काली कवच | मां काली कवच | काली कवच इन हिन्दी | Kali Kavach
काली देवी के कवच को मूल संस्कृत में निम्न दिया जा रहा है और उसका हिन्दी में अर्थ भी दिया है । साधक को चाहिए कि पाठ करते समय मूल श्लोक संस्कृत का ही पाठ प्रयोग करें ।
भैरव्युवाच
कालीपूजा श्रुता नाथ भावाश्च विविध: प्रभो ।
इदानीं श्रोतुमिच्छामि कवचं पूर्वसूचितम् ।।
त्वमेव शरणं नाथ त्राहि मां दु:खसङ्कटात् ।
त्वमेव स्त्रष्टा पाता च संहर्ता च त्वमेव हि ।।
टीका – भैरवी ने कहा-हे नाथ ! हे प्राणवल्लभे, प्रभो ! मैने कालीपूजा और उसके विविध भाव सुने, अब पूर्व सूचित कवच सुनने की इच्छा हुई है, उसको वर्णन करके दुःख-संकट से मेरी रक्षा कीजिये । आप ही रचना कर रक्षा करते और संहार करते हो, हे नाथ ! आप ही मेरे आश्रय हो ।
भैरव उवाच
रहस्यं शृणु वक्ष्यामि भैरवि प्राणवल्लभे ।
श्रीजगन्मंगलं नाम कवचं मंत्रविग्रहम् ।
पठित्वा धारयित्वा च त्रैलोक्यं मोहयेत् क्षणात् ।।
टीका – भैरव ने कहा- हे प्राणवल्लभे ! ‘श्री जगन्मंगलनामक’ कवच को कहता हूँ, सुनो। इसके पाठ अथवा धारण करने से प्राणी तीनों लोकों को मोहित कर सकता है ।
नारायणोऽपि यद्दृत्वा नारी भूत्वा महेश्वरम् ।
योगेशं क्षोभमनयद् य्दृत्वा च रघू्द्वहः ।
वरदृप्तान् जघानैव रावणादिनिशाचरान् ।।
टीका – नारायण ने इस कवच को धारण करके नारी रूप से योगेश्वर शिव को मोहित किया था । श्रीरामचन्द्र ने इसको धारण करके वर- दृप्त रावणादि राक्षसों का संहार किया था ।
यस्य प्रसादादीशोऽहं त्रैलोक्यविजयी प्रभु: ।
धनाधिपः कुबेरोऽपि सुरेशोऽभूच्छचीपतिः ।
एवं हि सकला देवा: सर्वसिद्धीश्वराः प्रिये ।।
टीका – हे प्रिये ! इस कवच के प्रभाव से मैं त्रैलोक्य विजयी हुआ, कुबेर इसके प्रसाद से धनाधिप, शचीपति सुरेश्वर और सम्पूर्ण देवतागण सर्वसिद्धीश्वर हुए हैं ।
श्रीजगन्मङ्गलस्यास्य कवचस्य ऋषि: शिवः ।
छन्दोऽनुषुप्देवता च कालिका दक्षिणेरिता ।।
जगतां मोहने दुष्टानिग्रहे भुक्तिमुक्तिषु ।
योषिदाकर्षणे चैव विनियोगः प्रकीर्त्तितः ।।
टीका – इस कवच के ऋषि शिव, छन्द अनुष्टुप, देवता दक्षिणकालिका और मोहन दुष्टनिग्रह भुक्ति-मुक्ति और योषिदाकर्षण में विनियोग है ।
शिरो में कालिका पातु क्रीड्कारैकाक्षरी परा ।
क्रीं क्रीं क्रीं मे ललाटञ्च कालिका खड़गधारिणी ।।
हूँ हूँ पातु नेत्रयुग्मं ह्रीं ह्रीं पातु श्रुती मम ।
दक्षिणा कालिका पातु घ्राणयुग्मं महेश्वरी ।।
क्रीं क्रीं क्रीं रसनां पातु हुं हुं पातु कपोलकम् ।
वचनं सकलं पातु हरीं ह्री स्वाहा स्वरूपिणी ।।
