वट सावित्री व्रत कथा | वट सावित्री पूजा | वट सावित्री कथा | वट सावित्री अमावस्या की कथा | vat savitri 2023 | vat savitri vrat | vat savitri vrat katha

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वट सावित्री व्रत कथा | वट सावित्री पूजा | वट सावित्री कथा | वट सावित्री अमावस्या की कथा | vat savitri 2023 | vat savitri vrat | vat savitri vrat katha

वट देववृक्ष है । वट वृक्ष के मूल में भगवान् ब्रह्मा, मध्य में विष्णु तथा अग्रभाग में देवाधिदेव शिव स्थित रहते हैं । देवी सावित्री भी वटवृक्ष में प्रतिष्ठित रहती हैं । इसी अक्षयवट पर प्रलय के अन्तिम चरण में भगवान् श्रीकृष्ण ने बाल रूप में मार्कण्डेय ऋषि को प्रथम दर्शन दिया था ।

प्रयागराज में गंगा के तट पर वेणीमाधव के निकट अक्षय वट प्रतिष्ठित है । भक्तशिरोमणि तुलसीदास ने संगम स्थित इस अक्षय वट को तीर्थराज का छत्र कहा है –

संगमु सिंहासनु सुठि सोहा।
छत्रु अखयबटु मुनि मनु मोहा॥

इसी प्रकार तीर्थों में पंचवटी का भी विशेष महत्त्व है। पाँच वटों से युक्त स्थान को पंचवटी कहा गया है । कुम्भ जमुनि के परामर्श से भगवान् श्रीराम ने सीता एवं लक्ष्मण के साथ वनवास काल में यहाँ निवास किया था ।

हानिकारक गैसों को नष्ट कर वातावरण को शुद्ध करने में वटवृक्ष का विशेष महत्त्व है । वटवृक्ष की औषधि के रूप में उपयोगिता से सभी परिचित हैं । जैसे वटवृक्ष दीर्घकाल तक अक्षय बना रहता है, उसी प्रकार दीर्घ आयु, अक्षय सौभाग्य तथा निरन्तर अभ्युदय की प्राप्ति के लिये वटवृक्ष की आराधना की जाती है ।

इसी वटवृक्ष के नीचे सावित्री ने अपने पति व्रत से मृत पति को पुनः जीवित किया था । तब से यह व्रत वट सावित्री के नाम से किया जाता है । ज्येष्ठ मास के व्रतों में ‘वटसावित्री-व्रत’ एक प्रभावी व्रत है । इसमें वटवृक्ष की पूजा की जाती है । महिलाएँ अपने अखण्ड सौभाग्य एवं कल्याण के लिये यह व्रत करती हैं । सौभाग्यवती महिलाएँ श्रद्धा के साथ ज्येष्ठ कृष्ण त्रयोदशी से अमावास्या तक तीन दिनों का उपवास रखती हैं ।

त्रयोदशी के दिन वट वृक्ष के नीचे व्रत का इस प्रकार संकल्प लेना चाहिये –

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मम वैधव्यादिसकलदोषपरिहारार्थ ब्रह्मसावित्रीप्रीतत्यर्थं
सत्यवत्सावित्रीप्रीत्यर्थ च वटसावित्रीव्रतमहं करिष्ये।

इस प्रकार संकल्प कर यदि तीन दिन उपवास करने की सामर्थ्य न हो तो त्रयोदशी को रात्रिभोजन, चतुर्दशी को अयाचित तथा अमावास्या को उपवास करके प्रतिपदा को पारण करना चाहिये । अमावस्या को एक बाँस की टोकरी में सत्यवान् एवं सावित्री की प्रतिमा स्थापित कर वट के समीप यथाविधि पूजन करना चाहिये । साथ ही यम का भी पूजन करना चाहिये । पूजन के अनन्तर स्त्रियाँ वट की पूजा करती हैं तथा उसके मूल को जल से सींचती हैं । वट की परिक्रमा करते समय एक सौ आठ बार या यथाशक्ति सूत लपेटा जाता है ।

नमो वैवस्वताय इस मन्त्र से वटवृक्ष की प्रदक्षिणा करनी चाहिये ।

अवैधव्यं च सौभाग्यं देहि त्वं मम सुव्रते।
पुत्रान् पौत्रांश्च सौख्यं च गृहाणार्ध्यं नमोऽस्तु ते॥

इस मन्त्र से सावित्री को अर्ध्य देना चाहिये और वटवृक्ष का सिंचन करते हुए निम्न प्रार्थना करनी चाहिये –

वट सिंचामि ते मूलं सलिलैरमृतोपमैः ।
यथा शाखाप्रशाखाभिर्वृद्धोऽसि त्वं महीतले ॥
तथा पुत्रैश्च पौत्रैश्च सम्पन्नं कुरु मां सदा॥

चने पर रुपया रखकर बायने के रूप में अपनी सास को देकर आशीर्वाद लिया जाता है । सौभाग्य-पिटारी और पूजा सामग्री किसी योग्य ब्राह्मण को दी जाती है । सिन्दूर, दर्पण, मौली (नाल), काजल, मेहँदी, चूड़ी, माथे की बिन्दी, हिंगुल, साड़ी, स्वर्णाभूषण इत्यादि वस्तुएँ एक बाँस टोकरी में रखकर दी जाती हैं – यही सौभाग्य-पिटारी के नाम से जानी जाती है । सौभाग्यवती स्त्रियों का भी पूजन होता है । कुछ महिलाएँ केवल अमावस्या को एक दिन का ही व्रत रखती हैं । इस व्रत में सावित्री सत्यवान् की पुण्य कथा का श्रवण करती हैं ।

