अघोरी कैसे बनते हैं | अघोरी का इतिहास | अघोरी की ताकत | Aghori Secrets

अघोरी का इतिहास

प्रसिद्ध लेखक अरूण कुमार शर्मा द्वारा लिखित

अघोरी का इतिहास : अघोरियों की सिद्धियों और उनके चमत्कारों के संबंध में आपने अनेक लेख पढ़े  होगे मगर कभी यह भी सोचा है कि उनके पास कैसे इस प्रकार की चमत्कारपूर्ण सिद्धियाँ आ जाती हैं, जिनके बल पर वे अलौकिक कार्य कर दिखलाते हैं । तांत्रिक साधना का एक सशक्त पक्ष परामनोविज्ञान पर आधारित है । उस पक्ष के अंतर्गत कई साधना और संप्रदाय हैं, जिनमें एक है अघोर संप्रदाय । ‘घोर’ शब्द का मतलब ‘संसार’ है । ‘अ’ नकारात्मक है, यानी जो संसारी नहीं है वह अघोरी है । इसी अघोरी शब्द का बिगड़ा रूप औघड़ है ।

यह अति प्राचीन संप्रदाय है । मगर इससे भली-भाँति लोग परिचित हुए बाबा कीनाराम के समय से । गोस्वामी तुलसीदास के समकालीन बाबा कीनाराम अघोर संप्रदाय के उच्चकोटि के सिद्ध महात्मा और संत थे, जिनकी समाधि वाराणसी के शिवाला मुहल्ले में आज भी दर्शनीय है । शरीर, संसार, समाज की मर्यादा के बंधनों के कारण मन में जड़ता आ जाती है । इस जड़ता को दूर करने के लिए मन का स्वतंत्र होना जरूरी है । इस संप्रदाय में मल-मूत्र का सेवन, अन्य नशीली वस्तुओं का प्रयोग, नग्न विचरण, गाली-गलौज आदि इस दिशा में प्रयास है । इन सबसे मन की वृत्तियाँ उन्मुक्त होने लगती हैं और मन की जड़ता दूर हो जाती है ।

मन की दो मुख्य अवस्थाएँ हैं  – प्रथम है चेतन, दूसरी अचेतन । अचेतन मन में अविश्वसनीय और अकल्पनीय शक्तियाँ विद्यमान रहती हैं । वे शक्तियाँ जब अचेतन मन की सीमा लाँघकर चेतन मन में प्रकट होती हैं, तो उनके चमत्कारभरे कौतुक साधारण लोगों को हतप्रभ कर देते हैं । साधारण तौर पर जीवित मनुष्य चेतन मन करता है, किन्तु मरने के बाद जब शरीर का बंधन टूट जाता है तो उस स्थिति में वह अचेतन मन की अवस्था में क्रियाशील हो उठता है । इसीलिए प्रेतात्माओं में अधिक शक्ति, सामर्थ्य और कार्यक्षमता होती है । अगर किसी जीवित मनुष्य के अचेतन से मनुष्य मन से इस प्रकार की किसी प्रेतात्मा का स्थाई संबंध जुड़ जाए तो वह मनुष्य चेतन मन के स्थान पर अचेतन मन के द्वारा कार्य करने लग जाएगा और वह जो कार्य करेगा, वह हतप्रभ करने वाला, अलौकिक होगा, चमत्कारपूर्ण होगा । इसी को हम साधारण रूप से सिद्धि के नाम से पुकारते हैं ।

अघोर साधना और उसकी जैसी अन्य तांत्रिक साधनाओं के सिद्धांतों को विज्ञान के मूलभूत तथ्यों से बहुत बल मिलता है । चेतन मन के विचार तरंगों को केंद्रित कर जिस अवस्था की प्राप्ति होती है, उसी को साधना में ज्ञान की संज्ञा दी गयी है ।

