कबीर के दोहे | Kabir Ke Dohe
कबीर के दोहे का संकलन | Kabir Ke Dohe Ka Sankalan
साखी आँखी ज्ञान की
सब काहू का लीजिए, साँचा शब्द निहार ।पक्षपात न कीजिए, कहै कबीर बिचार ॥
कबिरा कलियुग कठिन है, साधु न मानैं कोय ।
कामी, क्रोधी मसखरा, तिन को आदर होय ॥
करनी तो गारा करै, साहब का घर दूर ॥
कौन महूरत थापिया, चांद सूर आकास ॥
कबीर महल बनाइया, ज्ञान गिलावा दीन्ह ।
हरि देखन के कारने, शब्द झरोखा कीन्ह ॥
हेरत-हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराइ ।
बूंद समानी समंद में, सो कत हेरी जाइ ॥
पक्का फल जो गिरि पड़ा, बहुरि न लागै डार ॥
कबीर मन पंछी भया, बहुतक चढ़़या अकास ।
उहाँ ही तैं गिरि पड़या, मन माया के पास ॥
सात समंद की मसि करौं, लेखनि सब बनराइ ।
धरती सब कागद करौं, तऊ हरि गुण लिख्या न जाइ ॥
तन मन सौंपे मृग ज्यूँ, सुनै बधिक का गीत ॥ जेहि मरने से जग डरै, सो मेरे मन आनंद ।
कब मरिहौँ कब पाइहौं, पूरन परमानंद ॥ जब गुण कौ गाहक मिलै, तब गुण लाख बिकाई ।
जब गुण को गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाइ ॥
कस्तूरी कुंडलि बसे, मृग ढूँढै बन माहिं ।
ऐसे घटि-घटि राम हैं, दुनियाँ देखै नाहिं ॥
कबीर आप ठगाइये, और न ठगिये कोइ ।
आप ठगै सुख ऊपजै, और ठगै दख होइ ॥
बिन पानी साबून बिना, निरमल करै सुभाय ॥
कबिरा खेत किसान का मिरगन खाया झार ।
खेत बिचारा क्या करै, घनी करै नहिं बार ॥
माटी कहै कुम्हार सौं, तू क्या रूंदे मोय ।
एक दिन ऐसा होएगा, मैं रूंधूँगी तोय ॥
मरिये तो मरि जाइये, छूटि परै जंजार ।
ऐसा मरना को मरै, दिन में सौ-सौ बार ॥
कामी का गुरु कामिनी, लोभी का गुरु दाम ।
कबिरा का गुरु संत है, संतन का गुरु राम ॥
भक्ति करै कोइ सूरमाँ, जाति बरन कुल खोय ॥
चाह गई चिन्ता मिटी, मनुवा बेपरवाह ।
तिनको कछु न चाहिये, सब साहब पति साह ॥
जहाँ क्रोध तहँ काल है, जहाँ क्षमा तहँ आप ॥ पाहन पूजे हरि मिलें, तो मैं पूजूँ पहार ।
ताते यह चाकी भली, पीसि खाय संसार ॥
बोल तो अनमोल है, जो कोई जानै बोल ।
हिये तराजू तोलिके, तब मुख बाहर खोल ॥
औगुन को तो ना गहे, गुन ही को ले बीन ।
घट- घट महकै मधुप ज्यौं, परमातम ले चीन ॥
घट समुद्र लखि न परै, उठै जो लहरि अपार ।
दिल दरिया समरथ बिना, कौन उतारै पार ॥
रैन समानी भानु में, भानु अकाशे माहिं ।
अकाश समाना शब्द में, शब्द परे कछु नाहि ॥
कबीर माला काठ की, कहि समझावै तोहि ।
मन न फिरावै आपनों, कहा फिरावै मोहि ॥
तीरथ गए द्वै जना, चित चंचल मन चोर ।
एकौ पाप न काटिया, मन दस लादे और ॥
मूरख को समुझावते, ज्ञान गाँठ का जाइ ।
कोयला होइ न ऊजरो नव मन साबन लाइ ॥
राह बिचारी क्या करै, जो पन्थि न चले विचारि ।
आपन मारग छोड़ि के, फिरै उजारि-उजारि ॥
सब ही ते लघुता भली, लघुता ते सब होय ।
जस द्वितीया कौ चन्द्रमा, शीश नाबै सब कोय ॥
हीरा तहाँ न खोलिए, जह हो खोटी हाट ।
सहज की गाँठी बाँधिये, लगिए अपनी बाट ॥
मनुवा तौ चहुँदिसि फिरै, यह तो सुमिरन नाहिं ॥
अच्छा दिन पाछे किया, हरिसों किया न हेत ।
अब पछिताये होत क्या, जब चिरिया चूग गयी खेत ॥
हद छांडि बेहद गया,रहा निरन्तर होय ।
बेहद के मैदान में,रहा कबीरा सोय ॥
साखी आँखी ज्ञान की, समुझि देखु मन माहि ।
बिन साखी संसार कौ, झगरा छूटत नाहि ॥