रतन नाथ धर सरशार | Ratan Nath Dhar Sarshar

रतन नाथ धर सरशार | Ratan Nath Dhar Sarshar

भारतवर्ष के संविधान में जिन भाषाओं को मान्यता प्रदान की गई है | उर्दू भाषा भी उनमे से एक है | उर्दू भाषा का जन्म लश्कर और छावनी की भाषा के रूप में हुआ। उर्दू शब्द तुर्की भाषा का है जिसका अर्थ है “शिविर”। मुसलमानों के भारत में आने के साथ-साथ यह शब्द यहां आया।

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लश्कर और छावनियों के लोग तुर्की, फारसी और हिंदी खड़ी बोली को मिलाकर बोलते थे। यही भाषा उर्दू भाषा के नाम से प्रचलित हुई और उसमें साहित्य भी लिखा जाने लगा। आधुनिक उर्दू साहित्य में रतननाथ “सरशार” का विशिष्ट स्थान है। रतननाथ “सरशार” का व्यक्तित्व भुलाया नहीं जा सकता। उनका नाम याद आने के साथ ही उनके भीमकाय ग्रंथ “फ़साना-ए-आज़ाद” की याद आती है।

रतन नाथ धर सरशार का जन्म


रतननाथ का उपनाम “सरशार” था। वह बैजनाथ दर कश्मीरी के पुत्र थे। बैजनाथ दर अपने व्यापार के सिलसिले में कश्मीर छोड़कर लखनऊ आ बसे थे, वह नगर के सम्मानित एवं प्रतिष्ठित व्यक्तियों में से थे । लखनऊ में ही सरशार का १८४६ में जन्म हुआ था। रतननाथ अभी चार वर्ष के ही थे, कि उनके पिता बैजनाथ दर का देहांत हो गया। उनकी माता ने उनके पालन-पोषण तथा शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था की।

बचपने में रतननाथ सरशार के पडोस में कुछ मुसलमान लोग रहते थे। रतननाथ प्रायः इन मुसलमानों के घर खेलने जाया करते थे। सरशार की बुद्धि बडी तीव्र थी, सरशार ने इस संगति से अच्छे-अच्छे और नए-नए उर्दू-शब्दों का खूब ज्ञान अर्जित किया | जो भविष्य में उनके बहुत काम आया।

रतन नाथ धर सरशार की शिक्षा


सरशार जब बड़े हुए तो उन्हें पढ़ने के लिए भेज दिया गया। उस जमाने में अरबी और फारसी शिक्षा का रिवाज था, किंतु बाद में ज्यों-ज्यों देश में अंग्रेजी राज्य की नींव पक्की होती गई, वैसे-वैसे अंग्रेज़ी भाषा के अध्ययन की ओर भी ध्यान दिया जाने लगा। अंग्रेज़ी की शिक्षा के लिए एक कॉलेज को स्थापना की गई, जिसका नाम केनिंग कॉलेज था। सरशार ने भी पहले उर्दू के अतिरिक्त अरबी और फारसी का विशेष रूप से अध्ययन किया और बाद में अंग्रेजी पढ़ने के लिए इस कॉलेज में दाखिल हुए। उन्होंने अंग्रेजी का खूब ज्ञान अर्जित किया, किंतु वह कोई डिग्री प्राप्त कर सकने से पहले ही कॉलेज छोड़ गए।

रतन नाथ धर सरशार की साहित्य सेवा


सरशार ने आरंभ में अध्यापन कार्य को जीविकोपार्जन के लिए चुना और उत्तर प्रदेश में जिला खीरी के एक स्कूल में अध्यापक नियुक्त हो गए। पर सरशार शीघ्र ही स्कूल की नौकरी छोड़कर साहित्य के क्षेत्र में आ गए। उन्होंने साहित्य सेवा का आरंभ अनुवाद से किया और अनुवाद करने की अपनी योग्यता का सिक्का पूर्ण रूप से जमाया | सरशार अनुवाद भी करते थे और साथ-साथ लेख तथा उपन्यास भी लिखा करते थे। उनके लेख कश्मीरी पंडितों की पत्रिका “मरासला-ए-कश्मीर” में प्रकाशित हुआ करते थे। उनका सर्वप्रथम लेख प्रकाशित करने का श्रेय भी इसी पत्रिका को प्राप्त हुआ।

