धन्वंतरि त्रयोदशी | धन्वंतरि आराधना । धनतेरस का महत्त्व | Dhanvantari Trayodashi | Dhanvantari Sadhana | Dhanteras Ka Mahatva
देवराज इंद्र अपनी प्रिया शची के साथ ऐरावत हाथी पर सवार होकर वन विहार के लिए निकले थे, तभी मार्ग में महर्षि दुर्वासा उन्हें दिखाई दे गये। देवराज ने बड़े आदर से महर्षि को प्रणाम किया। महर्षि ने आशीर्वाद के रूप में उन्हें एक पारिजात का फूल दिया।
देवराज वन की शोभा और शची के सौंदर्य में खोए हुए थे। उन्होंने ऋषि दुर्वासा के दिये हुए दुर्लभ पारिजात का महत्व नहीं समझा, उन्होंने वह फूल ऐरावत के मस्तक पर रख दिया और शची की सुंदरता में खो गये । पारिजात का स्पर्श पाकर ऐरावत का स्वभाव एकदम बदल गया। वह पागल की तरह घने वन की ओर भागने लगा। इंद्र अपनी सुरक्षा के लिए शची समेत ऐरावत की पीठ से कूदकर धरती पर खड़े हो गये, पारिजात के फूल ने ऐरावत के स्वभाव में ऐसा बदलाव किया कि वह अपने स्वामी के अनुशासन से स्वतंत्र हो गया।
घने वन में दुर्वासा ने ऐरावत के माथे पर वह दुर्लभ पारिजात का फूल देखा तो क्रोध से अंगार बन गये। वे क्रोध से कांपते कदमों से वापस लौटे । उनकी आंखों से क्रोध की ज्वालामुखी फूट रही थी। उन्होंने इंद्र को देखते ही कहा – “अहंकारी इंद्र मैंने तुझे देवताओं का स्वामी समझकर वह दुर्लभ पारिजात पुष्प दिया था। तुझे इस भेंट का आदर करना नहीं आया, वह दिव्य पुष्प भगवान कृष्ण के कंठ में शोभित माला का अंश था । यदि तू उस दुर्लभ प्रसाद को मस्तक से लगाता तो तुझे असुरों पर विजय प्राप्त होती, अभागा है। तुझे विपत्तियां झेलनी हैं, इसलिए तू अहंकारी हो गया है । मेरे शाप से तू श्री हीन हो जाएगा। असुरों की सेना स्वर्ग पर अधिकार कर लेगी और तू अपने प्राणों की रक्षा के लिए तीनों लोक में भटकता फिरेगा ।“
क्रोधी दुर्वासा का श्राप अमिट था। अगले ही क्षण देवराज इंद्र तेजहीन हो गये। कुछ ही दिनों में असुरों की विशाल सेना ने इंद्रपुरी को घेर लिया। श्रीहीन इंद्र और तेजहीन देवता असुरों का सामना नहीं कर पाये। वे युद्ध में हारकर अपने प्राण बचाने के लिए भाग खड़े हुए। देवताओं का भाग्य सूर्य अस्त हो गया। तब पितामह ब्रह्मा, विश्वम्भर विष्णु और भोले शंकर की प्रेरणा से समुद्र मंथन की योजना बनाई गयी, असुरों को पराजित करने के लिए अमृत कलश की जरूरत थी। अमृत पीकर देवताओं को अमरत्व का वरदान मिल सकता था और अमर हो जाने वाले देवता ही बलशाली असुरों को पराजित कर सकते थे। देवताओं ने बड़ी चतुराई से समुद्र मंथन में असुरों का सहयोग लिया |
लंबे समय तक बड़े परिश्रम से समूद्र मंथन करने के बाद देवताओं के वैद्य भगवान धन्वंतरि ने अपने कर कमलों में अमृत कलश लेकर प्रकट हुए। भगवान धन्वंतरि कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी को समूद्र से प्रकट हुए थे। इसलिए उनके प्रकट होने का उत्सव धन्वंतरि त्रयोदशी के रूप में मनाया जाता है। आम लोग इस पर्व को धनतेरस के नाम से जानते हैं।
