हित्ती सभ्यता | Hittite Civilization

हित्ती सभ्यता | Hittite Civilization

यूफ्रेट्स नदी के पार हित्ति नामक एक सभ्यता विकसित हुई, जिसे हिट्टाइट तथा खत्ती नामों से भी पुकारा जाता है । यह सभ्यता, अन्य स्मरणीय तथा समृद्ध सभ्यताओं से भिन्न हमारे मस्तिष्क पर एक अमिट छाप छोड़ देती है । यह सभ्यता ऐसे व्यक्तित्वों से भरी पड़ी है, जिन्होंने राज्यशक्ति के संवर्धन में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया । यही वे प्रथम लोग हैं, जिनसे कूटनीतिक युग का सूत्रपात होता है ।

हित्ति सभ्यता १२००ई.पू. तक आते-आते क्रमशः अपने-आप ही दुर्बल और विघटित हो लुप्त हो गयी । संसार भी धीरे-धीरे इसे भूल गया । सन् १९०६ में कुछ पुरातत्त्ववेत्ताओं ने तुर्की में खुदाई करते हुए इस मृत सभ्यता को पुनः खोज निकाला ।

सन् १९०६ में जर्मन ओरियण्टल सोसायटी की ओर से डॉ. लूगो व्हिकलर (Hugo Whinckler) ने तुर्की में खुदाई का कार्य करते हुए एक सनसनीखेज खोज की । अंकारा (वर्तमान तुर्की की राजधानी) से ८० मील दूर पूर्व में बोघाज़कोई (Boghazkoi) में पाये गये नगर-दुर्ग के अवशेषों में लगभग १०,००० कीलाक्षर पट्टिकाएं (Cuneiform Tablets) प्राप्त हुई हैं । ये पट्टिकाएं विभिन्न सभ्यताओं जैसे अक्काड, हेट्टिए, लूवि सुमेरिया तथा हित्ति सभ्यता की भाषाओं में लिखी गयी हैं । जो पट्टिकाएं बेबीलोनिया की अक्काडी भाषा में लिखी गयी हैं, उन्हें एकदम पढ़ लिया गया । इन पट्टिकाओं से पता चलता है कि जिस नगर से ये पायी गईं उस नगर का नाम खत्तुसस (Khattusas) था, जो खत्ती (Khatti) प्रदेश की राजधानी था । यह भी ज्ञात होता है कि २००० ई.पू. में सोलोमन नामक राजा के शासन से पूर्व खत्ती एक शक्तिशाली राज्य था ।

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इन पट्टिकाओं की भाषा काफी समय तक अज्ञात रही । अंततः जब इस भाषा को पढ़ लिया गया तो पुरातत्ववेत्ताओं को यह जानकर बहुत आश्चर्य हुआ कि यह भाषा विभिन्न भारतीय यूरोपीय भाषाओं जैसे-यूनानी भाषा, संस्कृत भाषा तथा लैटिन भाषा के समान ही है । इस खोज से यह सिद्ध हो गया कि हित्ति जाति ने स्मारकों के लिये चित्र लिपि शैली का प्रयोग किया, कुटनीति के लिये अक्काडियों की भाषा का प्रयोग किया तथा धार्मिक कार्यों के लिये भारतीय-यूरोपीय भाषा प्रयोग किया ।

हित्ति जाति इस भाषा को नेसाइट (Nesite) कहती थी । उन्होंने इस भाषा का नाम अपने एक प्राचीन नेसस (Nesas) के नाम के आधार पर रखा था । ऐसा प्रतीत होता है कि समय बीतने के साथ-साथ वे मसोपोटामिया के निवासियों के समान मिट्टी की पट्टिकाओं पर लिखने लगे और उन्होंने कीलाक्षर लिपि में अपने ही ढंग से सुधार किए । यही कारण है कि नेसाइट भाषा युरोपीय भाषा के समान ही जान पड़ती है । एक बार भाषा पढ़ लिये जाने पर पुरातत्त्ववेत्ताओं तथा इतिहासकारों का कार्य आसान हो गया । धीरे-धीरे हित्ति साम्राज्य का इतिहास स्पष्ट होने लगा, यद्यपि प्रत्येक अपेक्षित तथ्य प्रकाश में आ पाया जैसे-यह जाति कैसे और कहां से आयी ? इसका अंत कैसे हुआ ? किन राजाओं ने इस पर शासन किया ? आदि आदि ।

