रामानुजाचार्य | Ramanujacharya

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रामानुजाचार्य – Ramanujacharya

शंकराचार्य के ३०० वर्ष के बाद ईसा की ११वी शताब्दी में रामानुजाचार्य का जन्म हुआ ।
श्री शंकराचार्य ज्ञानमर्गी थे
, रामानुजाचार्य
भक्तिमार्गी । शंकराचार्य के समान ही रामानुज अपने समय के बहुत बड़े पंडित माने
जाते हैं और विद्वानों की दृष्टि में इस काल के इन्हीं दो महापु
रूषों का विशेष महत्व है।

रामानुज का जन्म
स्थान दक्षिण भारत में मद्रास नगर से कुछ दूर स्थित पेरबुघूरम (प्राचीन नाम
भूतपुर) नामक स्थान कहा जाता हैं । उनके पिता का नाम आसुरि केशव दीक्षित था ।
रामानुज की माता
कांतिमती श्री शैलपूर्ण
नामक एक वृद्ध संन्यासी की बहन थी। वह रिश्ते में श्री यमुनचार्य की नातिनी भी
लगती थी । जब रामानुज आठ वर्ष के हुए
,  तब उनका जनेऊ हुआ
और उनके पिता ने उसी समय से उन्हें पढ़ाना शुरू कर दिया। बाल्यकाल से ही रामानुज
अपनी तीव्र बुद्धि का परिचय देने लगे । जिस पाठ को वह एक बार पढ़ लेते
,  उन्हें तुरंत ही याद हो जाता| सोलह वर्ष की आयु में रामानुज का रक्षाम्बा नामक एक
ब्राह्मण कन्या से विवाह हो गया। विवाह के थोड़े  
ही दिन पश्चात रामानुज के पिता की मृत्यु हो गई।

पिता की मत्यु के
बाद रामानुज सपरिवार अपने ग्राम
, पेरबुघूरम से
कांची चले आए और वहीं रहने लगे । उन दिनों कांची
विद्धया का बहुत बड़ा केंद्र था । उत्तर भारत में काशी
का जो स्थान था
,  वहीं दक्षिण भारत
में कांची का था । उस समय कांची के पंडितो के प्रमुख यादवप्रकाश माने जाते थे । वह
शंकराचार्य के अनुया
यी थे । उनका मत था
कि निराकार निर्गुण ब्रम्ह को छोड़कर विश्व में जो भी जड़ या चेतन है
, वह सब मिथ्या है। इन्हीं यादवप्रकाश से रामानुज
वेद और उपनिषद पढ़ने लगे । लेकिन कुछ ही समय के बाद दोनों में मतभेद होना आरंभ हो
गया। पहली बार तो गुरु ने रामानुज की इस धृष्टता को क्षमा कर दिया पर दूसरी बार जब
रामानुज ने यादवप्रकाश की व्याख्या को गलत बताया
,  तब गुरु ने उन्हें घर से वापस जाने की आज्ञा दी । तभी से
रामानुज ने गुरु से पढ़ना बंद कर दिया। वह घर पर खुद ही पठन पाठन करने लगे।

कान्चीपूर्ण
स्वामी से रामानुज की भेट की कहानी बड़ी ही रोचक हैं। कान्चीपूर्ण स्वामी के पिता
तो शूद्र थे और उनकी माता शबरी थी । लेकिन कान्चीपूर्ण स्वामी श्री वैष्णव
संप्रदाय के पहुंचे हुए संन्यासियों में गिने जाते थे । कान्चीपूर्ण स्वामी श्री
वैष्णव संप्रदाय के प्रसिद्ध महंत यमुनाचार्य के पांच मुख्य शिष्यों में थे । कहा
जाता हैं कि जब रामानुज पेरबुघूरम में रहते थे
, तब एक दिन संयोगवश
कान्चीपूर्ण स्वामी उसी ओर से निकले । रामानुज उन्हें आदर पूर्वक अपने घर ले गए।
रात्रि भोजन के बाद कान्चीपूर्ण स्वामी बाहर बरामदे में लेटे । जब रामानुज ने उनके
पैर दबाने चाहे
,  तब कान्चीपूर्ण
ने उन्हें रोका । उन्होंने कहा
की मै तो नीचवर्ण
का हूं और तुम ब्राम्हण हो । ब्राम्हण को शूद्र के पैर नहीं दबाने चाहिए । यह
सुनकर रामानुज बहुत दुखी हुए और बोले – “मेरा भाग्य ही मंद है
, जिससे आप जैसे महात्माओं की सेवा का अधिकार
मुझे नहीं मिल पाता । जनेऊ धारण करने से कोई ब्राम्हण नहीं हो जाता । हरिभक्त ही
सच्चे ब्राम्हण है।“