धन्वंतरि अराधना और रोग मुक्ति
भगवान धन्वंतरि के साथ ही मृत्युलोक में आयुर्वेद का चिकित्सा शास्त्र आया। यह शास्त्र वेदों के अंग के रूप में स्वीकार किया गया | आयुर्वेद आयु का विज्ञान है, वह रोगों की सिर्फ चिकित्सा ही नहीं करता, बल्कि ऐसे जीवन की कला सिखाता है। जिसमें सभी लोग कम से कम सौ वर्ष तक स्वस्थ होकर जी सकें। सौ वर्ष की आयु तक सिर्फ किसी-न-किसी तरह तक जिंदा रहना ही काफी नहीं है। हर व्यक्ति को सौ वर्ष तक, इस तरह जीवित रहना चाहिए कि उसके शरीर की सभी इंद्रियां ठीक तरह से काम करती रहें । वेद मंत्रों में कहा गया है – हम सौ वर्ष तक जिये, सौ वर्ष तक अपनी आंखों से अच्छी तरह देख सकें, हम सौ वर्ष तक ठीक तरह से चल सकें और बोल सकें, हम सौ वर्ष तक अदीन रहें, यानी किसी तरह से किसी के मोहताज बनकर न रहें ।
भगवान धन्वंतरि की कथा
धन्वंतरि की महानता के बारे में अनेक पौराणिक आख्यान हैं। राजा परीक्षित को तक्षक नाग काट लेगा, यह समाचार भगवान धन्वंतरि को भी मिल गया था। वे विष विद्या के जानकार थे। किसी भी जहर का प्रभाव नष्ट करने में सक्षम थे। वे चाहते तो अपनी चिकित्सा से परीक्षित का जहर उतार सकते थे । धन्वंतरि परीक्षित के महल की ओर चले तो घने वन में तक्षक ने उनका रास्ता रोक लिया।
तक्षक ने कहा – “भगवान, क्या आप सचमुच मेरे विष का प्रभाव नष्ट कर सकते हैं। आप तो जानते हैं, मैं महानाग हुं । मैं जिस प्राणी को डंस लूं उसके प्राण तीनों लोक में कोई बचा नहीं सकता”
भगवान धन्वंतरि हंसकर बोले – “नागराज पहले तुम अपने विष के प्रभाव की परीक्षा कर लो, तब हम इस बारे में बात करेंगे | “
तक्षक ने उनकी चुनौती स्वीकार कर ली। उसने सामने खड़े एक विशाल हरे-भरे वृक्ष को डंस लिया। कुछ ही देर में वह वृक्ष सूखकर काले रंग का काठ बन गया। कुछ देर पहले जिस वृक्ष के हरे पत्ते हवा में डोल रहे थे, वह कोयले का एक विशाल तना बनकर रह गया ।
भगवान धन्वंतरि तक्षक के विष का प्रभाव देखकर हंस पड़े । उन्होंने अपनी थैली से विष दूर करने वाली औषधि निकालकर उसका लेप वृक्ष के तने पर लगा दिया। कुछ ही देर में उस वृक्ष का तना हरा हो गया | देखते-देखते समूचा वृक्ष हरियाली से लहलहाने लगा ।
तक्षक भगवान धन्वंतरि का यह चमत्कार देखकर परेशान हो गया वह बोला – “प्रभु मैंने मान लिया कि आपके हाथों में अमृत है । आप महाराज परीक्षित के पास पहुंच गये तो मेरा विष उनके प्राण नहीं ले पाएगा। लेकिन मेरा निवेदन सुनकर आपको अपना कार्यक्रम तय करना चाहिए।“
भगवान धन्वंतरि फिर हंस पड़े। वे बोले – “नागराज तुम्हारा काम राजा परीक्षित को काटना है और मेरा धर्म उनके शरीर का विष उतारना है हम दोनों अपना-अपना कार्य कर सकते हैं। “
