विक्रम बेताल पच्चीसी – श्राप | Vikram Betal Pachisi

विक्रम बेताल पच्चीसी – श्राप | Vikram Betal Pachisi

विक्रम खुश था कि इस बार कहानी सुनकर भी उसने बेताल को भागने नहीं दिया था । बेताल खामोशी से उसके कंधे पर लदा हुआ था ।

अभी वे थोड़ी दूर ही पहुंचे थे कि अचानक बेताल पुनः बोला – “सुनो विक्रम ! तुम बड़ी लम्बी मंजिल तय करोगे और थक जाओगे, इसलिए बेहतर यही है कि मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूं ताकि सफर भी कट जाए और थकावट भी महसूस न हो । मेरी यह कहानी बड़ी ही शिक्षाप्रद व मनोरंजक है।”

देखो बेताल ! अब तक तुम मेरे शिकंजे से छूटने की बहुत कोशिश कर चुके हो और हर बार असफल रहे हो । आखिर तुम मेरे साथ खामोशी से क्यों नहीं चलते ?”

“मैं बेताल हूं। मैं खामोश नहीं रह सकता, मगर तुम क्यों बोलते हो ?”

“मेरा सिर टुकड़े-टुकड़े होने की बात कहकर तुम ही मुझे विवश करते हो । और फिर, जहां सवाल न्याय-अन्याय का हो, वहां भला मैं कैसे खामोश रह सकता हूं।”

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“फिर तुम मुझे उस योगी के पास ले जाने में सफल नहीं हो पाओगे विक्रम।” कहकर बेताल ने एक जानदार कहकहा लगाया ।

विक्रम खामोश रहा । उसने अपनी पकड़ और सख्त कर दी ।

“अब तुम मेरी नई कहानी सुनो।” कहकर बेताल बोला –

एक समय की बात है, पुण्यपुर नामक राज्य में राजा वीरभद्र शासन करते थे । वे बड़े ही न्यायशील, गुणी और शक्तिशाली थे । उनका सत्यमणि नामक एक मंत्री था। वह भी राजा की तरह गुणी, निडर और सत्यवादी था ।

एक बार मंत्री का मन कुछ उचाट-सा हो गया तो उसने अपनी पत्नी के साथ किसी तीर्थस्थल पर जाकर मन को शान्त करने का विचार किया । राजा ने भी उसे खुशी-खुशी अनुमति दे दी । इस प्रकार मन्त्री सत्यमणि को छुट्टी मिल गई । वह अपनी धर्मपत्नी को साथ लेकर तीर्थ-यात्रा पर चला गया | उसने घूम-घूमकर पवित्र तीर्थस्थलों की यात्रा की ।

एक दिन की बात है, सत्यमणि घूमता-फिरता समुद्र तट पर जा पहुंचा और वहीं ठहर गया । वह समुद्र की रेत पर लेटा सुहावने आसमान का नजारा देख रहा था, जहां पूर्ण चन्द्रमा खिला हुआ था । उसकी शीतल किरणे समुद्र के जल पर बिखर रही थीं जिसके कारण पूरा समुद्र स्वर्णिम-सा दिखाई दे रहा था ।

लगभग आधी रात के समय वहां उसे एक विचित्र दृश्य दिखाई दिया, उसने देखा कि समुद्र में से एक बहुत ही खूबसूरत वृक्ष उगता जा रहा है । वह वृक्ष जगमगाती रोशनी से नहा रहा था । उस पर हीरे-मोती, जुमरंद फल के रूप में उगकर अपनी आभा बिखेर रहे थे । वृक्ष की ऊपरी शाखा पर एक सर्वांग सुन्दरी, हाथों में वीणा लिए संगीत की मधुर लहरियां वातावरण में बिखेर रही थी । मन्त्री, सत्यमणि अपलक, मन्त्रमुग्ध सा, उस दृश्य को निहार रहा था । यह किसी अलौकिक दृश्य से कम नहीं था । इस दिव्य चमत्कार को देखकर, उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा । उसे ऐसा लगा जैसे स्वर्ग के नन्दन वन में घूमते हुए वह किसी अप्सरा के सामने जा पहुंचा हो ।

इस दृश्य को देखकर वह तुरन्त अपने राज्य की ओर लौट पड़ा । राजा के पास पहुंचकर उसने कहा—“महाराज ! मैंने तीर्थ-यात्रा में एक अद्भुत आश्चर्य देखा है।”

“कैसा आश्चर्य सत्यमणि ?”