अचेतन मन की विचार तरंगों को केंद्रित करने पर जिस अवस्था की प्राप्ति होती है उसको योग में सर्विकल्प समाधि कहते हैं । इसी प्रकार उसके दूसरे रूप के अंतर्गत उठने वाली विचार तरंगों को केंद्रित करने पर साधक को जिस स्थिति का अनुभव होता है, उसे योग में निर्विकल्प समाधि कहते हैं ।

निर्विकल्प समाधि की स्थिति में केन्द्रित हुई विचार तरंगें अल्फा तरंगों का रूप धारण कर लेती हैं । उस समय अधिक मात्रा में मस्तिष्क से वे निकलती है और उनकी गति भी अधिक तीव्र होती है । किन्तु सर्विकल्प समाधि की स्थिति में उनकी मात्रा और गति शून्य होती है । उस समय व्यक्ति से प्रचुर मात्रा में बीटा, अल्फा और डेल्टा नामक तरंगें निकलती हैं । यदि ये तीनों तरंगें आपस में मिल जायें तो शरीर को पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति प्रभावित नहीं कर पातीं ।

कुछ वर्ष पूर्व वाराणसी में नगवा घाट पर एक ऐसे ही अघोरी साधक रहते थे । रात्रि में शून्यमार्ग से वे विचरण किया करते थे । एब्रीला की संत टैरेसा जब अपनी उपासना के समय ध्यानावस्थित होती थीं तो कभी-कभी धरती के ऊपर उठ जाती थीं । शक्ति कभी-कभी प्रकृति की ओर से भी उपहार रूप में लोगों को मिली हैं । १८५२ में मैसाच्युसेट्स के बार नामक स्थान पर श्रीमती चेनसी का शरीर अचानक धीरे-धीरे ऊपर उठकर फर्श और छत के बीच अधर में लटक गया था ।  इस प्रकार हवा में उड़ने की शक्ति डॉ० डी० होम नामक एक व्यक्ति में थी । १८६८ ई० में लंदन में एक विशेष समारोह में वे हाल के फर्श से उठकर अचानक छत से जा लगे और खिड़की से निकलकर उड़ते हुए तीसरी मंजिल में पहुँच गये थे । सर्विकल्प समाधि की अवस्था में यदि अल्फा तरंगों का संबंध केवल बीटा तरंग से जुड़ जाए तो हजारों मील दूर बैठे व्यक्ति के विचारों और इच्छाओं का तुरन्त ज्ञान प्राप्त हो सकता है ।

अभी कुछ समय पहले इसी प्रकार के एक अघोरी महात्मा मानसरोवर से पधारे थे । वे दूर और समीप के व्यक्तियों के विचार, भाव-इच्छाओं को तुरन्त जान-समझ लेते थे ।  यही नहीं तीन-चार घण्टे बाद कौन विचार उत्पन्न होगा ? कौन से भाव उत्पन्न होंगे ? और कौन-सी इच्छा जागृत होगी ? यह भी बतला दिया करते थे । वास्तव में जो बतला देते थे वही होता था । इसी प्रकार यदि प्रखर और तीव्रगामी अल्फा तरंगों के साथ डेल्टा तरंग मिल जाए तो दूर बैठे किसी भी व्यक्ति के विचारों को जानने-समझने के अलावा उसके स्वरूप का भी वर्णन करना संभव है ।

पूना के बल्लभ शास्त्री निर्विकार अपने समय के बहुत बड़े वैद्य थे । १९४९ में वाराणसी में काशीलाभ के लिए आए थे । उस समय उनकी आयु ९० वर्ष की थी । वे अपनी माता का एक चित्र बनवाना चाहते थे । मगर वे जिस प्रकार माता के रूप का वर्णन करते थे उसके अनुसार कोई भी चित्र नहीं बना पाया । बड़े ही दुःखी हुए । माता का कोई फोटोग्राफ भी नहीं था | जिसके आधार पर चित्र बनवाया जा सके |