हम अधिक से अधिक इनकी मुद्राओं तथा अन्य साक्ष्यों के आधार पर यह अनुमान ही लगा सकते हैं कि संभवतः ये लोग किसी पर्वतीय क्षेत्र से आये होंगे क्योंकि ये प्राकृतिक शक्तियों जैसे तूफान तथा वायु के देवताओं की पूजा करते थे । प्राकृतिक देवताओं के अतिरिक्त ये पर्वतों की चोटियों पर रहने वाली आत्माओं तथा स्थानीय देवताओं की भी आराधना करते थे । संक्षेप में, उनके विभिन्न देवताओं को खत्ती के सहस्र देवताओं के नाम से जाना जाता था ।

अन्य सभ्यताओं के विपरीत हित्ति सभ्यता में मूर्ति-शिल्प के विकास पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया । इस युग के दौरान मूर्ति निर्माण का सर्वथा अभाव ही रहा । इस कमी की पूर्ति केवल कुछ सुंदर लघु आकार की आकृतियां बना कर की गयी । सबसे प्रसिद्ध एक मानव की सोने की लघु मूर्ति है, जो १७” ऊंची है तथा छोटी बाहों वाला एक लंबा चोगा पहने हुए है । यह १४ वीं शताब्दी ई.पू. की प्रतीत होती है ।


कुछ दशक पूर्व यह माना जाता था कि विश्व के प्रथम नगरीय सभ्यता की नींव ५००० वर्ष पूर्व सुमेरिया में पड़ी । हाल में हुई खोजों ने अब इस विचार को असंगत सिद्ध कर दिया है । इस शताब्दी के प्रथम पच्चीस वर्षों में पुरातत्त्ववेत्ताओं को तुर्की में खुदाई करते हुए लगभग १०,००० पट्टिकाएं (Tablets) मिलीं । ये पट्टिकाएं एक साम्राज्य की अविश्वसनीय कहानी बताती हैं – यह है खत्ती या हिति (Hittite) साम्राज्य, जो सुमेरिया की सभ्यता से काफी पहले विकसित हुआ तथा १२०० ई.पू. तक अस्तित्व में रहा ।

मूर्ति निर्माण कला समय के साथ-साथ परिवर्तित हुई । नव हित्ति युग में जबकि पत्थर का प्रयोग होना शुरू हो चुका था, अनेक पाषाण-मूर्तियां बनायी गयीं । इन मूर्तियों में उल्लेखनीय काली चट्टान (Basalt) को काटकर बनायी गयी एक शेर की मूर्ति है, जो मालाट्या (Malatya) में पायी गयी है तथा १००० ई.पू. की है ।

उनके लेखों द्वारा हमें ज्ञात होता है कि १७वीं शताब्दी तक वे लोग संगठित हो चुके थे । हत्तूसिलास (Hattusilas) नामक राजा ने अनेक छोटे-छोटे राज्यों को संगठित किया और एक पर्वतीय चोटी पर बने हत्तुसस (Hattusas) नामक किले पर अपना प्रशासनिक केन्द्र बनाया । इस किले पर सर्वप्रथम अनित्तास (Anittas) नामक राजा ने अधिकार किया था । बाद में लबर्नास (Labarnas) ने इस पर्वत को मजबूत दीवारों के घेरे से किलेबंदी की । उसके वंशजों ने इस साम्राज्य की सीमाओं का खत्तुसस तक विस्तार किया और यह आदिकालीन नगरों में एक प्रमुख नगर माना जाने लगा ।

खत्तुसस दो पहाड़ों के मध्य की चट्टानी समतल भूमि पर स्थित था । कुयुक-काले नामक नगर-दुर्ग (The citadel, Kuyuk-kale) एक सुंदर घाटी का दृश्य प्रस्तुत करता था तथा उसके दोनों ओर स्थित चट्टानें उसकी रक्षा करती थीं । सीधी खड़ी चट्टानें तथा घाटियां इसके प्राकृतिक रक्षकों की भूमिका निभाती थीं । जब जनसंख्या बढ़ने के साथ-साथ नगर का आकार भी बढ़ा तो हित्ति राजाओं ने एक ढाई मील लंबी दोहरी दीवार बनायी । इस दीवार में पांच दरवाजे बनाये गये । दरवाजे पर दो मुंह खोले हुए चेहरे बने हुए थे । ये चेहरे संभवतः दुष्ट शक्तियों को डराने के लिये बनाये गये थे ।

