स्वामी रामतीर्थ की जीवनी | Swami Ramtirth

स्वामी रामतीर्थ की जीवनी | Swami Ramtirth

स्वामी रामतीर्थ हमारे देश के एक महान संत, देशभक्त, कवि और शिक्षक थे। उन्होंने अपने आध्यात्मिक और क्रांतिकारी विचारों से भारतवासियों को ही नहीं, बल्कि अमेरिका और जापान के लोगों को भी अत्यंत प्रभावित किया और संसार में भारत का नाम ऊंचा किया।

Swami%2BRamteerth

स्वामी रामतीर्थ का जन्म


स्वामी रामतीर्थ का जन्म २२ अक्तूबर १८७३ को पाकिस्तान के जिला गुजरांवाला के एक गांव मुरारीवाला में हुआ। उनका नाम तीर्थराम रखा गया। उनके पिता गोस्वामी हीरानंद की आर्थिक दशा अच्छी न थी और वह पुरोहिताई करके गुजारा करते थे।

रामतीर्थ के दादा गोस्वामी रामलाल ज्योतिष-विद्या के अच्छे जानकार थे। पोते के जन्म पर उन्होंने स्वयं उसकी जन्मपत्री तैयार की। कहते हैं कि जन्मपत्री बनाने के बाद वह पहले रो पड़े और फिर हंसने लगे। जब उनसे रोने और हंसने का कारण पूछा गया तो उन्होंने बताया कि मै इसलिए रोया था क्योंकि यह बालक बहुत शीघ्र ही मर जाएगा। यदि इसकी मृत्यु न हुई तो इसकी माता का देहात हो जाएगा। हसा इस कारण था कि यदि यह बालक बच गया तो इस संसार में बहुत यश एवं प्रसिद्धि प्राप्त होगी। यह दोनों बातें सच निकलीं। जब तीर्थराम की उम्र एक वर्ष के करीब थी, तो उनकी माता की मृत्यु हो गई और बाद में उन्हें विश्व प्रसिद्धि भी प्राप्त हुई।

स्वामी रामतीर्थ की शिक्षा


जब वह छः वर्ष के हुए तो उन्हें गांव के प्रारंभिक स्कूल में दाखिल किया गया | पढ़ाई में वह बहुत तेज थे और उन्हें उर्दू एवं फारसी के बहुत से कवियों की रचनाएं कंठस्थ थीं। स्कूल की अंतिम परीक्षा में वह प्रथम आए और उन्हें वज़ीफा मिला।

दस वर्ष की उम्र में ही उनका विवाह कर दिया गया और इसके पश्चात उनके पिता ने उन्हें हाईस्कूल में शिक्षा प्राप्त करने के लिए गुजरांवाला शहर में अपने मित्र धन्ना भक्त के पास भेज दिया, जोकि बहुत ही सादे और भले व्यक्ति थे ।

धन्ना भक्त की देखरेख में उन्होंने लगभग पांच वर्ष बिताए और वह उनकी सादगी और ऊंचे विचारों से बहुत प्रभावित हुए। शायद यह कहना गलत न होगा कि धन्ना भक्त की संगति से ही उनमें आध्यात्मिकता में रुचि पैदा हुई और वह धार्मिक पुस्तकों का अध्ययन करने लगे। पंद्रह वर्ष से भी कम उम्र में उन्होंने हाईस्कूल की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की। आगे पढ़ाई के लिए वह लाहौर जाना चाहते थे, किंतु उनके पिता इसके विरुद्ध थे। एक तो उनकी आर्थिक दशा ऐसी नहीं थी कि अपने पुत्र को लाहौर जैसे बड़े शहर में शिक्षा के लिए भेज सकते, दूसरे उन दिनों हाईस्कूल की परीक्षा बहुत बड़ी समझी जाती थी। किंतु तीर्थराम ने इन कठिनाइयों के बावजूद हिम्मत न हारी और घर वालों के विरोध की परवाह न करते हुए १८८८ में लाहौर के मिशन कालेज में दाखिला ले लिया।

