इंद्रजाल – एक अनोखी कहानी | तांत्रिक की कहानी | भाग – 1 | Indrajal – A Unique Story | Story of Tantrik – Part 1

इंद्रजाल – एक अनोखी कहानी - तांत्रिक की कहानी

इंद्रजाल – एक अनोखी कहानी | तांत्रिक की कहानी | भाग – 1

कृपया ध्यान दे !!!!! इंद्रजाल – एक अनोखी कहानी | तांत्रिक की कहानी – डॉ. कैलाश नारद द्वारा लिखित आपबीती पर आधारित कहानी है |

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पहले आती थी भोई बाबा की मढ़िया, फिर हशमत खलीफा का आस्ताना और उसके ठीक बाद शुरू हो जाता था लोहे की विशाल शहतीरों वाले पुल का सिलसिला । कंपनी जमाने में, शायद सन् १८६७-६८ का दौर रहा होगा, कोई फर्ग्यूसन साहब थे नरसिंहपुर जिले में ।

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वहां के पी.डब्ल्यू.डी. मुहकमे के बड़े इंजीनियर, जिन्होंने हाथियों के काफिले के साथ वोराड़ नदी के उस बियावान का सर्वे किया था और जैतपुर कुंडाली के बीच बनने वाले उस पुल की नींव डाली थी । सुर्ख लाल रंग से पुता था वह पुल, लिहाजा फर्ग्यूसन साहब तो विंस्मृति के गर्त में खो गये थे, लेकिन अपनी लाल शहतीरों की वजह से बोराड़ पर बना वह सेतु लाल पुल कहलाने लगा था ।

वहीं से एक रास्ता ऊखरी-गोरखपुर होते हुए कंदेली तक चला गया था – साल और तेंदू के बड़े-बड़े दरख्तों की छांह में दुबका हुआ-सा ।

मेरे पत्रकार मित्र शारदा पाठक ने मुझे अपनी चिट्ठी में लिखा था उस जगह के बारे में । पिछले तीन सालों से दफ्तर से छुट्टी नहीं मिल रही थी । काम दबाव बहुत ज्यादा था । पिंडारियों पर लिखा जा रहा मेरा उपन्यास अधूरा पड़ा हुआ था । उसी दरमियान पाठकजी का पत्र मुझे मिला था । चिट्ठी में लिखा था, छुट्टियों में एक दफा तुम वहां जरूर जाओ । दिलकश जगह है । शांति मिलेगी । पाठकजी खुद वहां दो माह रह चुके थे ।

इसके पहले मैं कभी नरसिंहपुर नही गया था । ठगी दमन के महानायक विलियम स्लीमैन ने जरूर अपने ठग-विनाश प्रसंगों में नरसिंहपुर का जिक्र किया था, लेकिन जब मैं वहां गया, लगा, जिले का सदर मुकाम होने के बावजूद शहर छोटा सा है और निहायत सड़ा हुआ-सा । ढंग की एक सड़क भी नहीं थी । बस्ती में एक कप बढ़िया चाय को तरस जाइये, ऐसा नामुराद मुफस्सिल एरिया ।

लेकिन लालपुर जाने पर अच्छा लगा | जगह का चुनाव अच्छा हुआ है । इसका पता मुझे पहले दिन हीं चल गया । इतने एकांत और मनोरम स्थान मैंने कम ही देखे हैं । एकांत होने का एक दूसरा ही कारण है । वह अप्रैल का महीना था और अप्रैल सैलानियों के आने का महीना नहीं होता । मैं जिस होटल में आकर रुका था, वहां मेरे अतिरिक्त एक और भी सज्जन थे । वह वृद्ध, नाम ब्रजेन राय ।

डिप्टी कलेक्टर होकर उज्जैन से रिटायर हुए थे । वे होटल के पश्चिमी छोर के एक कमरे में टिके हुए थे । मैं पूर्वी छोर के एक-दूसरे कमरे में । होटल के बरामदे के ठीक नीचे से ही नदी का रेतीला विस्तार शुरू हो जाता था ।