उन्ही दिनो वाराणसी के प्रसिद्ध महात्मा हरिहर बाबा के निकट एक अघोरी संन्यासी पधारे थे । उनके नेत्रों में विचित्र प्रकार की प्रखर ज्योति थी, जो अँधेरे में भी चमकती थी । वे यदि जलते हुए दीपक की ओर ताक देते तो वह तुरंत बुझ जाता था । उन्हें जब निर्विकार महोदय की समस्या मालूम हुई तो उन्होंने उनको बुलवा भेजा । फिर अपने सामने आसन देकर बैठने को कहा । जब निर्विकार महोदय बैठ गये तो बोले, ‘आप अपनी माता जी के स्वरूप को विधिवत ध्यान में लाइये।’ निर्विकार महोदय ने वैसा ही किया ।

जब वे ध्यान करने लगे तो सन्यासी महोदय उनके हृदय पर नेत्र स्थिर कर सामने रखे कागज पर पेंसिल से स्वरूप को हू-ब-हू उतारने लगे । कुछ ही मिनटों में माता जी का रेखाचित्र तैयार हो गया । उस समय मैं भी वहाँ उपस्थित था । निर्विकार महोदय बहुत ही प्रसन्न हुए । वे अघोरी सन्यासी की कुछ सेवा करना चाहते थे, मगर उस साधक ने स्वीकार नहीं किया ।

अघोरी सन्यासियों द्वारा अपने मूत्र अथवा मल को इच्छानुसार खाद्य और पेय पदार्थों में परिवर्तन करना भी कम आश्चर्य की बात नहीं है । कुछ समय पूर्व एक अघोरी सन्यासी से मेरी भेंट हरिश्चन्द्र घाट के श्मशान पर हुई थी । वे घाट की सीढ़ियों पर बैठे आकाश की ओर शून्य में बराबर ताकते रहते थे । मैं जब भी उन्हें देखता था तो इसी मुद्रा में पाता था । वे अंग्रेज थे । द्वितीय महायुद्ध में वे महाशय फौज में उच्च पद पर थे । एक बार घमासान युद्ध हुआ । इनके तरफ के बहुत सारे जवान मारे गये । स्वयं वे भी घायल होकर युद्ध-भूमि में बेहोश पड़े रहे, दो दिन, दो रातें । उसी अवस्था में सहसा उनकी बेहोशी टूटी तो उन्होंने देखा, चारों ओर गहन निस्तब्धता व्याप्त है । चारों ओर बिखरी लाशें ही लाशें और उनके बीच में वे अकेले । किसी प्रकार उठकर बैठे तो देखते है, क्या हैं कि एक लम्बी औरत जिसके शरीर का रंग बिल्कुल काला था और बाल बिखरे हुए थे पूर्ण नग्न थी । उसके स्तन काफी लम्बे, बड़े-बड़े और नीचे की ओर झूल रहे थे । वह बगल में एक झोली-सी लटकाये हुए थी और उसके हाथ में एक बड़ा-सा खड्ग भी था । बड़ी ही इत्मीनान से लाशों के बीच घूम-घूमकर उनके चेहरों की ओर देख रही थी । कभी किसी लाश को उठाकर खड्ग से उसकी गर्दन काट देती और मुण्ड को झोली में रख लेती थी ।

बड़ा ही भयंकर और आश्चर्यजनक दृश्य था । मगर पहले उन्हें विश्वास नहीं हुआ, सोचा भ्रम है । वे बार-बार आँखों को मलकर उस औरत की ओर देखते रहे । सहसा वह लाशों को कुचलती हुई उनके पास आई और गौर से देखा उसने । भय से रोमांचित हो उठे वे । उस औरत की लाल अंगारों-सी दहकती आँखें उस निविड़ अंधकार में भी चमक रही थीं । सहसा एक भयंकर अट्टहास गूंज उठा उस निस्तब्ध वातावरण में । फिर वह औरत बाल पकड़कर उन्हे खीचती हुई बहुत दूर ले गयी ओर उसी अवस्था मे फिर वे बेहोश हो गये ।

