रचना की। इसमें मेरी नामक एक वेश्या की कहानी है। जिसने ईसा मसीह के सामने पश्चाताप किया और हजरत ईसा ने उसे माफ कर दिया। उस समय तक वल्लतोल का दृष्टिकोण इतना अधिक परिपक्व हो चुका था, कि वह दुनिया के किसी भी भाग के किसी भी प्रसंग को लेकर काव्य रच डालते थे और उसमें अपूर्व सौंदर्य पैदा कर देते थे ।

वल्लतोल नारायण मेनन की कविताए


शुरू में वल्लतोल ने शास्त्रीय ढंग की कविता की, फिर रोमांटिक ढंग की, और उसके बाद यथार्थवादी ढंग की कविताएं करने लगे । उनकी कुछ कविताओं के शीर्षक हैं “एक फटा तकिया”, “मुर्गा”, “तुलसी”, “चील”, “किसान का जीवन” आदि। “अल्याहित” में तिलक के त्याग का वर्णन है। “माफी” कविता में रेलवे स्टेशन पर एक कुली की मृत्यु का वर्णन है। “न खाना न कपड़ा” में उन्होंने ग्राम सुधार और किसानों की उन्नति के लिए आवाज उठाई।

वल्लतोल नारायण मेनन और स्वाधीनता संग्राम


भारत के स्वाधीनता संग्राम से भला वल्लतोल जैसा महान कवि कैसे अछूता रह सकता था। उन्होंने जो देशभक्ति पूर्ण कविताएं लिखी और जिन शब्दों में युवको का आह्वान किया, उससे केरल के युवकों में एक नई चेतना पैदा हुई। सभी जगह उनकी कविताओं की गूंज सुनाई देने लगी। जल्दी ही वह एक राष्ट्रकवि के रूप में प्रसिद्ध हो गए। परंतु वल्लतोल ने केवल राष्ट्रीय कविताओं की ही रचना नहीं की, बाद के वर्षों में उन्होंने नात्सीवाद और साम्राज्यवाद की भी डटकर आलोचना कीं।

वल्लतोल नारायण मेनन के गुरू


वल्लतोल गांधीजी को अपना गुरु मानते थे, गांधींजी पर उनकी कविता बहुत ही प्रसिद्ध हुई। इसकी कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं :-

“समस्त विश्व उनका घर है, झाड़ियां बूटियां और कीड़े तक उनके घर के सदस्य हैं; त्याग ही उनकी प्राप्ति है; नम्रता ही उनकी ऊंचाई हैं; ऐसे हैं मेरे देवता, विश्व के सबसे बुद्धिमान व्यक्ति ।“ वह कहते थे कि गांधीजी ने शस्त्र के बिना धर्मयुद्ध किया, ग्रंथ के बिना पढ़ाया, औषधि के बिना चिकित्सा की, हिंसा के बिना यज्ञ किया।

वल्लतोल की एक बहुत बड़ी विशेषता यह है कि वह समय के साथ चले। उनकी सहानुभूति अपने लोगों, अपने राज्य या देश तक ही सीमित नहीं थी, समस्त विश्व को वह अपना मानते थे। हर सौंदर्यमयी वस्तु से उन्हें प्यार था। उन्होंने अपनी जन्मभूमि केरल और उसकी कला को लेकर लिखा, अपनी मातृभूमि भारत की महान परंपराओं के गुण गाए और विश्व में शांति और न्याय की स्थापना का आह्वान किया।

वल्लतोल के काव्य की सबसे बड़ी विशेषता है उसका सौंदर्य । उन्होंने मलयालम और संस्कृत के शब्दों का इतना सुंदर प्रयोग किया है कि पढ़ते ही बनता है। उनके काव्य में इतना रस है कि मूल पढ़े बिना उसका पूरी तरह आनंद नहीं उठाया जा सकता।

वास्तव में मलयालम काव्य को समृद्ध बनाने में उनका योगदान कम नहीं है। युवक कवियो को भी उन्होंने खूब प्रोत्साहन दिया।

उन्होंने यूरोप, रूस और चीन की यात्रा की। सब जगह उन्होंने कत्थकली नृत्य का प्रचार किया और शांति सम्मेलनों में भाग लिया | हर जगह वह लोगों के श्रद्धा और आदर के पात्र बने। उनमें भारत के प्राचीन संतों की बुद्धिमता और न्याय के आधुनिक समाजवादी विचारों का अद्भुत सम्मिश्रण था।

वल्लतोल नारायण मेनन का व्यक्तित्व


दुबले-पतले पर कद के लंबे वल्लतोल का व्यक्तित्व बड़ा प्रभावशाली और दबंग था । वह कवि के अधिकारों के बारे में गांधीजी से बड़े अधिकारपूर्वक बात कर सकते थे, वह पं. नेहरू और डा. राजेंद्र प्रसाद से इस तरह गले मिलते थे मानों वे दोनों उनके प्रशंसक हों। वल्लतोल जानते थे समाज में कवि का क्या स्थान होना चाहिए, इसलिए उन्होंने कवि की गरिमा को सदैव बनाए रखा। इसी कारण देश-विदेश के बड़े-बड़े आदमी उनका सम्मान करते थे।

बहुत बड़े कवि होने के साथ-साथ वल्लतोल मलयालम गद्य के भी प्रसिद्ध लेखक थे। “ग्रंथविहार” उनके आलोचनात्मक निबंधों का अत्यंत रोचक संग्रह है । उनकी भाषण शैली इतनी अच्छी थी कि सुनने वालों के दिल पर सीधा असर डालती थी। एक आलोचक के रूप में भी वह प्रसिद्ध थे। साहित्यिक क्षेत्र में अपने आलोचकों को करारा उत्तर देने में वह कभी नहीं हिचकते थे। परंतु उनकी आलोचना में द्वेश नहीं था । व्यंग्य और हास्य का पुट भी उनकी रचनाओं में बिखरा हुआ था। यहां तक कि अपने बहरेपन पर लिखी गई “बधिर विलापम्“ नामक कविता में वह अपने ऊपर कटाक्ष करने से भी नहीं चूके |

वल्लतोल नारायण मेनन की मृत्यु


वल्लतोल इतने कर्मठ थे कि ७५ वर्ष की उम्र में उन्होंने ऋग्वेद का अनुवाद पूर्ण किया। उस समय तक वह ७९ मौलिक साहित्यिक रचनाएं लिख चुके थे । उनकी यह कर्मठता मृत्यु ही दूर कर सकी। १३ मार्च १९५८ को वह हमसे सदा के लिए विदा हो गए।

वल्लतोल को केवल मलयालम और संस्कृत भाषाएं ही आती थीं उन्होंने अधिकांशतया मलयालम में ही लिखा। मलयालम भाषा केरल के केवल डेढ़ करोड़ लोग ही बोलते हैं। परंतु उन्होंने मलयालम में इतना सुंदर लिखा है कि न केवल भारतीय भाषाओं में बल्कि कई विदेशी भाषाओं में भी उनकी रचनाओं के अनुवाद छपे हैं। यही वल्लतोल की महानता का परिचायक है।

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