कान्चीपूर्ण
स्वामी इस बात से बड़े प्रभावित हुए । तब से इन दोनों में एक दूसरे के प्रति प्रेम
और भक्ति का सम्बन्ध स्थापित हो गया ।

रामानुज के
पांडित्य की ख्याति दिनोदिन चारो और फैल रही थी । यमुना
चार्य चाहते थे कि उनके बाद रामानुज ही श्री
वैष्णव के महंत हो । लेकिन श्री वैष्णव के महंतो की गद्दी पर वहीं बैठ सकता था
,  जो श्री वैष्णव संप्रदाय का सन्यासी हो ।
इसीलिए श्री रंगम से यमुनाचार्य ने महापूर्ण स्वामी को रामानुज को बुलाने के लिए
कांची भेजा । कांची में ही महापूर्ण स्वामी ने रामानुज को श्री वैष्णव संप्रदाय की
दीक्षा दी ।

इसके कुछ दिन बाद
रामानुज यमुनाचार्य  के दर्शनों के लिए
श्रीरंगम के लिए रवाना हो गए । लेकिन जब वह श्रीरंगम पहुंचे
,  तब उन्हें समाचार मिला की यमुनाचार्य तो बैकुंठ धाम को पधार
गए हैं। मरने से पहले यमुनाचार्य रामानुज के लिए एक संदेश छोड़ गए थे। उस संदेश
में रामानुज से कहा गया था कि वह तीन बातें अवश्य करें (
1) वेदांत सूत्रों
पर भाष्य की रचना (
2) द्रविड़ भाषा में आलवारो के भजनों के संग्रह
(प्रबंध) को वेद के नाम से प्रसिद्ध कर उसे पंचम वेद का आसान देना और (
3) विष्णु पुराण के
रचयिता
, मुनि श्रेष्ठ पराशर की
यादगार में किसी महापंडित वैष्णव का पराशर नाम रखना । रामानुज श्रीरंगम ठहरे नहीं
,
बल्कि तुरंत कांची लौट आए ।

जिस समय रामानुज
को बुलाने के लिए महापूर्ण जी कांची पधारे थे
,  वह अपनी पत्नी को भी साथ लेते आए थे। कांची में रामानुज के
घर पर ही वह
6 महीने ठहरे । इस
अवसर का लाभ उठाते हुए रामानुज ने उनकी सहायता से द्रविड़ भाषा में
लवारो के 4,000 सुमधुर भजनों के संग्रह का अध्ययन किया।

एक दिन महापूर्ण
जी की पत्नी और रामानुज की पत्नी एक साथ पानी लाने के लिए निकली । रास्ते में
दोनों में किसी बात पर झगड़ा हो गया। इस झगड़े का हाल जब महापूर्ण जी को मालूम हु
,  तब वह अपनी पत्नी सहित श्रीरंगम के लिए रवाना
हो गए। रामानुज उस समय बाज़ार गए हुए थे। बाज़ार से लौटने पर जब रामानुज को इस
झगड़े का हाल मालूम हुआ
,  तब वह बड़े दुखी
हुए। उसी दिन अपनी स्त्री को तो उन्होंने उसके पिता के घर भेज दिया और खुद सन्यासी
हो गए।

यमुनाचार्य के
बाद श्री वैष्णवो का कोई नेता न रह गया था
,  इसलिए उनमें बड़ी
बैचेनी फैल रही थी। उन सबकी इच्छा हुई कि इस पद को रामानुज ही
सुशोभित करे। उन्हें बुलाने के लिए श्रीरंगम से
कांची एक दूत भेजा गया। रामानुज तो अब सन्यासी हो ही चुके थे
,  इसलिए इस बार उन्होंने उस निमंत्रण को स्वीकार
कर लिया और श्रीरंगम पहुंच कर यमुनाचार्य की सुनी गद्दी पर विराजमान हुए। श्रीरंगम
की गद्दी का जो महंत था
,  उसे श्रीरंगम में
श्रीरंगनाथ जी के मंदिर की देखरेख भी करनी पड़ती थी। रामानुज ने बड़ी खुशी से इस
काम को संभाला। मंदिर की जो कुछ आमदनी होती
, वह सब भगवान की पूजा सेवा
में खर्च की जाती थी। रामानुज उसमे से एक पैसा भी अपने लिए न लेते थे। अपने भोजन
के लिए वे नित्य भिक्षा स्वीकार करते थे ।

