षट्चक्र क्या है | षट्चक्र के नाम | षट्चक्र दर्शन व भेदन | षट्चक्र का परिचय | shatchakra in hindi | shatchakra nirupanam

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षट्चक्र क्या है | षट्चक्र के नाम | षट्चक्र दर्शन व भेदन | षट्चक्र का परिचय | shatchakra in hindi | shatchakra nirupanam

मूलाधार चक्र –

इस चक्र का जो कमल है वह रक्तवर्ण है । उसमें चार दल हैं। उन दलों में वँ, शँ, षँ और सँ अक्षरों की स्थिति मानी गई है । इसका यन्त्र पृथ्वी तत्व का द्योतक है और चतुष्कोण है । यन्त्र का रंग पीत है और बीज लँ है । बीज का वाहन ऐरावत हाथी है । यन्त्र के देवता ब्रह्मा और शक्ति डाकिनी हैं । इस यन्त्र के मध्य में स्वयंभू लिंग है जिसके चारों ओर साढ़े तीन फेरे में लिपटी हुई सर्पाकार अपनी पूँछ को अपने मुख में दबाए हुए सुप्त कुण्डलिनी-शक्ति विराजमान है ।

प्राणायाम से जाग्रत होकर यह शक्ति विद्युतलता-रूप में मेरुदण्ड के भीतर ब्रह्मनाड़ी में प्रविष्ट होकर ऊपर को चलती है । इसकी स्थिति अग्नि-चक्र में दिखाई गई है ।

मूलाधार चक्र की स्थिति रीढ़ की हड्डी के सबसे नीचे के भाग में त्रिकास्थि (कन्द) प्रदेश से लगे भाग में गुदा और लिंग के मध्य भाग में है ।

अग्नि चक्र –

इसके विषय में कहा गया है कि आधार पद्म की कर्णिकाओं के गह्वर में वज्रा नाड़ी के मुख में त्रिपुरसुन्दरी का निवास स्थान त्रिकोण शक्तिपीठ है । वह कामरूप, कोमल और विद्युत के समान तेजपुंज है । उसमें कन्दर्प नामक वायु का निवास है । वह वायु जीवधारक बन्धुजीव पुष्प के समान विशेष रक्त वर्ण तथा कोटि सूर्य के समान प्रकाशशाली है । उक्त त्रिकोण शक्तिपीठ में स्वयंभू लिंग विराजमान है जो पश्चिम मुख, तप्त कांचनतुल्य कोमल, ज्ञान और ध्यान का प्रकाश है । इस स्वयम्भूलिंग के ऊपर मृणाल अर्थात् कमल की डण्डी के तन्तु के सदृश सूक्ष्म शंखवेष्टयुक्ता और साढ़े तीन वलयों के आकार की सर्पतुल्य कुण्डलाकृति नवीन विद्युन्माला के समान प्रकाशशालिनी कुल कुण्डलिनी निज मुख से उस स्वयम्भूलिंग के मुख को आवृत कर निद्रिता रहती है ।

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उसके प्रबोध की क्रियाएँ अति कठिन, गोप्य और गुरु-कृपा से ही उपलब्ध हो सकती है । मूलाधार चक्र का ध्यान करने से व्यक्ति को वाक्य-काव्य-प्रबन्ध-दक्षता-सिद्धि प्राप्त होती है और वह निरोगी होता है ।

स्वाधिष्ठान चक्र –

इस चक्र की स्थिति लिंग स्थान के सामने है । इसका कमल सिन्दूर वर्णवाले 6 दलों का है । दलों पर बँ, भँ, मँ, यँ, रँ, लँ की स्थिति मानी गई है । इस चक्र का यन्त्र जल-तत्व का द्योतक है और अर्धचन्द्राकार है । इस अर्धचन्द्राकार यन्त्र का रंग चन्द्रवत शुभ्र है । बीज वँ है और बीज का वाहन मकर है । यन्त्र के देवता विष्णु तथा देवशक्ति राकिनी है ।

मणिपूरक चक्र –

यह चक्र नाभिप्रदेश के सामने मेरुदण्ड के भीतर स्थित है (नाभिमूल)। इसका कमल नीलवर्ण वाले दस दलों का है और इन दलों पर डँ, ढँ, गँ, तँ, थं, दें, धँ, नँ, पँ, फँ अक्षरों की स्थिति मानी गई है । इस चक्र का यन्त्र त्रिकोण है और अग्नितत्व का द्योतक है । इसके तीनों पार्श्व में द्वार के समान तीन ‘स्वस्तिक’ स्थित हैं । यन्त्र का रंग वाल रवि-सदृश है। बीज रँ है और बीज का वाहन मेष है । यन्त्र के देवता वृद्ध रुद्र तथा शक्ति लाकिनी है । इस चक्र के देवता का ध्यान जिस साधक को पूर्णतया सिद्ध हो, वह पालन और संहार जैसे कार्य कर सकता है । जीव को अत्याधिक प्रसन्नता प्राप्त हो जाती है । वह ‘पर-काया-प्रवेश’ कर सकता है । वह पारस के समान लोहे को सोना बना सकता है । बीमार रोगी को ठीक कर सकता है । दिव्यशक्ति से वह दूर की घटना देख सकता है ।

