चीनी सभ्यता । चीनी सभ्यता की विशेषताएं । चीन की सभ्यता । China Civilization | China History in Hindi
चीन के प्राकृतिक अवरोध इस देश के विशाल भू-प्रदेश की रक्षा करते हैं । चीन का यह विस्तृत भू-भाग यूरोप के भू-भाग के बराबर है । इन प्राकृतिक अवरोधों के कारण चीनी सभ्यता अपने आप में ही सिमटी रही । किन्तु, सौभाग्यवश उनकी प्राचीन संस्कृति का यूनान, मिस्र तथा बेबीलोनिया की सभ्यताओं के समान अंत नहीं हुआ । इसके विपरीत चीन की संस्कृति २५०० ई.पू. से आज तक निरंतर विकसित होती रही है ।
वर्तमान पुरातत्त्ववेत्ताओं के अनुसार अब तक खोजे गये प्राचीनतम मानव अवशेष आज से दस लाख वर्ष पहले के हैं, जो बीजिंग तथा लानटियन (Lantien) में पाये गये हैं । बीजिंग तथा लानटियन के वासियों ने ही सर्वप्रथम औजार बनाये थे । उनके वंशज चाऊ काउ टियन (Chouk’outien) के निकट के पहाड़ों की गुफाओं में पाये गये थे । इन गुफाओं में खोदने तथा काटने वाले पत्थर पाये गये हैं ।
इनके बाद उच्च (Upper) गुफामानव आये, जो आज से ५०००० वर्ष पूर्व रहते थे । ये लोग शिकार करके, मछली मारकर, फल तथा कंद-मूल एकत्र करके भोजन प्राप्त करते थे । नवपाषाण युग में इन लोगों ने सुइयां, धनुष-बाण तथा मृगों के सींगों से हंसिये तथा आरे बनाये । इन्होंने खेती भी की । इसके अतिरिक्त मध्य पीली नदी की घाटी के लुंगशान (Lungshan) प्रदेश में मिट्टी भी पाये गये हैं, जो नवपाषाण युग की एक प्रमुख विशेषता रही है । इस प्रदेश में पाये गये मिट्टी के बर्तन अपने चमकीले तलों द्वारा पहचाने जा सकते हैं ।
भूमि सिचाई के अनुकल थी । किसान मधुमक्खियों के छत्तों के आकार की हवांग हो (Hwang Ho) तथा यंग्त्से (Yangtze) नदियों के मैदानों की झोपड़ियों में रहते थे । ये झोंपड़ियां भूमि को गहरा खोदकर बनायी जाती थीं ताकि अधिक गर्मी तथा सुरक्षा प्राप्त की जा सके । यांग्त्से तथा ह्वांग हो, इन दो बड़ी नदियों के बीच स्थित होने के कारण यहां का प्रमुख मैदान उपजाऊ मिट्टी, जिसे लोयस (Loess) कहा जाता है, का भंडार था । इस कृषि योग्य मिट्टी के कारण यहां कृषि करना बहुत सरल था । इसी से कांस्य युग में शांग (Shang) तथा यिन (Yin) वंशों को विकसित होने तथा प्रगति करने के अवसर प्राप्त हो सके ।
चीनी इतिहासकारों द्वारा की गयी दूसरी शताब्दी ई.पू. संबंधी मान्यताओं को पुष्ट करने हेतु अब तक बहुत कम प्रमाण प्राप्त हो सके हैं । चीनी इतिहासकारो के अनुसार चीन पर सर्वप्रथम तीन और पांच राजाओं के दो समूहों ने शासन किया । इन राजाओं के पश्चात् सिया (Hsia), शांग (Shang) तथा चाऊ (Chou) राजवंश हुए । पुरातत्त्वीय खोजों से अभी तक भी सिया वंश के अस्तित्व के प्रमाण नहीं मिले हैं । किन्तु अन्यांग (Anyang) में पायी गयीं कांसे की विभिन्न वस्तुओं के आधार पर पुरातत्त्ववेत्ता यह मानते हैं कि शांग (Shang) तथा चाऊ (Chou) वंशों ने चीन पर अवश्य ही शासन किया होगा ।