इस बार जब उनकी बेहोशी टूटी तो उन्होंने अपने आपको हजारों मील दूर हिमालय की एक गुफा में पाया । वह गुफा एक अघोरी साधु की थी । कुछ दिनों तक वे उसी गुफा में रहे, फिर वाराणसी चले आये ।

उनके जीवन में अचानक भारी परिवर्तन हो गया । वे स्वयं उस परिवर्तन को नहीं समझ पाते थे । इस प्रश्न के उत्तर को भी न पा सके थे कि हजारों मील दूर हिमालय की उस गुफा में वे कैसे पहुँच गये थे ? एक विचित्र और अविश्वसनीय घटना थी जिसने उन्हें फौजी आफिसर से अघोरी संन्यासी बना दिया था और इतना ही नहीं, उनमें अलौकिक शक्ति भी भर दी थी । वे अपने मल-मूत्र को इच्छित खाद्य-पदार्थों में परिवर्तन कर दिया करते थे । फलों को हवा में हाथ हिलाकर प्राप्त कर लेना तो उनके लिए सरल था ।

एक बार मूसलाधार वर्षा हो रही थी । श्मशान पर लगी एक चिता वर्षा के कारण जल नहीं पा रही थी । वे महाशय अपने स्थान से उठे और जाकर चिता पर पेशाब करने लगे । लोगों को घोर आश्चर्य हुआ । पेशाब करते ही चिता धू-धू जलने लगी । ऐसा लगा मानो सेरों घी पड़ गया हो उसमें वर्षा के पश्चात् भी चिता से लंबी-लंबी लपटें निकल रही थीं ।

एक बार उन्होंने मुझे श्मशान में पड़े गुलाब का एक ताजा खिला हुआ फूल दिया, ‘बोले, रख लो अपने पास।’ वर्षों तक वह फूल मेरी आलमारी में पड़ा रहा । परन्तु न वह मुरझाया और न ही म्लान हुआ । बराबर खिला और महकता रहा ।

यह सब चमत्कार आप कैसे करते हैं ? यह पूछने पर उन्होंने मुझे बतलाया कि इस संबंध में वे कुछ जानते-समझते नहीं । वह केवल सोचते भर हैं कि ऐसा होना चाहिए और वह हो जाता है ।

साधारण मनुष्य में इच्छा तो होती है, मगर उसमें शक्ति नहीं होती एक इच्छा को पूर्ण करने के लिए उसे शारीरिक, मानसिक, व्यावहारिक, क्रियात्मक सभी प्रकार की शक्तियों का प्रयोग करना पड़ता है तब कहीं जाकर इच्छा पूर्ण होती है । मगर योगियों में ये सारी शक्तियाँ उनकी इच्छा के साथ-साथ उत्पन्न हो जाती हैं, जिसके फलस्वरूप तत्काल इच्छा के अनुसार परिणाम सामने आ जाता है । इच्छा और उसकी शक्ति दो अलग-अलग वस्तुएँ हैं । दोनों को संयुक्त करती हैं-अल्फा और बीटा तरंगें । किसी काम की इच्छा होती है । इच्छा के साथ-साथ मन में बीटा तरंगें उत्पन्न होने लगती हैं। यदि उस समय अल्फा तरंगें प्रवाहित होने लग जाएँ तो बीटा तरंगें उसमें घुल-मिलकर वे शक्तियाँ उत्पन्न करने लग जाती हैं, जिनके द्वारा इच्छा क्रियान्वित और साकार होती है ।

यह तो हुई यौगिक प्रक्रिया के वैज्ञानिक संस्करण की बात अघोरी सन्यासियों द्वारा कभी-कभार ऐसे अलौकिक चमत्कार भी देखने-सुनने में आते हैं जिनसे आश्चर्यचकित और हतप्रभ हो जाना पड़ता है । यह तो निश्चित है कि इस सृष्टि में चमत्कार नाम की कोई वस्तु नहीं है । सब कुछ प्रकृति के नियम के अनुसार होता है । हाँ, यह बात अवश्य है कि जब तक हम रहस्य से परिचित नहीं होते, तभी तक वह चमत्कार है ।