उन दिनों साहित्यकार प्रायः आर्थिक कठिनाइयों में घिरे रहते थे। सरशार की आर्थिक परिस्थितियां भी अपने युग के अन्य साहित्यकारों से भिन्न न थी। उस समय के प्रसिद्ध प्रकाशक मुंशी नवल किशोर, इनके अनुवाद की सिद्धहस्तता तथा लेखन शक्ति से परिचित हो चुके थे, अत: उन्होंने लखनऊ से प्रकाशित होने वाले अपने दैनिक पत्र “अवध” के संपादन कार्य के लिए इन्हें आमंत्रित किया। मित्रों के आग्रह तथा अच्छे वेतन को देखते हुए सरशार ने १८७८ में इस ओहदे का भार संभाल लिया। सरशार की उर्दू साहित्य को जो अद्वितीय देन है, उसका आरंभ यही से हुआ।

खीरी से नौकरी छोड़ आने के पश्चात सरशार सुबह-शाम लखनऊ के प्रसिद्ध साहित्यकारों की संगति में रहा करते थे। इन साहित्यकारों में एक से बढ़ कर एक कुशाग्र बुद्धि और हाजिरजवाब उपस्थित होते और हंसी-मजाक के अतिरिक्त साहित्य पर भी बातें हुआ करती थीं।

एक दिन यहीं स्पेनिश लेखक सर्वेटीज की हास्य कृति “डान क्विक्जोट” की चर्चा भी हुई। सरशार के दिल पर इस कृति के हंसोड़पन का विशेष प्रभाव पड़ा और उन्होंने यह सोचा कि उर्दू साहित्य में अवश्य एक ऐसी रचना रची जानी चाहिए, जिससे डान व्विक्जोट की तुलना की जा सके। इसे उद्देश्य को सम्मुख रख कर उन्होंने उर्दू के लेख लिखने आरंभ किए और “अवध” पत्रिका में जिसका संपादन वह करते थे, ये तराफत शीर्षक से प्रकाशित किए जाने लगे। आरंभ में लोगों का ध्यान आकर्षित करना था इसलिए इन लेखों का विषय प्रायः लखनऊ के रीति-रिवाजों से संबंधित हुआ करता था, जिसमें लोग इन्हें शौक से पढ़ें। कभी मुहर्रम पर लेख छप गया तो कभी चहारुम अथवा ऐश बाग के मेल पर। इस प्रकार के लेखों का क्रम जनता को खूब भाया। इन लेखों का अच्छा आदर किया गया और यह क्रम बनाए रखने का आग्रह भी सरशार से अनेक अवसरों पर किया गया।

फलस्वरूप सरशार ने विभिन्न लेखों को गूंथकर फंसाने का क्रम आरंभ किया। उर्दू साहित्य का यह अद्वितीय रत्न लगभग एक वर्ष पश्चात १८७९ में पूर्ण हो गया और अगले ही वर्ष ३२५० पृष्ठों का यह ग्रंथ चार खंडों में छप कर पुस्तक के रूप में प्रकाश में आ गया।

फसाना-ए-आज़ाद


फसाना-ए-आज़ाद का कथानक अत्यंत संक्षिप्त और सरल है, किंतु इतने छोटे से कथानक को बहुत अधिक विस्तार देकर फैला देना, सरशार जैसे कुशल लेखक का ही कार्य था। इस कथा का एक पात्र मियां खोजी उर्दू साहित्य में मशहूर है। प्रेमचंद ने फसाने का संक्षेप हिंदी में आज़ादकथा नाम से किया है। एक अच्छे गद्यकार और मंजे हुए अनुवादक होने के साथ-साथ सरशार एक अच्छे कवि भी थे।

मुंशी जफर अली असीर उनके काव्य-गुरु थे। उनके हृदय में अपने गुरु के प्रति बहुत आदर और प्रेम था। जिस प्रकार गद्य के क्षेत्र में सरशार ने अपना रंग जमा दिया था, उसी प्रकार उन्होंने पद्य के क्षेत्र में भी अपनी धाक जमाई। वह प्रायः कवि सम्मेलनों में जाते और अपना सिक्का जमाने में कभी न चूकते।