टीका – कालिका और क्रीङ्कारी मेरे मस्तक की, क्री क्रीं क्रीं और खड्गधारिणी कालिका ललाट की, हुँहुँ दोनों नेत्रों की, ह्रीं ह्रीं कर्ण की, दक्षिणा कालिका दोनों घ्राण की, क्रीं क्रीं रसना की, हुँ हुँ कपोलदेश की और हीं हीं स्वाहास्वरूपिणी सम्पूर्ण वदन की रक्षा करें ।
द्वाविंशत्यक्षरी स्कन्धौ महाविद्या सुखप्रदा ।
खड्गमुण्डधरा काली सर्वाङ्गमभितोऽवतु ।।
क्रींहुंहहीं त्र्यक्षरी पातु चामुण्डा हृदयं मम ।
ऐंहुंओए स्तनद्वन्द्वं ह्रीं फट् स्वाहा ककुत्स्थलम् ।।
अष्टाक्षरी महाविद्या भुजौ पातु सकर्त्तका ।
क्रींक्रींहुंहुं ह्रींहीं करौ पातु षडक्षरी मम ।।
टीका – बाईस अक्षर की विद्यारूप सुखदायिनी महाविद्या दोनों स्कन्धों की, खङ्गमुण्डधरा काली सर्वाङ्ग की, क्रीं हुँ ह्रीं चामुण्डा हृदय की, ऐ हुँ ओं ऐं दोनों स्तनों की, ह्रीं फट् स्वाहा कन्धों की, अष्टाक्षरी महाविद्या दोनों भुजाओं की और क्रीं इत्यादि षडक्षरीविद्या दोनों हाथों की रक्षा करें ।
क्रीं नाभि मध्यदेशञ्च दक्षिणा कालिकाऽवतु ।
क्री स्वाहा पातु पृष्ठन्तु कालिका सा दशाक्षरी ।।
ह्रीं क्रीं दक्षिणे कालिके हुंहीं पातु कटीद्वयम् ।
काली दशाक्षरी विद्या स्वाहा पातूरुयुग्मकम् ।।
ॐ हाँ क्रीं मे स्वाहा पातु कालिका जानुनी मम ।।
कालीहुन्नामविद्येयं चतुर्वर्गफलप्रदा ।
टीका – क्रीं नाभिदेश की, दक्षिण कालिका मध्यप्रदेश की, क्रीं स्वाहा और दशाक्षर मन्त्र पीठ की, ह्रीं क्रीं दक्षिणे कालिके ह्रीं ह्रीं कटिकी, दशाक्षरीविद्याऊरु की और ॐ ह्री क्रीं स्वाहा जानुदेश की रक्षा करें । यह विद्या चतुर्वर्गफलदायिनी है ।
क्रीं ह्रीं ह्रीं पातु गुल्फं दक्षिणे कालिकेऽवतु ।
क्रीं हूं हरीं स्वाहा पदं पातु चतुर्दशाक्षरी मम ।।
टीका – क्री ह्रीं ह्रीं गुल्फ की एवं क्री हूँ ह्रीं स्वाहा और चतुर्द्दशाक्षरी विद्या मेरे पाँवों की रक्षा करें ।
खड्गमुण्डधरा काली वरदा भयहारिणी ।
विद्याभिः सकलाभिः सा सर्वाङ्गमभितोऽवतु ।।
टीका – खड्गमुण्डधरा वरदा भयहारिणी काली सब विद्याओं के सहित मेरे सर्वांग की रक्षा करे ।
काली कपालिनी कुल्वा कुरुकुल्ला विरोधिनी ।
विप्रचित्ता तथोग्रोग्रप्रभा दिप्ता घनत्विषः ।।
नीला घना बालिका च माता मुद्रामिता च माम् ।
एताः सर्वा खड्गधरा मुण्डमालाविभूषिताः।
रक्षन्तु मां दिक्षु देवी ब्राह्मी नारायणी तथा
माहेश्वरी च चामुण्डा कौमारी चापराजिता ।।
वाराही नारसिंही च सर्वाश्चामितभूषणाः ।
रक्षन्तु स्वायुधैर्दिक्षु मां विदिक्षु यथा तथा ।।
टीका – काली, कपालिनी, कुल्वा, कुरुकुल्ला, विरोधिनी, विप्रचित्ता, उग्रोग्र प्रभा, दीपा, घनत्विषा, नीला घना, बालिका माता, मुद्रामिता- ये सब खङ्गधारिणी मुण्डमालाधारिणी देवी हमारी दिशाओं की रक्षा करें । ब्राह्मी, नारायणी, माहेश्वरी, चामुण्डा, कौमारी, अपराजिता, वाराही तथा नारसिंही- ये सब असंख्य आभूषणों को धारण करने वाली अपने आयुधों सहित मेरी दिशा, विदिशाओं की रक्षा करें ।