श्रीरंगम में
रहते हुए उन्हें यमुनाचार्य के बताए मंत्रो के सही सही अर्थ यमुनाचार्य के शिष्यों
से मिल गए। श्री यमुनाचार्य के पांच प्रमुख शिष्य थे। इनमे से एक का नाम गोष्ठी
पूर्ण स्वामी था । महापूर्ण जी के सुझाव पर रामानुज गोष्ठी पूर्ण जी से श्री
यमुनाचार्यजी द्वारा सीखाए गए रहस्य मंत्र को जानने के लिए रवाना हो गए। यह मंत्र
गोष्ठी पूर्ण ही जानते थे । गोष्ठी पूर्ण ने १८ बात रामानुज की प्रार्थना को टाल
दिया लेकिन १९वी बार उनको रहस्य मंत्र की दीक्षा इस शर्त पर दी कि रामानुज वह
रहस्य मंत्र किसी अनाधिकारी या
किसी भी अन्य व्यक्ति को नहीं बताएंगे ।

रहस्य मंत्र की
दीक्षा पा जाने के बाद रामानुज रंगनाथ जी के मंदिर के लिए रवाना हो गए। रास्ते में
ही नरसिह स्वामी के मंदिर का मेला पड़ा। उस मेले में श्री वैष्णवो की अपार भीड़ थी।
भीड़ को देखकर रामानुज से न रहा गया और वह एक ऊंची जगह खड़े होकर ज़ोर ज़ोर से इस
रहस्य मंत्र को दोहराने लगे
,  जिसकी दीक्षा उसी
दिन गोष्ठी पूर्ण जी ने उन्हें दी थी। गोष्ठी पूर्ण जी ने जब रामानुज की यह करतूत
सुनी
, तब वह आगबबूला हो
गए और शिष्यों को भेजकर श्री रामानुज को अपने पास बुलाया।

पूछे जाने पर रामानुज ने कहा – आप ने ही मुझे बताया था कि मंत्र सुनने वाले सब लोग
स्वर्ग जाएंगे । इतने सारे लोगों को देखकर मैं इसलिए मंत्र दोहराने लगा कि उन्हें
स्वर्ग मिले
, चाहे में भले ही
नरक में गिरू।

यह सुनते ही
गोष्ठी पूर्ण जी का क्रोध शांत हो गया । उन्होंने रामानुज को गले लगाकर कहा कि आप
ही मेरे गुरु है और मै आपका शिष्य हूं ।

प्रतिज्ञा के
अनुसार रामानुज ने आलवारो के द्रविड़ भाषा में भजनों के संग्रहको पांचवा वेद कहकर
घोषित किया
, अपने शिष्य कुरेश
के पुत्र का नाम पराशर भट्ट रखा और वेदांत सूत्रों पर
श्रीभाष्य”  की रचना की ।

श्री भाष्य लिखने
के बाद रामानुज अपने शिष्यों के साथ देश की यात्रा पर निकले। बड़े बड़े नगरों में
उन्होंने कई पंडितों से शास्त्रार्थ किया। वह जहां गए और जहां भी पंडितों से उनके
शास्त्रार्थ हुए
,  वही सर्वत्र उनकी
जीत हुई। दिग्विजय की लालसा से वह उत्तर में कश्मीर तक गए और काशी भी पधारें।
कश्मीर और काशी में भी पंडितों के साथ उनके शास्त्रार्थ हुए और दोनों ही स्थानों
में उनकी विजय का डंका बजा। हजारों स्त्री पुरुषों ने उनसे दीक्षा ली और अनेक राजा
महाराजा उनके शिष्य हुए। इस प्रकार सारे भारत में दिग्विजय करते हुए रामानुज अंत
में पेरबुघूरम होते हुए श्रीरंगम लौट आए।