शांग वंश ने चीन को आत्मोन्नति के मार्ग पर ले जाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है । शांग वंश के लोग बहुत उन्नत थे । उनके खगोल शास्त्रियों (Astronomers) ने चन्द्र-मासों (Lunar Months) पर आधारित एक पंचांग तैयार किया । बाद में इसमें हर उन्नीस वर्ष की अवधि में सात चन्द्र-मास अधिक जोड़कर सुधार किया गया ।
शांग संस्कृति में बलि प्रथा का महत्त्वपूर्ण स्थान था । किसी राजसी व्यक्ति को दफनाते समय तथा किसी महत्त्वपूर्ण इमारत के निर्माण के समय पशुओं तथा मनुष्यों की बलि दी जाती थी ।
राजसी कब्रें बहुत वैभवशाली होती थीं । राजाओं के शवों के साथ उनके वस्त्र, घरेलू उपयोग की विभिन्न वस्तुएं, भोजन तथा विभिन्न पेय भी दफनाए जाते थे । वास्तव में मृत व्यक्ति को इस दुनिया में सुविधापूर्वक जीने के लिये जिस-जिस वस्तु की आवश्यकता होती थी, वे सभी वस्तुएं उसके साथ उसकी कब्र में रख दी जाती थीं । यहां तक कि दासों को जीवित ही उनके स्वामी के साथ दफना दिया जाता था । एक कब में मृत व्यक्ति के साथ सत्तर व्यक्तियों को जीवित दफना दिये जाने के प्रमाण मिले हैं ।
शांग संस्कृति का प्रभाव इतना बढ़ा कि शीघ्र ही यह मध्य चीन में भी फैल गयी । अन्वेषण के दौरान इस संस्कृति का प्रभाव यांग्त्से घाटी में भी पाया गया है । बीजिंग में नगरों के वर्गाकार नियोजन की शांग पद्धति आज भी प्रचलित है ।
व्यापारिक क्षेत्र में भी प्रगति हुई और शांग संस्कृति अपने कांसे के उपकरणों का व्यापार करने लगी । व्यापार में सुधार करने तथा उसे सरल बनाने के लिये शांग लोगों ने कौड़ियों का मुद्रा के रूप में प्रयोग किया । अपने आकार तथा टिकाऊपन के कारण कौड़ियां सर्वाधिक प्रचलित मुद्राओं में से एक थीं, किन्तु इनके प्रचलित होने का सबसे प्रमुख कारण यह था कि उन्हें गढ़ना संभव न था ।
एक विशाल दीवार चीन की रक्षा करती रही है । इसका निर्माण बाहरी जगत से संबंध न रखने के उद्देश्य से किया गया था क्योंकि एक चीनी सम्राट चीन की सीमाओं के बाहर रहने वाली सभी जातियों को असभ्य मानता था । इतना सुरक्षित वातावरण होने पर भी चीनियों ने अपनी छाप छोड़ी है । उन्होंने कन्फ्यूशियसवाद तथा ताओवाद (Confucianism and Taoism) जैसे दर्शनों को जन्म दिया । उनकी कलात्मक परंपराओं ने उत्कर्षता की चरम सीमा को छू लिया लेकिन सामाजिक व्यवस्था में निहित दुर्बलताओं ने धीरे-धीरे इस महान एकाकी सभ्यता के रक्त की एक-एक बूंद चूस ली ।
इस सभ्यता का भी बुरा समय आया । बार-बार होने वाले युद्धों तथा अंतिम शासक-चाऊ सिन (Chou Hsin) के अमानुषिक व्यवहार से विवश होकर दासों ने विद्रोह कर दिया । उसके महलों में आग लगा दी गयी और चाऊ सिन भी उस आग में जलकर मर गया । उसी के साथ पहले प्रमाणित वंश के इतिहास का भी अंत हो गया । १०३० ई.पू. में पश्चिमी चीन की एक जाति के लोगों ने उसे पराजित कर दिया और शांग वंश के खंडहरों पर चाऊ (Chou) वंश की नींव रखी गयी, जिसने नये विचारों तथा कन्फ्यूशियसवादी दर्शन का मार्ग प्रशस्त किया ।
