पूंजीवादी समाज क्या है | What is Capitalist Society

capitalist society

पूंजीवादी समाज क्या है | what is capitalist society

मार्क्स (Karl Marx) के जीवन का बढ़ा भाग पूंजीवाद (capitalism) के अध्ययन में बीता था । उन्होंने उत्पादन (Production) के उस ढंग का अध्ययन किया था, जो ब्रिटेन में सामन्तवाद (feudalism) की जगह लेने में सफल हो चुका था और पिछली शताब्दी में सारे संसार में अपने को कायम कर रहा था। उनके अध्ययन का उद्देश्य पूंजीवादी समाज की “गति के नियम “( rules of speed) का पता लगाना था ।

पूंजीवाद (capitalism) हमेशा से क़ायम नहीं था, वह धीरे-धीरे बढ़ा था। मार्क्स (Karl Marx) के समय भी पूंजीवाद का वही रूप नहीं था, जो ब्रिटेन में अठारहवीं शताब्दी के पिछले भाग में,औद्योगिक क्रान्ति के समय था। अतः मार्क्स (Karl Marx) के सामने यह समस्या नहीं थी कि वह अपने समय के पूंजीवादी उत्पादन (capitalist production)का वर्णन करें, बल्कि समस्या यह थी की उसका ऐसा विश्लेषण करें जिससे पता चले कि पूंजीवाद किस दिशा में और क्यों बदल रहा है। यह एक नया दृष्टिकोण था । आर्थिक सवालों पर लिखने वाले दूसरे लेखक पूंजीवाद को उसी रूप में लेते थे जो उनको सामने दिखाई पड़ता था और उसका वर्णन इस ढंग से करते थे, मानो वह कोई शास्वत, अपरिवर्तनशील व्यवस्था हो । परन्तु मार्क्स की दृष्टि में, इतिहास की दूसरी व्यवस्थाओं की तरह उत्पादन की यह व्यवस्था भी बराबर बदल रही थी। अतएव, मार्क्स (Karl Marx) के अध्ययन से जो चीज निकली उसमें वर्णन मात्र ही नहीं था, बल्कि एक वैज्ञानिक भविष्यवाणी भी थी, क्योंकि वह यह देखने में समर्थ हुए थे कि वास्तव में पूंजीवाद (capitalism) किस प्रकार विकसित हो रहा है ।

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पूंजीवादी उत्पादन(capitalist production), सामन्ती काल (feudal period) के व्यक्तिगत उत्पादन से पैदा हुआ था । उत्पादन के विशेष सामन्ती ढंग में वस्तुएँ प्रायः स्थानीय उपयोग के लिये ही तैयार होती थीं | अर्ध-गुलाम किसान अपने लिये और अपने सामन्ती मालिक के लिये अनाज, कपड़ा और दूसरी वस्तुएँ पैदा करते थे । जब चीजें ज्यादा तैयार होने लगीं अर्थात जब जन-समूह विशेष की आवश्यकताओं से अधिक उत्पादन होने लगा, तब बची हुई अतिरिक्त पैदावार को दूसरे देशों से या उसी देश के दूसरे हिस्सों से लायी गयी चीजों के बदले में बेचा जाने लगा ।

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इस ढंग के उत्पादन की जगह पर मुनाफ़े के लिये होने वाला उत्पादन उसी समय धीरे-धीरे शुरू हुआ, जब सामन्ती इकाइयाँ टुटने लगी । मुनाफ़े के लिये पैदावार का होना ही पूंजीवाद (capitalism) की आवश्यक निशानी है। मुनाफ़े के लिये पैदावार करने के मुख्यत: दो चीजें जरूरी थीं | किसी के पास इतने साधन हों कि वह उत्पादन के यंत्रों को (कातने व बुनने की मशीनों आदि को) खरीद सके और दूसरे, कुछ ऐसे लोग हों जिनके पास अपने कोई उत्पादन के यंत्र या ऐसे साधन न हों जिनसे वे अपनी जीविका कमा सकें । दूसरे शब्दों में, एक तो “पूंजीपति” हों जिसके पास साधन हों और दूसरे मजदूर हों, जिनके पास जीविका का एकमात्र साधन पुंजीपतियों की मशीनों पर काम करना ही रह गया हो ।

मुनाफ़ा क्या है । What is Profit


मजदूर अब सीधे अपने लिये या अपने नये “मालिक” पूंजीपति के निजी इस्तेमाल के लिये चीजें तैयार नहीं करते थे । अब वे इसलिये चीजे तैयार करते थे, ताकि पूंजीपति उन्हें बेच कर रुपया पैदा कर सकें । इस प्रकार उन वस्तुओं को बनायी गयी चीजों को “माल” (Goods) कहा जाता है । जो बाजार में बेचने के लिये पैदा की गयी हों। अब मज़दूर को मजदूरी मिलती थी, और मालिक को मुनाफ़ा। इस्तेमाल करनेवाला माल के दाम देता था। पूंजीपति उसमें से मजदूरी, कच्चे माल के दाम, और उत्पादन के दूसरे खर्चे चुकाता था। जो कुछ बचता था, वह उसका मुनाफ़ा (Profit) होता था।