तक्षक ने कहा – “भगवान पहले आप मेरे एक प्रश्न का उत्तर दीजिए।“
“जो पूछना है पूछ लो। “
“प्रभु आप चिकित्सक हैं या आयु के स्वामी हैं। “
” मैं केवल चिकित्सक हूं। मैं आयु का स्वामी नहीं हूं। आयु का स्वामी तो स्वयं विधाता है। वही महाकाल के रूप में सभी प्राणियों का प्राण हरण करते हैं। उनके सामने किसी विद्या, शास्त्रत् या कला का प्रभाव नहीं चलता। प्रभु महाराज परीक्षित एक धर्मात्मा शासक हैं। मैं उन्हें डंसकर प्रसन्न नहीं हो सकता। उन्हें एक तपस्वी मुनि ने श्राप दिया है। मैं मुनि का वचन सत्य करने जा रहा हूं। आप स्वयं निर्णय करें कि भाग्य के इस लेख को मिटाना आपके लिए कहां तक उचित है।“
भगवान धन्वंतरि संशय में पड़ गये वे सोचते रह गये लेकिन तक्षक को कोई जवाब नहीं दे पाये।
कलयुग का प्रारंभ
तक्षक ने फिर कहा, “प्रभु आप तो जानते हैं कि युग बदलने वाला है। भगवान कृष्ण के देह त्याग के बाद द्वापर की सीमा समाप्त हो चुकी है, कलियुग अपना पैर पसारने के लिए स्थान की तलाश कर रहा है ।
यह कलियुग स्वयं महाराज परीक्षित के पास गया था, तो महाराज ने उसे रहने की अनुमति दी थी। अनुमति पाकर वह महाराज के स्वर्ण मुकुट में जा छिपा । यही मुकुट धारण कर महाराज वन में गये, इसी के प्रभाव से उन्होंने एक तपस्वी ऋषि को ढोगी मानकर उसका अपमान किया। अब उस अपमान का प्रायश्चित उन्हें अपने प्राण देकर करना है। यही विधि का विधान है । आप कलियुग के आगमन को रोक तो नहीं सकते। आप स्वयं देवता हैं। आपको देवताओं के नियम का विरोध नहीं करना चाहिए। काल का नियम टालना किसी चिकित्सक की मर्यादा को शोभा नहीं देता ।
चिकित्सा शास्त्र का जनक
तक्षक के तर्क से भगवान धन्वंतरि को निरुत्तर हो जाना पड़ा। उन्होंने राजा परीक्षित के पास जाने का विचार बदल दिया। भगवान धन्वंतरि मृत्यु लोक के लिए दीर्घ जीवन और स्वास्थ्य का वरदान लेकर आये थे। उनके विज्ञान को ॠषियों ने सीखा और उसके आधार पर चिकित्सा शास्त्र का विस्तार किया। महर्षि भरद्वाज को इस विज्ञान का सबसे बड़ा पंडित माना जाता है। आगे चलकर चरक और सुश्रुत जैसे अनेक विद्वाना ने इस शास्त्र का बड़े पैमाने पर विकास किया।
पुराने जमाने के वैद्यों में जो बहुत गुणी और सफल होता था, उसे समाज धन्वंतरि कहकर उसका सम्मान करता था। काशी राज्य में दिवोदास नाम के एक राजा थे। उन्हें भी धन्वंतरि कहा जाता था। उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य की राजसभा में नौ रत्न थे। इनमें भी धन्वंतरि का नाम आता है। धन्वंतरि सम्राट विक्रमादित्य के राजवैद्य थे, सम्राट विक्रमादित्य ने मध्य एशिया से आने वाले आक्रमणकारी शासकों से वर्षों तक भयानक युद्ध किया था । इस युद्ध में हजारों सैनिक घायल होते थे। इन घायलों की चिकित्सा करना धन्वंतरि के जिम्मे था। सैनिकों के घावों का इलाज करने से शल्य शास्त्र (सर्जरी) का विकास हुआ।