दो-ढाई सौ गज तक रेत ही रेत, उसके बाद बोराड़ नदी की धूप में पिघले हुए सोने जैसी चमकती लहरें नजर आतीं । डेक-चेयर पर बैठा-बैठा मैं दरख्तों के बीच बहती नदी का नजारा लेता रहता और अपनी किताब लिखता रहता । शाम के वक्त दो-तीन घंटे के लिए काम करना बंद कर देता और रेत पर चहलकदमी करने के लिए निकल जाता ।

शुरू में दो दिन, मैं नदी के पश्चिमी किनारे की तरफ गया । तीसरे दिन झुरमुटों को पार करता हुआ, बोराड़ के पूर्वी तरफ जब गया, पता चला, वहां बस्ती है । बड़ा-सा गांव था वह, खपरैल और मिट्टी के घरों से भरा हुआ । तीन-चार दुमंजिले, पक्के मकान भी थे । रिटायर्ड डिप्टी कलेक्टर ब्रजेनराय भी मेरे साथ शाम की सैर पर रहते थे । उन्होंने बताया, “ये असाटियों की बस्ती है । लाल पुल में अधिकांश असाटी ही हैं।“

“असाटी…कौन असाटी… ” मैंने पूछा ।

उन घरों की दीवारें चपटी और छोटी-छोटी-सी थीं । उन्हीं की तरफ इशारा करते हुए ब्रजेन बाबू बोले, “होशंगशाह ने सागर नर्मदा घाटी पर जब हमला किया था, उसके रिसाले के आगे चलनेवाले झंडाबरदारों में अधिकांश हिंदू थे। सागर को फतहकर होशंगशाह तो वापस लौट गया, लेकिन वे हिंदू यहीं बोराड़ के आसपास ही बस गये । उनमें से अधिकांश बहादुर योद्धा थे । असाटी उन्हीं को कहा जाता है । आजकल वे लोग खेती-बारी करते हैं । कुछ ने व्यापार में अच्छा पैसा कमाया है ।

“लगता है, असाटियों के ऊपर आपने काफी अध्ययन किया है, ब्रजेन बाबू, ” – मैंने उनकी तरफ प्रशंसात्मक दृष्टि से देखते हुए कहा ।

“नौकरी के शुरुआती सालों में इसी इलाके में हुई ।“ – वे बोले, ” बतौर नायब तहसीलदार, मेरी नियुक्ति हुई थी । इनका समाज शास्त्रीय अध्ययन किया है मैंने । ये असाटी स्वभाव से शांत और मेहनती होते हैं, अपने काम से वास्ता रखनेवाले । तंत्र-मंत्र में इनकी गहरी दिलचस्पी होती है ।

आप इन्हें अंध-विश्वासी नहीं कह सकते हैं, डॉ० नारद ।”

इस बीच, एक उल्टी पड़ी नाव पर मुझे एक सज्जन बैठे नजर आये । वे अपने हाथों को छाती के पास रखकर अपलक नदी की तरफ देखते हुए बीड़ी का कश ले रहे थे । उम्र होगी कोई ६०-६५ वर्ष । दोहरा, थुलथुला शरीर था। सिर पर बाल कम थे । आंखों पर चश्मा । मैं ज्यों ही उनके पास पहुंचा । बोले, – “आप यहां नये-नये आये हैं? “

“हां दो दिन हुए, ” मैंने कहा ।

मुझे उनके जानकारी हासिल करने के तरीके पर ताज्जुब हो रहा था ।

“स्टैंडर्ड होटल में रुके हैं, न ?” उन्होंने पूछा ।

मैंने मुस्कराकर सिर हिलाया । कहा, “हां…आप भी यहीं रहते हैं ?”