यह मुनाफ़ा कहाँ से आता था ? मार्क्स ने बताया कि मुनाफ़े का कारण यह नहीं हो सकता कि पूंजीपति अपने माल को उसके मूल्य से अधिक दामों में बेचता है; क्योंकि इसका मतलब तो यह होगा कि सभी पूंजीपति हमेशा एक दूसरे को धोखा देते रहते हैं । और जब, एक पूंजीपति इस तरह का मुनाफा कमाता है, तब दूसरे को जरूरी तौर पर घाटा होता है । मुनाफा और नुकसान का हिसाब बराबर हो जाता है और सभी पूंजीपतियों को मिला कर होने वाले आम मुनाफ़े के मद में कुछ भी नहीं बचता। इससें नतीजा निकला कि बाजार में किसी चीज का जो मूल्य उठता है, उसी में मुनाफ़ा भी शामिल होना चाहिये। यानी मुनाफा पैदावार के दौरान में ही पैदा हो जाना चाहिये, न कि उसके बाद माल की बिक्री के समय । इसलिये मुनाफ़े के स्रोत का पता लगाने के लिये उत्पादन की क्रिया की खोजबीन करनी होगी और देखना होगा कि उत्पादन में कोई ऐसी चीज तो नहीं है जो अपनी लागत (अपने मूल्य) से अधिक मूल्य उसमें जोड़ देती हो । परन्तु इसके पहले यह पूछना पड़ेगा कि “मूल्य” का क्या मतलब है।

मूल्य का क्या अर्थ है । What is The Meaning of Value


साधारण भाषा में, मूल्य के दो बिल्कुल भिन्न अर्थ हो सकते हैं । एक तो उपयोग की दृष्टि से किसी चीज का कोई मूल्य हो सकता है । जैसे प्यासे के लिये पानी हो सकता है या अमुक आदमी के लिये अमुक चीज़ “भावनात्मक मूल्य”( sentimental value) हो सकता है । परन्तु, साधारण भाषा में एक और अर्थ भी है। उस अर्थ में हम मूल्य शब्द का प्रयोग उस समय करते हैं जब कोई चीज बाजार में बिकती है, या किसी बेचनेवाले के द्वारा किसी खरीदार को बेची जाती है । इसे इस चीज “विनिमय मूल्य”(change value) कहते हैं।

यह तो सही है कि पूंजीवादी व्यवस्था में भी यह सम्भव है कि कुछ विशेष चीजों को कुछ खास खरीदारों के लिये ही तैयार किया जाय और उनके विशेष दाम तय कर लिये जाये । परन्तु मार्क्स (Karl Marx) इस प्रकार की विशेष अवस्था पर नहीं, बल्कि आम पूंजीवादी उत्पादन (capitalist production)पर विचार कर रहे थे । उस व्यवस्था में हर तरह का करोड़ों मन सामान आम बाज़ार के लिये तैयार किया जाता है। वहाँ कोई भी खरीदार उसे खरीद सकता है । इसलिये, सवाल यह है कि बाजार में चीजों का सामान्य “विनिमय मूल्य” (change value) कैसे निश्चित होता है ? उदाहरण के लिये, एक गज़ कपड़े का विनिमय मूल्य एक पिन से ज्यादा क्यों होता है ?

विनिमय मूल्य (change value) रुपये से नापा जाता है। एक चीज कुछ रुपयों के “मूल्य” की होती है या उसके बराबर होती है । परन्तु वह कौन सी बात है जिसके कारण विभिन्न प्रकार की चीज़ों के मूल्यों की एक-दूसरे से तुलना की जा सकती है, चाहे रुपयों के द्वारा की जाती हो, चाहे सीधे उनकी अदला-बदली करके ? मार्क्स (Karl Marx) ने बताया कि विभिन्न चीजों की एक-दूसरे से तुलना उसी समय सम्भव है जब उन सब में कोई एक समान बात मौजूद हो। कुछ में वह बात कम होगी और कुछ में ज्यादा, और सिर्फ इसी तरह उनकी तुलना की जा सकेगी। स्पष्ट है कि सब चीजों में मौजूद रहने वाली ऐसी बात वजन या उनका कोई और शारीरिक गुण नहीं हो सकता। इससे भी काम नहीं सकता कि जीवन के लिये किस चीज का कितना “उपयोग मूल्य” (use value) है । अर्थात आवश्यक खाद्य पदार्थों का मोटरों से कहीं कम विनिमय मूल्य होता है।

केवल एक ही बात जो सभी तरह की पैदावार में समान रूप से पायी जाती है वह यह कि सभी चीजें इन्सान की मेहनत से पैदा होती हैं। यदि किसी चीज को पैदा करने सें ज्यादा मेहनत लगती है तो उसका विनिमय मूल्य भी ज्यादा होता है । विनिमय मूल्य इस बात से निश्चित होता है कि किसी चीज पर कितनी मेहनत लगी है, या कितना “श्रम-काल” (labor time) उसके उत्पादन में लगा है ।

परन्तु, जाहिर है, इसका मतलब हरेक व्यक्ति की अलग-अलग मेहनत से नहीं है। जब चीजें आम बाजार में बेची और खरीदी जाती हैं, तब अलग-अलग चीजों के रूप में उनके विनिमय मूल्य नहीं रहते, बल्कि एक औसत निकल आता है ।

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