कांची का एक चोल
राजा शैव था। उसे वैष्णव धर्म के इस बढ़ते हुए प्रचार को देखकर बेहद गुस्सा चढ़ा।
उसने श्रीरंगम में स्थित रंगजी के मंदिर पर एक ध्वजा टंगवा दी
,  जिसमें लिखा था शिवात्परो नास्ति‘ (शिव से बढ़कर कोई नहीं)। जो कोई शैव मत का विरोध करता, उसी के प्राणों पर आ बनती। इस राजा ने वैष्णवो पर बड़ा
अत्याचार करना शुरू किया। रामानुज को भी उसने धोखे से मार डालने के उद्देश्य से
कांची बुलावा भेजा। पर रामानुज कांची नहीं गए और
१२ वर्ष तक यानी जब तक वह
अत्याचारी राजा जिंदा रहा तब तक मैसूर राज्य के शालग्राम नामक स्थान में रहते हुए
बराबर वैष्णव धर्म का प्रचार करते रहे। इसी बीच उन्होंने यादवा
द्री नामक स्थान पर एक मंदिर बनवाया। इस मंदिर में
भगवान की वह मूर्ति स्थापित की गई जिसे रामानुज ने स्वप्न देखने के बाद भूमि से
खोदकर निकाला था।

रामानुज ने अपने जीवन
काल में जिन ग्रंथों की रचना की
,  इसके अतिरिक्त
उन्होंने श्रीमद भगवत गीता पर
गीता भाष्य
रचना। वेदार्थ संग्रहनामक ग्रंथ में
उन्होंने माया वाद का खंडन किया
, ‘वेदांत दीप
नामक ग्रंथ में अपने प्रसिद्ध श्री भाष्य की
संक्षिप्त व्याख्या की और वेदांतसार नामक ग्रंथ में अपने सिद्धांतों का सरल ढंग से
वर्णन किया।

शंकराचार्य ने अदैत मत का प्रचार किया था। उनका मत था कि सब
प्रकार के गुणों से रहित ज्ञान स्वरूप निर्गुण
, निराकार ब्रह्म ही एक मात्र सत्य हैं और उसके अतिरिक्त
विश्व में जो कुछ जड़ या चेतन हमें दिखाई देता है
, वह सब माया और मिथ्या हैं।
उनका कहना था कि श्रुति वेद और उपनिषद भी कहती हैं की ब्रह्म सत्य ज्ञान स्वरूप और
अनंत है। जीव और ब्रह्म में कोई भेद नहीं। जो भी मालूम होता है
, उसका कारण अविध्या हैं। अतएव मुक्ति का साधन सदज्ञान और अविध्या का नाश है। शंकराचार्य के मत में ईश्वर प्रेम
और उनकी सेवा का कोई स्थान नहीं है।

शंकराचार्य का यह
मत वैष्णवो के मत के सर्वथा विपरीत था। अतएव वैष्णव की यह प्रबल इच्छा थी कि जिन
उपनिषदों के प्रमाणों द्वारा शंकराचार्य ने
अदैत मत की स्थापना की,  उन्हीं उपनिषदों के प्रमाणों से मायावाद का खंडन कर वैष्णव
धर्म की सत्यता स्थापित की जाए। रामानुज ने अपने
श्री भाष्यद्वारा श्री
शंकराचार्य के मत का खंडन और वैष्णव मत का समर्थन किया।

रामानुज का कहना
था कि ईश्वर निर्गुण नहीं सगुण हैं यद्यपि उसमें कोई अवगुण नहीं। वह श्रेष्ठो में
श्रेष्ठ है और उसमें किसी प्रकार का क्लेश नहीं जिसके द्वारा वह दोषहीन
,  शुद्ध, सर्वश्रेष्ठ,  निर्मल एक रूप ब्रह्म जाना जाता है।

शंकर का ब्रह्म
निर्गुण है
, रामानुज का
ब्रह्म सगुण है। एक के अनुसार ब्रह्म निराकार है दूसरों के मत में वह साकार हैं।
जहां शंकराचार्य ने यह सिद्ध किया कि मुक्ति का साधन ज्ञान है वह रामानुजाचार्य ने
सिद्ध किया की मुक्ति का साधन भक्ति हैं। इसीलिए शंकर ज्ञानमार्गी और रामानुज
भक्ति मार्गी कहलाते हैं।

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