रतननाथ सरशार धार्मिक कट्टरता के भी विरोधी थे। हिंदू-मुसलमान दोनों उनके लिए बराबर थे। उन्होंने दोनों से प्यार किया और बदले में दोनों से ही प्यार पाया। उन्होंने एक मसनवी लिखी है, जिसमें उन्होंने धार्मिक आडंबरों का खुलकर विरोध किया है और समाज के झूठे ठेकेदारों का खूब मजाक उड़ाया है। मसनवी एक प्रकार के उर्दू पद्य को कहते हैं, जिसमें कोई कहानी या उपदेश एक ही वृत्त में होता है और हर शेर के दोनों मिसरे सानुप्रास होते हैं। रतननाथ सरशार की मसनवी तो मानो हास्य और व्यंग्य का एक पिटारा है। पाठक इसे पढ़ते समय हंसी से लोट-पोट हो जाते हैं।

सरशार बचपन से ही बड़े हाजिर जवाब और हंसमुख थे | हंसी-मजाक और अध्ययन मानो आपकी हाबी-सी थी। मित्रों को तंग करने में उनको बड़ा आनंद आता था | उनकी ऐसी हाजिर जवाबी और दिल्लगी की बातों के कारण उनके मित्र उन्हें बहुत पसंद किया करते थे और उन्हें खुश रखने के लिए खिलाया-पिलाया भी करते थे। एक बार जब सरशार इलाहाबाद हाईकोर्ट में नौकरी करते थे उनके वेतन में कुछ वृद्धि हुई। मित्रों ने सोचा, आज उनको फांसा जाए और बोले – मियां रोज़-रोज़ दूसरों के यहां दावत उड़ाते हो, आज पकड़े गए। अच्छा मौका है, मित्रों को वेतन बढ़ने की खुशी में दावत दे डालो। सरशार झट से बोल उठे – मुझे इसमें क्या आपत्ति हो सकती है। दिन तय कर लिया गया। दावत से एक दिन पूर्व एक मित्र के पास पहुंचे और बोले- मित्र पार्टी का सारा प्रबंध कर लिया है, कल समय से कुछ पूर्व आ जाना और आते हुए अपने सामने की दुकान से कबाब लेते आना। उसके बने हुए कबाब का जवाब नहीं, बहुत अच्छा बनाता है। इसी प्रकार एक के बाद एक करके वह आठ मित्रों के पास गए और एक-एक वस्तु उनके जिम्मे डाल आए और स्वयं निश्चित होकर बैठ गए। दूसरे दिन दोस्त लोग सामान लिए आ पहुंचे। सबने मिलकर खाया और सरशार की चालाकी की दाद भी दी।

सरशार की स्मरण शक्ति बड़ी तीव्र थी। इसके साथ ही उनमें आत्मविश्वास भी बहुत था। जिस व्यक्ति को आत्मविश्वास होता है, वह व्यक्ति कभी असफल नहीं होता। सरशार ने जो कुछ लिखा उसे पत्थर पर खींची हुई लकीर के समान समझा। न उसमें से कोई शब्द कभी काटा और न ही कभी उस पर फिर से विचार करने का कष्ट किया।

रतन नाथ धर सरशार की मृत्यु


सरशार बड़े स्वतंत्र प्रवृत्ति के व्यक्ति थे, किसी का दबाव सहना उन्होंने कभी सीखा न था। इसीलिए वह एक स्थान पर टिक कर नौकरी न कर सके। नौकरी के चक्कर में वह १८९५ में हैदराबाद पहुंच गए। वहां उनको हिंदू, मुसलमान, अमीर-गरीब सबने बड़ा आदर दिया। वहां के नवाब को उर्दू कविता का बड़ा शौक था, वह सरशार से बहुत प्रभावित भी थे | उनके हैदराबाद आ जाने पर उन्होंने सरशार को अपना गुरु बना लिया और दो सो रुपये प्रतिमाह देना निश्चित कर दिया। यहां उनकी तबीयत लगातार खराब रहने लगी। हल्का-हल्का दुखार बराबर बना रहता। पाचन शक्ति भी कमजोर हो गई और आखिर २१ जनवरी, १९०३ को उर्दू का यह महान उपन्यासकार, संपादक, पत्रकार और कवि स्वर्ग सिंधार गया। हैदराबाद में ही उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया।

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