वट सावित्री कथा | Vat Savitri Vrat Katha


एक समय की बात है कि मद्र देश में अश्वपति नाम के महान् प्रतापी और धर्मात्मा राजा राज्य करते थे । उनकी कोई संतान न थी । पण्डितों के कथनानुसार राजा ने संतान हेतु यज्ञ करवाया । उसी के प्रताप से कुछ समय बाद उन्हें कन्या की प्राप्ति हुई, जिसका नाम उन्होंने सावित्री रखा । समय बीतता गया । कन्या बड़ी होने लगी । जब सावित्री को वर खोजने के लिये कहा गया तो उसने द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान् को पति रूप में वरण कर लिया ।

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इधर यह बात जब नारद जी को मालूम हुई तो वे राजा अश्वपति के पास आकर बोले कि आपकी कन्या ने वर खोजने में बड़ी भारी भूल की है । सत्यवान् गुणवान् तथा धर्मात्मा अवश्य है, परंतु वह अल्पायु हैं । एक वर्ष बाद ही उसकी मृत्यु हो जाएगी । नारद जी की बात सुनकर राजा उदास हो गये ।

उन्होंने अपनी पुत्री को समझाया ‘पुत्रि! ऐसे अल्पायु व्यक्ति से विवाह करना उचित नहीं है, इसलिये तुम कोई और वर चुन लो।’ इस पर सावित्री बोली-‘तात! आर्य कन्याएँ अपने पति का वरण एक ही बार करती हैं, अतः अब चाहे जो हो, मैं सत्यवान् को ही वर रूप में स्वीकार करूंगी।’

सावित्री के दृढ़ रहने पर आखिर राजा अश्वपति विवाह का सारा सामान और कन्या को लेकर वृद्ध सचिव सहित उस वन में गये जहाँ राजश्री से नष्ट, अपनी रानी और राज कुमार सहित एक वृक्ष के नीचे द्युमत्सेन रहते थे । विधि-विधानपूर्वक सावित्री और सत्यवान् का विवाह कर दिया गया ।

वन में रहते हुए सावित्री सास-ससुर और पति की सेवा में लगी रही । नारद जी के बतलाये अनुसार पति के मरण काल का समय पास आया तो वह उपवास करने लगी । नारद जी ने जो पति की मृत्यु का दिन बतलाया था, उस दिन जब सत्यवान् कुल्हाड़ी लेकर लकड़ी काटने के लिये वन में जाने को तैयार हुआ, तब सावित्री भी अपने सास-ससुर से आज्ञा लेकर उसके साथ वन को चली गयी ।

वन में सत्यवान् ज्योंही पेड़ पर चढ़ने लगा उसके सिर में असह्य पीड़ा होने लगी । वह सावित्री की गोद में अपना सिर रखकर लेट गया । थोड़ी देर बाद सावित्री ने देखा कि अनेक दूतों के साथ हाथ में पाश लिये यमराज खड़े हैं । यमराज सत्यवान् के अंगुष्ठप्रमाण जीव को लेकर दक्षिण दिशा की ओर चल दिये । सावित्री को आते देख यमराज ने कहा-‘हे पतिपरायणे! जहाँ तक मनुष्य-मनुष्य का साथ दे सकता है, वहाँ तक तुमने अपने पति का साथ दे दिया । अब तुम वापस लौट जाओ।’

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यह सुनकर सावित्री बोली-‘जहाँ तक मेरे पति जायँगे, वहाँ तक मुझे जाना चाहिये । यही सनातन सत्य है।’ यमराज ने सावित्री की धर्मपरायण वाणी सुनकर वर माँगने को कहा । सावित्री ने कहा -‘मेरे सार-ससुर अन्धे हैं, उन्हें नेत्र ज्योति दें।’ यमराज ने ‘तथास्तु’ कहकर उसे लौट जाने को कहा, किंतु सावित्री उसी प्रकार यम के पीछे-पीछे चलती रही । यमराज ने उससे पुनः वर माँगने को कहा । सावित्री ने वर माँगा-‘मेरे ससुर का खोया हुआ राज्य उन्हें वापस मिल जाय।’ यमराज ने ‘तथास्तु’ कहकर उसे लौट जाने को कहा, परंतु सावित्री अडिग रही ।

सावित्री की पति-भक्ति और निष्ठा देखकर यमराज अत्यन्त द्रवीभूत हो गये । उन्होंने सावित्री से एक और वर माँगने के लिये कहा । तब सावित्री ने यह वर माँगा कि ‘मैं सत्यवान् के सौ पुत्रों की माँ बनना चाहती हूँ । कृपा कर आप मुझे यह वरदान दें।’ सावित्री की पति-भक्ति आदि से प्रसन्न हो इस अन्तिम वरदान को देते हुए यमराज ने सत्यवान् को अपने पाश से मुक्त कर दिया और वे अदृश्य हो गये । सावित्री अब उसी वटवृक्ष के पास आयी । वटवृक्ष के नीचे पड़े सत्यवान् के मृत शरीर में जीव का संचार हुआ और वह उठकर बैठ गया ।

सत्यवान् के माता-पिता की आँखें ठीक हो गयीं और उनका खोया हुआ राज्य वापस मिल गया । इससे सावित्री के अनुपम व्रत की कीर्ति सारे देश में फैल गयी ।

इस प्रकार यह मान्यता स्थापित हुई कि सावित्री की इस पुण्य कथा को सुनने पर तथा पति-भक्ति रखने पर महिलाओं के सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण होंगे और सारी विपत्तियाँ दूर होंगी।

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