लाहौर में उन्होंने एक रुपया मासिक पर एक छोटी सी तंग कोठरी किराये पर ली। उन दिनों उनकी आर्थिक स्थिति इतनी दयनीय थी कि पेट भर खाना-पीना तो दरकिनार, उन्हें पढ़ाई के लिए रात को दीपक जलाना भी नसीब न होता था और वह बाहर सड़क की बत्ती के प्रकाश में ही पढ़ा करते थे। कुछ समय पश्चात् उन्हें गुजरांवाला जिला बोर्ड की ओर से आठ रुपया मासिक वज़ीफा मिलने लगा, जिससे उनकी आर्थिक दशा में कुछ सुधार हुआ। किंतु फिर भी उन्हें पेट भर खाना कभी नसीब नहीं हुआ। कठोर परिश्रम और आर्थिक कठिनाइयों के परिणामस्वरूप उनका स्वास्थ्य दिन प्रतिदिन गिरता गया । यहां तक कि इंटर की परीक्षा के दिनों में वह इतने कमजोर हो गए कि उन्हें परीक्षा देना भी कठिन लगने लगा । किंतु शिक्षकों के उत्साहित करने पर उन्होंने परीक्षा दी और विशेष योग्यता प्राप्त की, जिससे उन्हें विश्वविद्यालय की ओर से बी.ए. में छात्रवृत्ति मिलने लगी।

छात्रवृत्ति पाने पर भी उनकी आर्थिक दशा में सुधार नहीं हुआ, बल्कि उनकी कठिनाइयां और बढ़ गई। पिता ने आर्थिक सहायता देने के बजाय संबंध तोड़ लेने की धमकी दी और इस पर भी जब उन्होंने बी.ए. में दाखिला ले लिया तो उनके पिता उनकी पत्नी को भी उनके पास छोड़ गए, जिससे उन्हें बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ा। किंतु इस पर भी उन्होंने साहस न छोड़ा और कठिनाइयों और कष्टों का मुकाबला करते रहे।

बी.ए. कक्षा के आरंभिक दिनों में उन्होंने अनुमान लगाया कि जरूरी खर्चे करने के बाद उनके पास भोजन के लिए केवल तीन पैसे बचते हैं। इसलिए उन्होंने तीन पैसे में ही गुजारा करना शुरू कर दिया। वह दो पैसे की रोटियां सुबह और एक पेसे की शाम को होटल से ले आते। कुछ दिनों तक इस तरह वह काम चलाते रहे, मगर बाद में होटल वाले ने रोटियों के साथ मुफ्त दाल देने से इंकार कर दिया। इस पर वह कई महीनों तक दिन में एक ही बार पैसे की रोटियां और एक पैसे की दाल लेकर अपना गुजारा चलाते रहे।

वह अपने कालेज के बहुत ही होनहार और प्रतिभाशाली छात्र थे, इसलिए जब एक बार गणित के अध्यापक बीमार पड़ गए तो वह उनके स्थान पर अपनी कक्षा के छात्रों को गणित पढ़ाते रहे। अध्यापकों को उनसे बड़ी आशाएं थीं, किंतु जब बी.ए. का परिणाम निकला तो वह फेल निकले, यद्यपि प्राप्त अंकों के जोड़ के अनुसार वह सर्वप्रथम थे, बात यह थी कि वह अंग्रेजी में कुछ अंकों से रह गए थे।

बी.ए. में असफल होने पर उन पर कठिनाइयों का पहाड़ टूट पड़ा क्योंकि विश्वविद्यालय से मिलने वाली छात्रवृत्ति बंद हो गई। इन दिनों उन्हें कई दिन भूखा भी रहना पड़ा। तभी उनके कालेज की कैंटीन के हलवाई झंडूमल को उनकी दयनीय स्थिति का हाल मालूम हुआ तो उसने उनके खाने-पीने की ही व्यवस्था नहीं की बल्कि रहने का भी अपने यहां प्रबंध कर दिया।

कालेज के प्रिंसिपल और एक प्रोफेसर गिलबर्टसन ने भी उनकी आर्थिक सहायता की जिससे उन्होंने दोबारा कालेज में दाखिला ले लिया। इस वर्ष उन्होंने पहले से भी अधिक परिश्रम किया और वह पूरे विश्वविद्यालय में सर्वप्रथम रहे। इस परीक्षा की एक उल्लेखनीय बात यह थी कि गणित के १३ प्रश्नों में से केवल ८ प्रश्न करने थे, किंतु उन्होंने १३ के १३ प्रश्न हल किए और नीचे नोट लिखा कि १३ में से कोई 8 प्रश्न देखिए ।

बी.ए. करने के पश्चात् वह मिशन कालेज छोड़कर गवर्नमेंट कालेज में एम.ए. में दाखिल हुए। इन्हीं दिनों मिशन कालेज के गणित के प्रोफेसर एक वर्ष की छुट्टी पर इंग्लैंड चले गए और उनके स्थान पर उन्हें नियुक्त कर दिया गया । वह वहां अवैतनिक कार्य करते रहे। उन दिनों वह अपने मिशन कालेज में अध्यापक थे और गवर्नमेंट कालेज में एम.ए. के छात्र।