हित्ति राजा महान् योद्धा थे । वे कुलीन लोगों की एक सामती सभा से घिरे रहते थे । यह सभा राजाओं को परामर्श देती थी तथा प्रायः अपनी इच्छा राजा पर लाद दिया करती थी । राजा की स्थिति हमेशा सुरक्षित नहीं होती थी । हिति राजाओं का इतिहास अनेक राजहत्याओं तथा क्रांतियों के खून से रंगा हुआ था । उत्तराधिकार का कानून भी १५०० ई.पू. टेलेपिनस (Telepinus) नामक राजा के शासन काल के दौरान बना था । इस कानून के बनने के बाद राजा का सेना, न्याय-व्यवस्था तथा धर्म पर पूर्ण नियंत्रण हो गया था । वह किसी भी कार्य के करने से पूर्व एक धार्मिक अनुष्ठान करता था, जिसमें उसकी रानियां भी भाग लेती थीं । इसके अलावा ये रानियां मित्र राष्ट्रों से अपने अलग कूटनीतिक पत्र व्यवहार भी किया करती थीं तथा कुशलतापूर्वक सत्ता का भरपूर उपभोग करती थी ।

हिति सभ्यता में स्त्रियों की स्थिति काफी सम्मानजनक थी । विभिन्न शत्रुओं के विरुद्ध प्रतिरक्षा की आवश्यकता ने ही हित्ति राजाओं को साम्राज्य विस्तार के लिये प्रेरित किया । इनके अन्तिम राजा टेलेनिपस को युद्ध के लिये नहीं बल्कि राजाओं के लिए आचार संहिता (Code of Conduct) रचने के लिये जाना जाता है ।

बीच में कुछ दशकों के इतिहास का हमारे पास कोई विवरण नहीं है । १४६० ई.पू. में नए राजवंश का प्रथम राजा तुधलियास द्वितीय (TudhaliyasII) था, जिसने अलेप्पो (Aleppo) पर विजय प्राप्त की थी किन्तु उसकी विजय योजना को उत्तरी मसोपोटामिया की हुरियन जाति द्वारा बनाये गये राज्य मितान्नी (Mitanni) द्वारा असफल कर दिया गया ।

फिर यह स्थिति तब बदली जबकि १३८० ई.पू. में सुप्पिलल्युमस (Suppiluliumas) ने सिंहासन पर अधिकार कर लिया । उसने हत्तुसस की किलेबंदी की और एक कुशल सैनिक अभियान द्वारा मितान्नी तथा छोटे-छोटे सीरियाई राज्यों को जीत लिया ।

१३४६ ई.पू. के लगभग सुप्पिलुल्युमस की मृत्यु हो गयी । अतः उसका पुत्र मुरसिलिस द्वितीय (Mursilis II) सिंहासन पर बैठा, जो अपने पिता के समान ही वीर था । तत्पश्चात् मुवत्तालिस (Muwattalis) नामक राजा बना, जो अपने पीछे एक समृद्ध साम्राज्य छोड़ गया । शत्रुओं का व्यवहार कर रहे मिस्र के साथ एक शांति-संधि की गयी । हित्ति सभ्यता की सत्ता को अंतिम ग्रहण लगने तक यह मित्रता बनी रही । दुर्भाग्यवश, हमारे पास इस संबंध में कोई जानकारी नहीं है कि १३वीं शताब्दी के अंत में हित्ति जैसी विकसित सभ्यता अचानक लुप्त कैसे हो गयी । एक हित्ति राज्य उगरित (Ugarit) की खुदाई से प्राप्त अनेक पट्टिकाओं के आधार पर हम केवल अनुमान ही लगा सकते हैं कि यह सभ्यता “समुद्री-जन” (Sea- people) के नाम से प्रसिद्ध युरोपीय आक्रमणकारियों के हमलों का शिकार हो गयी होगी । एक हित्ति राजा द्वारा अनाज से भरे हुए एक जहाज की मांग का भी उल्लेख है । इस राजा का राज्य अकाल का सामना कर रहा था । विभिन्न पट्टिकाओं में दिए गये विवरणों में अंतर प्रतीत होता है किन्तु सभी पट्टियां इसी बात की ओर संकेत करती हैं कि हित्ति साम्राज्य विनाश के कगार पर था तथा मदद के लिये याचना कर रहा था ।

यह सभ्यता अचानक ही लुप्त नहीं हुई । सर्वप्रथम उन्हें पूर्व की ओर खदेड़ दिया गया, फिर भी इन अनेक लोगों ने अपनी भाषा तथा लिपि को सुरक्षित रखा । भले ही नव हित्ति सभ्यता का नाश कर उस पर अरब रेगिस्तानों से आये आर्मेइयन खानाबदोशों (Aramaen Nomads) ने अपना अधिकार कर लिया, फिर भी हित्ति सभ्यता के योगदान को कम करके नहीं आंका जाना चाहिए । जो मूर्तियां सामेल (Samal), कार्केमिश (Carchemish), हमथ (Hamath), मालाट्या तथा कराटेपे (Malatya and Karatepe) के राजाओं के महलों की शोभा बढ़ाया करती थीं, वे आज भी हित्ति साम्राज्य की श्रेष्ठ कलात्मक परंपरा की कहानी कहती हैं ।

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