अघोरियो ओर तात्रिकॉ के चमत्कारपूर्ण असंभव से असंभव काम करने के पीछे जो शक्ति काम करती है, वह है प्रेत शक्ति । यह सत्य है कि सिद्ध अघोरी बाबा कीनाराम ने कई मुर्दों को जीवित किया था और आश्चर्यचकित कर देने वाली प्रेतलीला भी अपने शिष्यों को दिखलाई थी । किन्तु इस अविश्वसनीय सत्य को मैंने अपने जीवन में एक बार प्रत्यक्ष देखा था ।

उन दिनों में कलकत्ता में रहता था और हर शनिवार को साँझ के समय काली जी का दर्शन करने जाया करता था । एक प्रकार से यह मेरा नियम-सा बन गया था । काली घाट में महाश्मशान भी है । दर्शन करने के बाद थोड़ी देर के लिए वहाँ जाकर बैठता था । न जाने क्यों श्मशान में बैठ कर काफी देर तक जलती हुई चिता की ओर अपलक निहारा करता था ?

एक दिन ऐसे ही बैठा चिता की ओर देख रहा था कि सहसा मेरी दृष्टि एक फटे-पुराने चिथड़ों में लिपटे व्यक्ति पर पड़ी । उसका रंग काला था । सिर के बाल रूखे-सूखे जटाजूट जैसे थे । किन्तु था वह पागलों के जैसा । उसके एक हाथ में भाँति-भाँति की अधजली हड्डियाँ थीं और दूसरे हाथ में था कच्चे बाँस की लाठी । उसकी आँखों में अमानवीय ज्योति थी । जलती हुई चिताओं की ओर से घूमकर वह मेरे पास आकर खड़ा हो गया और पीले दाँतों को बाहर निकालकर बोला, ‘भूख लगी है बाबू ! कुछ खिलाओगे ?’

अकस्मात मेरे मुख से निकला, ‘क्या खाओगे बोलो, रसगुल्ला ?’ न जाने किस प्रेरणा के वशीभूत होकर तुरन्त बाजार जाकर एक हँड़िया रसगुल्ला ले आया और उसे थमा दिया । वह वहीं इत्मीनान से बैठकर रसगुल्ला खाने लगा । सब खा लेने के बाद उसी हँड़िया में भरकर पानी पिया और फिर उसमें श्मशान का कोयला भर दिया । बड़ा अजीब लगा मुझे । थोड़ी देर बाद वापस लौट आया मैं । घर पहुँचकर आश्चर्यचकित हो उठा । देखा, रसगुल्ले से भरी वही हँड़िया मेरी आलमारी के भीतर रखी हुई है । किसी प्रकार की शंका या भ्रम की गुंजाइश न थी । निश्चय ही वह कोई सिद्ध अघोरी था । समझने में देर न हुई ।

बाद में तीन शनिवार तक मुझसे उसकी भेंट न हुई । चौथे शनिवार को दर्शन करने के बाद वहाँ पहुँचा तो एक मुर्दे को घेरे हुए बहुत से लोग खड़े थे । मुर्दा किसी युवक का था । बिजली का मिस्त्री था वह । करेंट लगने से मृत्यु हुई थी उसकी । तीन बहनें, दो भाई और माता-पिता थे । केवल परिवार में वही कमाने वाला था । खाट के एक तरफ भाई-बहनें खड़े रो रहे थे । सिरहाने बैठकर माँ करुण स्वर में विलाप कर रही थी । बड़ा ही हृदय-विदारक दृश्य था । न जाने कब-किधर से वह पगला अघोरी भीड़ में घुस आया और जोर-जोर से चिल्लाकर कहने लगा – ओ ! जिन्दा आदमी को भला क्यों जलाने ले आये हो ?

