कुंडलिनी चक्र | कुंडलिनी चक्र कैसे जाग्रत करें | कुंडलिनी चक्र क्या है | कुंडलिनी चक्र का महत्व | kundalini chakra | kundalini jagran kaise karen

कुंडलिनी चक्र | कुंडलिनी चक्र कैसे जाग्रत करें | कुंडलिनी चक्र क्या है | कुंडलिनी चक्र का महत्व | kundalini chakra | kundalini jagran kaise karen

इन चक्रों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार से है । इन षट्चक्रों के लिए प्रस्तुत चित्र का अवलोकन करें । इसमें छः चक्र दिखाए गए हैं । सबसे नीचे अग्निचक्र दिखाया गया है । ये सब कुण्डलिनी से ही सम्बन्धित हैं ।

ऋषि-मुनियों का कहना था कि इस कुण्डलिनी पर साधारण मानव का कोई ऐच्छिक नियन्त्रण नहीं होता और इस तरह यह शरीर में अपना कार्य करते हुए भी, यह कुण्डलिनी सोई रहती है (अर्थात् हमारा ऐच्छिक नियन्त्रण नहीं होता है)।

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विशेष-विशेष ‘योग-प्रक्रिया’ के द्वारा कुण्डलिनी को जाग्रत कर इन छ: चक्रों में ऐच्छिक शक्ति का संचार करते हुए एवं कुण्डलिनी को सुषुम्णा में जगाकर मस्तिष्क में स्थित सहस्रार में ले जाने पर योगसिद्धि प्राप्त होती है । तब वह महामानव अपनी बीमारियों से अपने आपको बचा कर पुनः स्वस्थ हो सकता है और अपनी आयु बढ़ा सकता है ।

अग्नि चक्र


यह त्रिकोण के आकार का, सब चक्रों से नीचे बना हुआ है । इसमें लिंग के आकार की आकृति है जिसके चारों ओर साढ़े तीन लपेट लगाए हुए अपनी पूँछ अपने मुख में दबाए हुए, सोई हुई कुण्डलिनी शक्ति विराजमान है । यह स्थान सुषुम्णा का सबसे नीचे का सिरा है । प्राणायाम से जाग्रत होकर यह शक्ति विद्युतलतारूप में कशेरुक दण्ड के भीतर ब्रह्मनाड़ी में प्रविष्ट होकर ऊपर को चलती है और ब्रह्मरन्ध्र पर्यन्त सहस्रदल कमल से जा मिलती है ।

मूलाधार चक्र – इस चक्र की स्थिति रीढ़ की हड्डी के सबसे नीचे के भाग में त्रिकास्थि (कन्द) प्रदेश से लगे भाग में गुदा और लिंग के मध्य भाग में है ।

स्वाधिष्ठान चक्र – इस चक्र की स्थिति लिंग के सामने है ।

मणिपूर चक्र – यह चक्र नाभि मूल में स्थित है।

अनाहत चक्र – यह चक्र हृदय-स्थान में है।

विशुद्धि चक्र – इस चक्र की स्थिति कण्ठ प्रदेश में है ।

आज्ञा चक्र – यह चक्र भ्रूमध्य के पीछे मस्तिष्क में स्थित है ।

सहस्त्रार चक्र


यह मस्तिष्क के उच्चस्थ स्थान में है । इन छः चक्रों के बाद मेरुदण्ड (कशेरुक दण्ड) के ऊपरी सिरे से भी ऊपर प्रमस्तिष्क में सहस्रदल कमल वाला सहस्रार चक्र है जहाँ परम शिव विराजमान रहते हैं ।

इसके हजार दलों पर बीस-बीस बार प्रत्येक स्वर तथा व्यंजन स्थित माने गए हैं । परम शिव से कुण्डलिनी-शक्ति का योग ही योगी की समाधि का ध्येय है । यह विषय अत्यन्त गहन है ।

यह भी ज्ञातव्य है कि इड़ा नाड़ी चन्द्र-रूपिणी, पिंगला सूर्य-रूपिणी है और सुषुम्णा चन्द्र-सूर्य-अग्नि-रूपिणी है । इस तरह सुषुम्णा त्रिगुणमयी है । मूल से उत्थित इड़ा और पिंगला मेरुदण्ड (कशेरुक दण्ड) के वाम और दक्षिणी भाग में समस्त चक्रों (पद्मों) को वेष्टन करके आज्ञाचक्र पर्यन्त धनुष आकार से जाकर भ्रूमध्य के ऊपर ब्रह्मरन्ध्र मुख में संगता हो नासारन्ध्र में प्रवेश करती है । भ्रूमध्य के ऊपर जहाँ पर इड़ा व पिंगला मिलती है, वहाँ पर मेरुमध्य स्थित सुषुम्णा भी जा मिलती है । इसलिए यह स्थान ‘त्रिवेणी’ कहलाता है ।

शास्त्र में इन तीनों नाड़ियों को गंगा, यमुना और सरस्वती कहा गया है । त्रिवेणी में योगबल से जो योगी अपनी आत्मा को स्नान करा सकते हैं, उनको ‘मोक्ष’ की प्राप्ति होती है। यह भी कहा गया है कि सहस्रदलकमल से निर्मित पीयूषधारा को जो योगी निरन्तर पान करता है वह अपनी मृत्यु को मारकर कुलजय द्वारा चिरंजीवी हो जाता है । इसी सहस्रदलकमल में कुलरूपा कुण्डलिनी महाशक्ति का लय होने पर चतुर्विध सृष्टि का भी परमात्मा में लय हो जाता है ।

मूलाधार में चार दलों का जो पद्म है, इस अवस्था में वहाँ की कुण्डलिनी शक्ति निश्चय कर अपने स्थान को त्याग कर देती है । क्रमशः कुण्डलिनी षट्चक्र भेदन द्वारा सहस्रदलकमल में जाकर लय को प्राप्त हो जाती है । यहाँ शिवशक्ति संयोग रूप मुक्ति-क्रिया कहलाती है, और अवस्था में वह योगी अखण्डज्ञान-रूपी निरंजन परमात्मा के रूप को प्राप्त कर मुक्त हो जाता है ।

इसी सन्दर्भ में आगे कहा गया है कि प्राणशक्ति निरन्तर इड़ा और पिंगला नाड़ियों से होकर प्रवाहित होती रहती है । योगी यदि किसी साधनविशेष से (प्राणायाम और बन्धों के द्वारा) प्राण को सुषुम्णा नाड़ी के नीचे के द्वार से निकाल ले जाए, जो मुँदा हुआ है, तो उसकी कुण्डलिनी जो सदा सोई रहती है, जाग्रत होकर धीरे-धीरे, किन्तु दृढ़ता के साथ, जीवन के ध्येय की ओर अग्रसर होती है और सहस्रार में जाकर परमात्मा से मिल जाती है । इस स्थिति में साधक को बहुत से विचित्र आध्यात्मिक अनुभव होते हैं । इस तुरीयावस्थारूप परम ध्येय को प्राप्त करने के लिए ही योगी प्राणायाम का अभ्यास करता है जिसका प्रारम्भिक स्वरूप पूरक, कुम्भक और रेचक है और क्रमशः श्वाँस, नाड़ी और विचार के प्रवाह को संयत कर अन्त में ‘सूक्ष्म प्राण’ को अधीन करने में समर्थ होता है । वश में किए हुए प्राण की सहायता से वह जगत के मायाजाल को छिन्न-भिन्न कर देता है ।

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