अनाहत चक्र –

हृदय-प्रदेश के सामने वाला यह चक्र अरुण वर्ण के द्वादश दलों से युक्त कमल का बना है । दलों पर कँ, खँ, गँ, घ, ङ, चँ, छँ, जँ, झँ, अँ, टँ, ठँ अक्षर स्थित है । चक्र का यन्त्र धूम्रवर्ण, षट्कोण तथा वायुतत्व का सूचक है । यन्त्र का बीज यँ है और बीज का वाहन मृग है । यन्त्र के देवता ईशान रुद्र और देवशक्ति काकिनी हैं । इस चक्र के मध्य में शक्ति त्रिकोण है जिसमें विद्युत-सा प्रकाश व्याप्त है । इस त्रिकोण से सम्बद्ध ‘वाण’ नामक स्वर्ण कान्तिवाला शिवलिंग है जिसके ऊपर एक छिद्र है । इस छिद्र से लगा हुआ अष्ट-दलवाला हत्पुण्डरीक नामक कमल है । इसी हत्पुण्डरीक में उपास्य देव का ध्यान किया जाता है । ‘विश्वसार तन्त्र’ में कहा गया है कि इस स्थान में उत्पन्न होनेवाली अनाहत ध्वनि ही भगवान सदाशिव है । त्रिगुणमय ॐकार इसी स्थान में व्यक्त होता है और निर्वात स्थान की दीप-ज्योति के समान जीवात्मा इसी स्थान में है ।

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इसका ध्यान करने से इहलोक और परलोक में शुभ फल की प्राप्ति हुआ करती है । साधक को दूर की घटनाओं को देखने की शक्ति पैदा हो जाती है और वह दूर की बातों को सुन भी सकता है । वह सिद्ध पुरुषों को आकाश में विचरते हुए देख सकता है । वह आकाश-गमन भी कर सकता है ।

विशुद्धि चक्र –

इस चक्र की स्थिति कण्ठ प्रदेश में है । इसका कमल धूम्रवर्णवाले सोलह दलों का है । इन दलों पर अॅ से अ: तक सोलह स्वरों की स्थिति मानी गई है । चक्र का यन्त्र पूर्ण चन्द्राकार है और पूर्ण चन्द्र की प्रभा से देदीप्यमान है । यह यन्त्र शून्य अथवा आकाश तत्त्व का द्योतक है । यन्त्र का बीज “हैं” है और बीज का वाहन हस्ती है । यन्त्र के देवता और देवशक्ति पंचवक्त्र सदाशिव तथा शाकिनी हैं । विशुद्धि चक्र इसलिए कहते हंव कि जीव यहाँ भ्रूमध्यस्थित परमेश्वर को देखकर वासना जाल से मुक्त होता है । यहाँ अर्धनारीनटेश्वर देवता हैं । इन नटेश्वर का अर्धाङ्ग शुभ्र और सुवर्णमय है । यही मोक्ष-द्वार है । इस स्थान में ध्यान करने से साधक त्रिकालज्ञ होता है ।

इस चक्र पर ध्यान करने से योगी पूर्णतया निरोगी हो जाता है और अगर चाहे तो सहस्रों वर्षों तक जी सकता है जैसा कि आदिकवि वाल्मीकि एक हजार वर्षों के लिए समाधि में चले गए थे ।

आज्ञाचक्र –

यह चक्र भ्रूमध्य के पीछे मस्तिष्क में स्थित है । इसका कमल श्वेत वर्ण के दो दलों वाला है । इन दलों पर हैं, क्ष अक्षरों की स्थिति मानी गई है । चक्र का यन्त्र विद्युत्प्रभायुक्त ‘इतर’ नामक अर्द्धनारीश्वर का लिंग है । यह यन्त्र महत् तत्व का स्थान है । यन्त्र का बीज प्रणव है । बीज का वाहन नाद है और उसके ऊपर बिन्दु भी स्थित है । यन्त्र के देवता उपर्युक्त इतर लिंग है और शक्ति हाकिनी है । इस चक्र का नाम आज्ञाचक्र इसलिए रखा गया है कि सहस्रार में स्थित श्री गुरु से इसी स्थान में आज्ञा मिलती है । आज्ञा चक्र में योनित्रिकोण है । अग्नि, सूर्य और चन्द्र इस त्रिकोण में एकत्र होते हैं । प्रकृति तत्व भी इसी स्थान में है, महत्तव के बुद्धि, चित्त, अहंकार और संकल्प-कल्पात्मक मन ये चार भेद हैं । अव्यक्त प्रणवरूप आत्मा का यही स्थान है ।

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सहस्त्रार चक्र –

इन छह चक्रों के बाद कशेरुकदण्ड के ऊपरी सिरे के समाप्ति स्थान पर मस्तिष्क में सहस्रदल वाला सहस्रार चक्र है जहाँ परम शिव विराजमान रहते हैं । इसके हजार दलों पर बीस-बीस बार प्रत्येक स्वर तथा व्यंजन स्थित माने गए हैं । परम शिव से कुण्डलिनी शक्ति का संयोग ही समाधि का ध्येय है । इस स्थान को कैलास भी कहते हैं ।

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