क्या बकते हो ? भागो यहाँ से । किसी ने भीड़ में से कहा ।

भागूँ क्यों ? तेरे बाप का श्मशान है । फिर मुर्दा के सिरहाने जाकर खड़ा हो गया और उसकी गर्दन पकड़कर उठाने लगा ।

यह क्या लोगो की आखे आश्चर्य और भय से फैल गयी कुछ समय पहले जो  मुर्दा था और जिसको जलाने के लिए लाया गया था वह हाथ-पैर झटककर उठ बैठा । कुछ लोग तो यह दृश्य देखकर भाग खड़े हुए । जो लोग बचे थे वे पत्थर की तरह खड़े सब कुछ देखते रहे । तुरंत डॉक्टर बुलाया गया । उसने आकर जाँच की । वह आदमी सचमुच जीवित हो गया था । मगर उसके भीतर क्या रहस्य था ? मुझसे छिपा नहीं था । माँ का करुण विलाप सुना नहीं गया उस पागल अघोरी से । उसने अपने कौशल से श्मशान में भटकने वाली प्रेतात्माओं को मृत शरीर में प्रवेश करा दिया था ।

इस प्रकार की अनेक घटनाएँ हैं । पुनर्जीवित होना कोई आश्चर्य की बात नहीं । इस प्रसंग में यह बात अवश्य ध्यान देने योग्य है कि एक बार जो आत्मा शरीर छोड़कर चली जाती है तो पुनः उसी शरीर में प्रवेश नहीं कर सकती । शरीर के मृत हो जाने के काफी समय तक मस्तिष्क से अल्फा तरंगें निकलती रहती हैं । उन तरंगों से उत्पन्न विद्युत चुंबकीय ऊर्जाएँ आसपास भटकती प्रेतात्माओं को अपनी ओर आकर्षित करती हैं ।

पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण में निम्नकोटि से लेकर उच्चकोटि तक की विचरती आत्माओं के विचार तरंगों को आकर्षित करते ही हैं इसके अतिरिक्त यदि ग्रह-नक्षत्रों अथवा लोक-लोकांतरों में प्राणियों का अस्तित्व है तो उनके विचारों को भी आकर्षित करती है । औघड़ लोग इसी तथ्य के आधार पर आत्मा के संस्कार, सिद्धान्त, उनकी वासना, कामना, इच्छा आदि को जान-समझकर उनसे असंभव कार्य करा लेते हैं । इतना ही नहीं, पगले अघोरी की तरह किसी भी मृत शरीर में उन्हें प्रवेश करा देते हैं ।

उच्चकोटि के अघोरी साधक तो स्वयं अपना शरीर छोड़कर किसी भी मृत शरीर में प्रवेश कर जाते हैं किन्तु वे ऐसा तभी करते हैं जब उन्हें मृत होने का आभास मिल जाता है और उनकी साधना अपूर्ण रहती है । अतः अपनी साधना को पूर्ण करने के लिए अपने जर्जर शरीर का त्याग कर किसी अकाल मृत्यु को प्राप्त व्यक्ति की शेष आयुपर्यन्त जीवित रहते हैं । यह वास्तव में योग की परकाया प्रवेश है । किन्तु इसके जानकार उच्चकोटि के अघोरी संत ही होते हैं । साधारण अघोरियों के वश की यह बात नहीं है ।

इस प्रसंग में यह भी बतला दूँ कि तंत्र की सर्वोच्च साधना शव साधना भी इसी विद्या के अंतर्गत है । वास्तव में यह भयंकर साधना है । उच्चकोटि की आत्माओं से संपर्क साधकर उनसे प्रत्यक्ष वार्तालाप करने का तथा त्रिकाल की बातों का सर्वोच्च साधन है यह । बंगाल के प्रसिद्ध तांत्रिक राखालचन्द्र भट्टाचार्य ने मुझे शव साधना के गूढ़ गोपनीय रहस्यों से परिचित कराया था और उनके द्वारा बतलाई गयी गुप्त तांत्रिक क्रिया के अनुसार स्वयं मैंने शव साधना भी की थी । बड़ी भयंकर और प्राणघातक है यह साधना ।

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