चाऊ वंश का युग १०३० ई.पू. से आरंभ होकर २२ ई.पू. तक चला । इस युग के दौरान अनेक महत्त्वपूर्ण विकास हुए । इस साम्राज्य की सीमाएं दक्षिण में यांग्त्से नदी तक, पूर्व में समुद्र तक तथा दक्षिण पश्चिम में शेजवान (Szechwan) की सीमा तक फैल गयीं । किन्तु यह विस्तार केवल ऊपरी तौर पर शांतिपूर्ण था । इस विस्तार के कारण अनेक अर्द्ध-स्वतंत्र राज्य भी उत्पन्न हो गये । यद्यपि ये राज्य राजा तथा उसके दरबार के स्वामीभक्त होते थे, किन्तु वास्तव में ये अपनी संस्कृति तथा धर्म की रक्षा करने में ही अधिक रूचि लेते थे । राजा से उनके संबंध बहुत ज्यादा कमजोर हो गये और जल्दी ही शक्ति का यह नाजुक संतुलन ढह गया । ये आधीन राज्य “युद्धशील राज्यों” में बदल गये । आंतरिक युद्धों का यह काल ४७५ ई.पू. मे आरम्भ हुआ तथा २२१ ई.पू. तक चला । अंतत: २२१ ई.पू. मे चिन (Chin) सर्वोच्च शासक बने और उन्होंने छः जीते हुए राज्यों का एक बड़े साम्राज्य में विलय किया, जिसे हम तभी से “चिन” शब्द के आधार पर चीन या China के नाम से जानते हैं ।
चाऊ वंश के प्रारंभिक काल में दार्शनिक तथा नैतिक विचार विकसित हुए और एक नये शिक्षित वर्ग का जन्म हुआ । कुंग फू जू (Küng Fu Tzu) नामक महान दार्शनिक (जिसे उसके लैटिन नाम-कन्फ्यूशियस के नाम से अधिक जाना जाता है) ने एक स्कूल की स्थापना की तथा अपना जीवन ज्ञानार्जन को अर्पित कर दिया । वह ५५१ ई.पू. से ४७९ ई.पू. तक छाया रहा । उसकी शिक्षाएं मृत्यु के संबंध में चिन्तन-मनन करने की अपेक्षा परिवार तथा समाज के प्रति कर्त्तव्य-पालन पर अधिक बल देती थीं । कन्फ्यूशियस के विचारों ने प्राचीन सामंतवाद का अंत करके दार्शनिक विचार तथा राजनैतिक व्यवहार के बीच नजदीकी संबंधों की स्थापना की ।
चाऊ युग के दौरान कांस्य युग का अंत हो गया । लोहे का प्रयोग किया जाने लगा । अब लोहे के हथियार बनाये जाने लगे । खेती में सिंचाई के माध्यम से उत्पादन बढ़ाया गया । किन्तु धीरे-धीरे इन सभी सुधारों की उपेक्षा होने लगी और चीन की प्रगति की गाड़ी एक बार फिर एक अलग रास्ते पर चलने लगी ।
युवा यिंग-चेंग (Ying Cheng) के लिये सारा संसार चीन में ही सिमट कर रह गया था । उसने घोषणा की कि “चीन का इतिहास मुझ से ही आरंभ होता है।“ उसके अनुसार चीन की सीमा के पार केवल असभ्य (Barbarians) जातियां ही रहती थीं और इन जातियों से बचने के लिये उसने उत्तरी चीन के साथ-साथ एक ३००० मील लंबी “महान दीवार” का निर्माण करवाया ।