इत्येवं कथितं दिव्यं कवचं परमाद्भुतम् ।
श्रीजगन्मंगलं नाम महामन्त्रौघविग्रहम् ।
त्रैलोक्याकर्षणं ब्रह्मकवचं मन्मुमुखोदितम् ।
गुरुपूजां विधायाथ गृह्णीयात् कवचं ततः ।
कवचं त्रि:सकृद्वाऽपि यावजीवञ्च वा पुनः ।।
टीका – यह कवच ‘जगन्मंगलनामक’ महामंत्र स्वरूप परम अद्भुत कवच कहा गया है । इसके द्वारा त्रिभुवन आकर्षित होता है । गुरु की पूजा करने के उपरान्त कवच को ग्रहण करना चाहिये । इसका यावर्जीवन दिन में एक या तीन बार पाठ करना चाहिये ।
एतच्छतार्द्धमावृत्य त्रैलोक्यविजयी भवेत् ।
त्रैलोक्यं क्षोभयत्येव कवचस्य प्रसादतः ।।
महाकविर्भवेन्मासात्सर्वं सिद्धीश्वरो भवेत् ।।
टीका – इस कवच की पचास आवृत्ति करने से पुरुष त्रैलोक्यविजयी हो सकता है, इस कवच के प्रताप से त्रिभुवन क्षोभित होता है, इस कवच के पाठ करने से एक मास में सभी सिद्धियों का स्वामी हो सकता है ।
पुष्पाञ्जलीन् कालिकायै मूलेनैव पठेत् सकृत् ।
शतवर्षसहस्राणां पूजायाः फलमाप्नुयात् ।।
टीका – मूल मंत्र द्वारा कालिका को पुष्पाञ्जलि देकर एक बार मात्र इस कवच का पाठ करने से शतसहस्रवार्षिकी पूजा का फल प्राप्त होता है ।
भूर्जे विलिखितञ्चैव स्वर्णस्थं धारयेद्यदि ।
शिखायां दक्षिणे बाहौ कण्ठे वा धारयेद्यदि ।
त्रैलोक्यं मोहयेत् क्रोधात् त्रैलोक्यं चूर्णयेत् क्षणात् ।
बह्वपत्या जीववत्सा भवत्येव न संशयः ।।
टीका – इस कवच को भोजपत्र अथवा स्वर्ण पत्र पर लिखकर शिर, मस्तक या दक्षिण-हस्त या कण्ठ में धारण करने से अपने क्रोध से त्रिभुवन को मोहित या चूर्णीकृत करने में समर्थ होता है और जो स्त्री इस कवच को धारण करती है वह बहुत सन्तान वाली और जीववत्सा होती है, इसमें सन्देह नहीं ।
न देयं परशिष्येभ्यो ह्यभक्तेभ्यो विशेषतः ।
शिष्येभ्यो भक्तियुक्तेभ्यश्चान्यथा मृत्युमाध्रुयात् ।।
स्पद्द्धामुद्भूय कमला वाग्देवी मन्दिरे मुखे ।
पौत्रान्तस्थैय्य्यमास्थाय निवसत्येव निश्चितम् ।।
टीका – इस कवच को अभक्त अथवा परशिष्य को नहीं देना चाहिए, भक्तियुक्त अपने शिष्य को दे । इसके विपरीत करने से मृत्यु के मुख में गिरना होता है । इस कवच के प्रभाव से कमला (लक्ष्मी) निश्चल होकर साधक के घर में और वाग्देवी मुख में निवास करती है ।
इदं कवचमज्ञात्वा यो जपेत्कालिदक्षिणाम् ।
शतलक्षं प्रजप्यापि तस्य विद्या न सिध्यति ।
स शस्त्रघातमाप्नोति सोऽचिरान्मृत्युमाप्रुयात् ।।
टीका – इस कवच को जाने बिना जो पुरुष काली मन्त्र का जप करता है, सौ लाख जप करने से भी उसको सिद्धि प्राप्त नहीं होती, और वह पुरुष शीघ्र ही शस्त्राघात से प्राण त्याग करता है ।