सन् १८९५ में तीर्थराम ने प्रथम श्रेणी में एम.ए. की परीक्षा पास की और फिर कुछ समय तक पंजाब के कालेजों में पढ़ाते रहे। लाहौर में रहते हुए आध्यात्मिकता में उनकी रुचि और अधिक बढ़ गई । लाहौर में ही उनकी भेंट स्वामी विवेकानंद, दादाभाई नौरोजी और द्वारिका मठ के शंकराचार्य श्री माधवतीर्थ से हुई और इन तीनों से वह बहुत प्रभावित हुए, शायद स्वामी विवेकानंद से ही उन्हें घर छोड़कर साधु बनकर अलख जगाने की प्रेरणा मिली।

स्वामी रामतीर्थ द्वारा अलिफ का प्रकाशन


सन् १९०० में उन्होंने लाहौर से ही एक मासिक पत्रिका “अलिफ” प्रकाशित करनी शुरू की, जिसमें वेदांत और अध्यात्मवाद के बारे में लेख और कविताएं होती थी। किंतु यह पत्रिका ज्यादा समय तक न निकली और कुछ अंकों के पश्चात् इसका प्रकाशन बंद हो गया। उनका वेदान्त व्यावहारिक था, जो मनुष्य मात्र को एकता एवं प्रेम का पाठ पढ़ाकर शांति और आनंद की ओर ले जाता था।

तीर्थराम से स्वामी रामतीर्थ बनाना


अब रामतीर्थ का मन संसार से उचाट हो गया और वह इधर-उधर घूमने लगे। कश्मीर यात्रा उन्होंने बिना पैसे और एक धोती में की। फिर जब उत्तराखंड की यात्रा पर गए, तो वह कोई छः महीने तक टेहरी में गंगा के तट पर रहकर स्वाध्याय करते रहे और अंत में जब वहां से लौटे तो वह तीर्थराम नहीं बल्कि स्वामी रामतीर्थ बन चुके थे। अपने को वह “राम बादशाह” कहने लगे। इसके पश्चात् उन्होंने स्थान-स्थान पर वेदांत और आध्यात्मिकता पर भाषण दिए और जनता मंत्र-मुग्ध हो उठी। कहते हैं मथुरा में अपने पहले सार्वजनिक भाषण के बीच में जब वह एकाएक जंगलों की ओर चल पड़े, तो उनके भाषण से मस्त लोग दीवानों की भांति उनके पीछे चल पड़े।

स्वामी रामतीर्थ की जापान यात्रा


अगस्त १९०२ में स्वामीजी ने सुना कि जापान में विश्व धर्म सम्मेलन हो रहा है। वह इसमें सम्मिलित होने के लिए जापान की राजधानी टोकियो पहुंचे, किंतु वहां पहुंचकर उन्हें मालूम हुआ कि वहां इस प्रकार का कोई सम्मेलन नहीं हो रहा था। इस पर मस्ती के आवेश में उन्होंने तत्क्षण कहा, “कोई बात नहीं, राम स्वयं ही एक संपूर्ण सम्मेलन है।”

वह कोई दो सप्ताह तक जापान में रहे और उन्होंने कई स्थानों पर भाषण दिए, जनता उनके भाषण सुनने और दर्शन के लिए उमड़ पड़ी।

स्वामी रामतीर्थ की अमेरिका यात्रा


जापान से वह समुद्री जहाज द्वारा अमेरिका के लिए रवाना हुए, जब वह सेंट फ्रांसिस्को पहुंचे, तो उनके पास कोई सामान न था। इसलिए वह बड़ी शांति तथा बेपरवाही से इधर-उधर घूमने लगे, हालांकि जहाज के सभी यात्री अपने सामान के साथ जल्दी-जल्दी उतर रहे थे।

स्वामीजी को ऐसी अवस्था में बेपरवाही से घूमते देखकर एक अमेरिकन ने पूछा, “आपका सामान कहां हैं?”

स्वामीजी ने हंसते हुए जवाब दिया, “राम कुछ सामान नहीं रखते ।” इस पर उसने पूछा, “सामान नहीं तो आप अपना रुपया कहां रखते हैं?”

इस पर उन्होंने उत्तर दिया, “रुपये तो मैं छूता भी नहीं”

अमेरिकन ने हैरान होकर कहा, “तो क्या आपका इस देश में कोई मित्र है?”