अपने कठोर दृष्टिकोण के कारण चेंग ने अपने साम्राज्य में ‘सफाई अभियान’ शरू कर दिया । अतीत के सभी चिह्न मिटा देने के लिये उसने स्थानीय सीमाएं मिटा डालीं और अपने मुख्य सलाहकार ली सियू (Li Siu) के परामर्श से काव्य, इतिहास तथा दर्शन की सभी पुस्तकें जला दीं । बांस तथा लकड़ी की पट्टिकाओं (Tablets) पर लिखित प्राचीन चीन का अधिकांश ज्ञान जलाकर राख कर दिया गया । शायद इतना ही काफी नहीं था इसीलिये उसने विद्वानों और दार्शनिकों को मरवा डाला । लगभग ४६० कुंग विद्वानों को जीवित दफना दिया गया । उस युवा राजा ने सोचा कि इस प्रकार से कन्फ्यूशियस के विश्वासों तथा विचारों का अंत हो गया । किन्तु यह उसका भ्रम था । जिस दर्शन से वह राजा सबसे अधिक घृणा करता था और भय खाता था, वही दर्शन उसके वंश के अंत के २००० वर्ष बाद तक भी बना रहा ।
इससे पहले ही कन्फ्यूशियस के शिष्यों ने उसकी शिक्षाओं को लुन यू (Lun Yu) नामक पुस्तक में संग्रहीत कर लिया था । जिसका अर्थ है-सूक्ति संग्रह । कन्फ्यूशियस ने स्वयं भी आदर्श जीवन तथा ईमानदारी के विषय में अपने विचारों का प्रचार करने के अतिरिक्त इतिहास संबंधी एक पुस्तक में संशोधन किया ।
उसने चार पुस्तकों को संपादित भी किया । ये ५ पुस्तकें आज भी चीन में पांच गौरव ग्रंथों (The Five Classics) के नाम से जानी जाती हैं ।
चिन सम्राट ने कन्फ्यूशियस द्वारा सिखाये गये सभी नैतिक कर्त्तव्यों को भुलवा देने की चेष्टा की और आगे चलकर स्वयं चिन राजवंश ने ही इसका कुपरिणाम भोगा । २०९ ई.पू. में द्वितीय चिन सम्राट के शासनकाल में अनिवार्य रूप से भर्ती किये गये (Conscripts) ९०० सैनिकों का एक दल अपने सामान्य कर्त्तव्यों की पूर्ति के लिये एक मोर्चे की ओर जा रहा था । मार्ग में उन्होंने देखा कि बाढ़ के कारण आगे का रास्ता रुका हुआ है । वे जानते थे कि देर से पहुंचने की सजा मृत्यु-दंड है । मृत्यु के भय से निराश होकर उन्होंने अपने सेनापति को मार डाला और चिन वंश के अत्याचारी शासन के विरुद्ध विद्रोह कर दिया । यह विद्रोह जंगल की आग की भांति फैल गया । विभिन्न प्रांतों के किसान भी बांस के नुकीले डंडों से लैस होकर विद्रोहियों के साथ मिल गये । तीन वर्ष के लंबे और कठिन संघर्ष के बाद शक्तिशाली चिन साम्राज्य को सैनिकों के एक कनिष्ठ अधिकारी लियू पेंग (Liu Pang) के सम्मुख झुकना पड़ा ।
२०२ ई.पू. में लियू पेंग ने “प्रतिष्ठित सम्राट” (Eminent Emperor) की उपाधि धारण की । वह हान (Han) वंश का प्रथम सम्राट बना । इस वंश ने ४०० से भी अधिक वर्षों तक राज्य किया । लियू पेंग की निरक्षरता चीन के लिये वरदान सिद्ध हुई । उसने स्वयं को साम्राज्य का शासन चला पाने में असमर्थ पाया । अतः उसने राज दरबार की कार्य विधि निश्चित करने के लिये कन्फ्यूशियसवासियों को आमंत्रित किया । इससे एक स्थायी शासन बने रहने का आश्वासन मिला तथा कन्फ्यूशियसवासियों को वह प्रेम तथा सम्मान फिर से प्राप्त हो गया, जिसे वे खो चुके थे ।
इस प्रकार साम्राज्य में पुनः शांति स्थापित हो गयी । परिणामस्वरूप शासन में दक्षता आई, तकनीकी क्षेत्र में प्रगति हुई तथा खाद्य पदार्थों के उत्पादन में भी वृद्धि हुई । इसके अतिरिक्त जनसंख्या में वृद्धि के साथ-साथ धन-धान्य में वृद्धि हुई ।