कबीर के दोहे | Kabir’s couplets – 1

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कबीर के दोहे | Kabir Ke Dohe

कबीर के दोहे का संकलन | Kabir Ke Dohe Ka Sankalan

राम-रहीमा एक है

अलख इलाही एक है, नाम घराया दोय ।
कहै कबीर दो नाम सुनि, भरम परौ मति कोय ॥

राम रहीमा एक है, नाम धराया दोय ।
कहै कबीर दो नाम सुनि, भरम परौ मति कोय ॥

काशी काबा एक है, एकै राम रहीम ।
मैदा इक पकवान बहु, बैठि कबीरा जीम ॥

एक वस्तु के नाम बहु, लीजै वस्तु पहिचान ।
नाम पक्ष नहिं कीजिए, सार तत्व ले जान ॥

राम कबीरा एक है, दूजा कबहु न होय ।
अंतर टाटी कपट की, ताते दीखे दोय ॥

नगर चैन तब जानिये, जब एकै राजा होय ।
याहि दुराजी राज में, सुखी न देखा कोय ॥

तुरक मसीते देहरे हिन्दू, आप आप को ध्याय ।
अलख पुरुष घट भीतरै, ताका पार न पाय ॥

कबीर रेख स्व्यंदूर की, काजल दिया न जाइ ।
नैनू रमइया रमि रहा, दूजा कहाँ समाइ ॥

रंगहि ते रँग ऊपजै, सब रंग देखी एक ।
कवन रँग है जीव को, ताकर करह विवेक ॥

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जब मैं था तब हरि नहिं, अब हरि हैं मैं नाहिं ।
कबिरा नगरी एक में, राजा दौ न समाहिं ॥

सुर नर मुनिजन औलिया, ये सब बैले तीर ।
अलह राम की गम नहीं, तहँ घर किया कबीर ॥

कबिरा दिल दरिया मिला, बैठा दरगह जाय ।
जीव ब्रम्हा मेला भया, अब कछु कहा न जाय ॥

हिल मिल खेला ब्रम्हा सौं, अन्तर रही न रेख ।
समझे का मत एक है, क्या पण्डित क्या शेख ॥

एक राम को जानिकै, दूजा देइ बहाय ।
तीरथ व्रत जप तप नहीं, आतम तत्व समाय ॥


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