स्वामीजी ने तुरंत उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, “जी हां। इस देश में मेरे एक मित्र हैं और वह आप हैं।”

स्वामीजी की बातों और व्यक्तित्व से वह अमेरिकन इतना प्रभावित हुआ, कि वह सदा के लिए उनका श्रद्धालु भक्त एवं शिष्य बन गया और बाद में उसी ने उनके रहन-सहन का प्रबंध किया।

अमेरिका में उन्होंने कई गिरजाघरों, सामाजिक और राजनैतिक संस्थाओं तथा विश्वविद्यालयों में भाषण दिए। उनके भाषणों से लोगों को बहुत शांति मिली और वे उनके दर्शन करने और भाषण सुनने के लिए टूट पड़े। थोड़े समय में ही सारे अमेरिका में उनकी ख्याति फैल गई।

एक दिन उनके पास एक ऐसी महिला आई, जिसके पुत्र की कुछ दिनों पूर्व ही मृत्यु हो गई थी। वह महिला बहुत दुखी थी और शांति और सुख की खोज में थी, उसने स्वामीजी से कहा, “मैं बहुत दुखी हूं और हर मूल्य पर सुख खरीदना चाहती हूं।“

स्वामीजी ने कहा, “खुशी पैसों से नहीं खरीदी जा सकती। हा यदि – “

“यदि क्या-?” महिला ने पूछा, “बताइए में हर कीमत पर शांति प्राप्त करना चाहती हू”

“तो तुम किसी नीग्रो बच्चे को घर ले जाओ और उसे अपने बच्चे की तरह पालो ।”

“यह तो बहुत कठिन काम है।” महिला ने उत्तर दिया।

“तो तुम्हारे लिए मन की शांति प्राप्त करना भी कठिन है।”

अंत में स्वामीजी की बात मानकर उसने एक नीग्रो बच्चे को गोद ले लिया और कुछ ही दिनों में उसे महसूस हुआ कि उसे मानसिक शांति प्राप्त हो गई है और उस नीग्रो बच्चे से ममता हो जाने के कारण वह बहुत प्रसन्न रहने लगी है।

इस तरह उन्होंने एक दुखी महिला को शांति और सुख ही प्रदान नहीं किया बल्कि जातीय भेदभाव को भी समाप्त करने का प्रयत्न किया।

एक बार अमेरिकी राष्ट्रपति उनकी कटिया के पास से गुजर रहे थे और जब उन्हे पता चला कि वहां एक प्रसिद्ध भारतीय संन्यासी रहते हैं तो वह उनसे मिलने कुटिया में गए।

स्वामीजी ने उन्हें अपनी पुस्तक “अमेरिकावासियों के नाम भारतीयों की अपील” भेंट की जिसमें भारत में अंग्रेजों के शासन की कठोरतम शब्दों में निंदा की गई थी। उन्होंने अमेरिकन राष्ट्रपति से भारत की राजनीति, आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति पर भी बातचीत की।

अमेरिका से लौटते समय वह पश्चिमी समुद्र के मार्ग से भारत लौटे। पोर्ट सईद में संयोगवश उन्हें उसी समुद्री जहाज में सीट मिली जिसमें बैठकर लार्ड कर्जन भारत के वायसराय का पद ग्रहण करने भारत जा रहे थे । स्वामीजी को जब यह पता चला तो उन्होंने उस जहाज पर यात्रा करने से इंकार कर दिया, क्योंकि वह अपने को “राम बादशाह” समझते थे । उन्होंने कहा, “एक जहाज में दो बादशाह यात्रा नहीं कर सकते ।”

स्वामी रामतीर्थ की देशभक्ति


रामतीर्थ महात्मा और संत होने के अतिरिक्त एक बहुत बड़े देशभक्त भी थे । वह अपने देश को अंग्रेजों की दासता से मुक्त देखना चाहते थे। अमेरिका से वापस आने पर उनकी यह इच्छा और भी प्रबल हो उठी। उन्हें हर समय भारत को स्वतंत्र कराने की चिंता रहती थी। वह हमेशा देश की स्वतंत्रता के ही स्वप्न देखते थे । वह कहते थे कि राष्ट्र कल्याण का कोई भी कार्य करना देवकार्य करना है।

स्वामी रामतीर्थ की महासमाधि


स्वामीजी अंतिम दिनों में टेहरी में गंगा के तट पर ठहरे हुए थे। उन्हें स्नान और कसरत का बड़ा शौक था। एक दिन वह नहाने गए तो एक ऊंचे कगार से गंगा में कूदे और उनके घुटने पर चोट लग गई। इस पर भी उन्होंने स्नान ओर व्यायाम का प्रोग्राम बंद न किया। इस घटना के कुछ दिनो पश्चात् १७ अक्तूबर १९०६ को दीवाली के दिन जब वह प्रातःकाल स्नान के लिए गंगा में घुसे तो एकदम उनका पांव फिसल गया और वह गहरे पानी में जा गिरे। घुटने की चोट और शारीरिक निर्बलता के कारण वह बाहर न निकल सके और सदा के लिए गंगा की गोद में समा गए।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *