कबीर के दोहे | Kabir Ke Dohe
कबीर के दोहे का संकलन | Kabir Ke Dohe Ka Sankalan
राम-रहीमा एक है
अलख इलाही एक है, नाम घराया दोय ।कहै कबीर दो नाम सुनि, भरम परौ मति कोय ॥
राम रहीमा एक है, नाम धराया दोय ।
कहै कबीर दो नाम सुनि, भरम परौ मति कोय ॥
मैदा इक पकवान बहु, बैठि कबीरा जीम ॥
एक वस्तु के नाम बहु, लीजै वस्तु पहिचान ।
नाम पक्ष नहिं कीजिए, सार तत्व ले जान ॥
अंतर टाटी कपट की, ताते दीखे दोय ॥
नगर चैन तब जानिये, जब एकै राजा होय ।
याहि दुराजी राज में, सुखी न देखा कोय ॥
तुरक मसीते देहरे हिन्दू, आप आप को ध्याय ।
अलख पुरुष घट भीतरै, ताका पार न पाय ॥
कबीर रेख स्व्यंदूर की, काजल दिया न जाइ ।
नैनू रमइया रमि रहा, दूजा कहाँ समाइ ॥
रंगहि ते रँग ऊपजै, सब रंग देखी एक ।
कवन रँग है जीव को, ताकर करह विवेक ॥
जब मैं था तब हरि नहिं, अब हरि हैं मैं नाहिं ।
कबिरा नगरी एक में, राजा दौ न समाहिं ॥
सुर नर मुनिजन औलिया, ये सब बैले तीर ।
अलह राम की गम नहीं, तहँ घर किया कबीर ॥
कबिरा दिल दरिया मिला, बैठा दरगह जाय ।
जीव ब्रम्हा मेला भया, अब कछु कहा न जाय ॥
हिल मिल खेला ब्रम्हा सौं, अन्तर रही न रेख ।
समझे का मत एक है, क्या पण्डित क्या शेख ॥
एक राम को जानिकै, दूजा देइ बहाय ।
तीरथ व्रत जप तप नहीं, आतम तत्व समाय ॥