“मैं यहीं रहता हूं, लालपुल में। ” वे बोले, “पिछले ४० सालों से यहीं पर हूं।” आपके ये दोस्त ब्रजेन राय मुझे बखूबी जानते हैं। “

मैंने ब्रजेन राय की तरफ देखा ।

“आप मधुसूदन हालदार हैं, ” ब्रजेन बाबू ने उन मोटे थुलथुल सज्जन से मेरा परिचय कराया, “मशहूर आदमी हैं, ” फिर उन्होंने उन्हें मेरे बारे में जानकारी दी ।

“आप करते क्या हैं, मधुसूदन बाबू?” मैंने सवाल किया ।

जवाब में हो…हो करके हंसे मधुसूदन हालदार । बोले, “चलिए, मेरे, घर पधारिये । वहीं एक-एक कप चाय पिएंगे । आपको पता लग जाएगा, मैं क्या करता हूं ।

वहां से करीब ५ मिनट का रास्ता था । लालपुल गांव से काफी हटकर था मधुसूदन हालदार का मकान । सौ-सवा-सौ साल पुराना इकमंजिला घर । दोनों तरफ बरामदा । बरामदे में रखे खूबसूरत फूलों के गमले । दरवाजों, खिड़कियों पर भी फूलदार कपड़े के ही पर्दे । देखने से ही लगता था, महाशय को फूलों से खासा लगाव था ।

कमरे की साज सज्जा सादी ही थी | एक कोने पर लकड़ी का तख्त रखा हुआ था | उस पर गद्दा और चादर | जमीन पर चटाई बिछी हुई थी | बीच मे लकड़ी की मेज थी – उसके इर्द-गिर्द दो कुर्सिया | दक्षिण की तरफ एक बड़ी सी तिपाई रखी थी | उस पर हिरण के दो सिंग और एक कटा हुआ सूखा पंजा रखा था | पंजे की खाल सिकुड़ गई थी | पांचों उंगलिया भी सुख-सी गई, प्रतीत हो रही थी |

“पंचानन…. पंचानन” – मधुसूदन हालदार ने आवाज दी |

कमरे का परदा हटाकर जो व्यक्ति भीतर आया वह दुबला-पतला और नाटा था ।

“तीन प्याला चाय में आओ ।“ वे बोले “पत्ती तेज डालना”

फिर हमारी तरफ मुखातिब होकर वे बोले – मैं कड़क चाय पीता हूँ । खास दार्जिलिंग की चाय है । उसकी खुशबू और स्वाद में आपको फर्क करना मुश्किल हो जाएगा ।

और मैं स्थिर दृष्टि से लियाई पर रखे हुए उस पंजे की तरफ देख रहा था । हिरन के सींग तो ठीक थे कि शायद सजावट के लिए रखें हो, लेकिन वह पंजा किसी आदमी के हाथ की कटी हुई हथेली तो नहीं थी वह, तब वह किसका पंजा था ?

मेरी दुविधा को शायद भांप लिया मधुसूदन हालदार ने । बोले, “उस पंजे की तरफ देख रहे हैं क्या ?”

सिर हिलाकर मैंने कहा, “हां। “

पंचानन चाय ले आया । साथ में बिस्कुट भी थे । मधुसूदन हालदार बोले, “लीजिए, चाय पीजिए।” और बिस्कुट का एक टुकड़ा तोड़कर उन्होंने अपने मुंह में रख लिया ।

बाहर बादल गरजे । हवा के एक तेज झोके से दरवाजों-खिड़कियों के परदे कांपने लगा | मुझे लगा, अगर यहां से जल्दी उठकर गया तो बारिश में भीगना पड़ेगा ।

“वह बंदर का पंजा है, ” मधुसूदन हालदार बोले ।

मुझे तब ताज्जुब हुआ । “बंदर का पंजा… इसका करते क्या हैं आप ?

मधुसूदन हालदार हंसने लगे- “इसके अलावा मेरे पास उल्लू की आंख, शेर की हड्डी, गेंडे का चमड़ा और सुंदरवन के रायल बेंगाल टाइगर का एक खास किस्म का नाखून भी है । ये सब मेरी रूचि की वस्तुएं हैं, डॉक्टर नारद । मैं अपना सारा काम इन्हीं से सिद्ध करता हूं ।

कौन-से काम ? ” मेरा कौतूहल बढ़ता ही जा रहा था ।


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