सत्यमणि ने राजा को बताया – “महाराज! समुद्र तट पर मैंने एक ऐसा आलौकिक मंजर देखा है कि अब तक स्तम्भित हूं । वहां मैंने समुद्र के बीचों-बीच एक वृक्ष उगते देखा।”

“समुद्र के बीच वृक्ष ?” वीरभद्र चौंके–“क्या कहते हो?”

“हां महाराज यह सत्य है। आगे सुनिए… ।” कहते हुए सत्यमणि ने जो कुछ भी अपनी आंखों से देखा था, वह सब सच-सच राजा को बता दिया ।

सुनकर राजा भी विस्मित हो उठा । उसने पूछा-“यह किस समय की घटना है सत्यमणि?”

“उस समय लगभग आधी रात गुजर चुकी थी।”

बात ही ऐसी थी कि राजा वीरभद्र अपनी उत्सुकता को न रोक सका, उसी समय उसने उस समुद्र तट पर जाने का निर्णय कर लिया । और जब आधी रात के लगभग वह समुद्र तट पर उपस्थित था तो उसके सामने वैसा ही दृश्य उपस्थित हुआ जैसा कि सत्यमणि ने बताया था ।

इस दृश्य को देखकर, राजा वीरभद्र तुरन्त तैरकर उस वृक्ष के पास जा पहुंचा और जैसे ही उसने उस सुन्दरी को पकड़ना चाहा, वैसे ही वह समुद्र में कूदकर भागने लगी ।

मगर आखिर राजा ने उसका पीछा करके उसे पकड़ लिया और कहा-“तुम कौन हो ? किस लोक की परी हो ? मैं तुम्हारे साथ विवाह करना चाहता हूं।”

राजा के मुख से ऐसे वचनों को सुनकर उस सुन्दरी ने कहा-“हे राजन! यदि आप मुझसे विवाह करना ही चाहते हैं, तो आपको चतुर्दशी की रात तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी । मुझे आपके साथ विवाह करने में कोई आपत्ति नहीं है । आप जैसे गुणवान व शक्तिशाली राजा से विवाह करके मैं स्वयं को भाग्यशाली समझुंगी।”

यह सुनकर राजा वीरभद्र ने सुन्दरी से पूछा-“चतुर्दशी की अन्धेरी रात का यह क्या मामला है |

सुन्दरी ने कहा-“आप खुद ही देख लेंगे, कृपया प्रतीक्षा करें।”

चतुर्दशी की अंधेरी रात को एक विशालकाय राक्षस वहां आया । आते ही उसने सुन्दरी को बाहुपाश में लेकर उसका आलिंगन करना चाहा । राजा उसकी इस हरकत को देख रहा था । उसको सुन्दरी के साथ जबरदस्ती करते देखकर राजा ने अपनी तलवार म्यान से बाहर निकाली और उस राक्षस को युद्ध के लिए ललकारा ।

राजा वीरभद्र की ललकार सुनकर, वह तुरन्त ही उस पर झपटा लेकिन राजा ने अपनी दुधारी तलवार के एक ही वार से उस राक्षस का सिर धड़ से अलग कर दिया । इस प्रकार राक्षस की जीवनलीला समाप्त हो गई । यह देखकर वह सुन्दरी बहुत प्रसन्न हुई और दौड़कर राजा के पास आई तथा उसके गले से लिपट गई ।

“हे सुन्दरी! अब बताओ कि इस घटना का क्या रहस्य था ?”

राजा की उत्कण्ठा को भांपकर सुन्दरी ने कहा – “हे राजन ! हर चतुर्दशी की अन्धेरी रात को मैं उस राक्षस के अधीन हो जाया करती थी । इस बात का मुझे श्राप मिला हुआ था।”

राजा वीरभद्र ने पूछा-“यह श्राप तुम्हें किसने दिया था ?”

राजा के मुख से ऐसे वचनों को सुनकर अश्रुपूरित नेत्रों से सुन्दरी ने बताया – यह श्राप किसी और ने नहीं बल्कि मेरे पिता ने ही मुझे दिया था, राजन ! मैं गंधर्व विद्याधर की पुत्री हूं । मैं प्रतिदिन अपने पिताश्री के साथ ही भोजन किया करती थी । एक दिन अपनी सहेलियों के साथ खेलते हुए मुझे भोजन का समय याद न रहा, जिसके कारण पिताश्री को अकेले ही भोजन करना पड़ा । और जब मैं खेलने के बाद घर पहुंची, तो मेरे पिताश्री ने मुझे श्राप दे दिया कि हर चतुर्दशी की अंधेरी रात को तू एक दैत्य के वश में हुआ करेगी ।

इस श्राप को पाकर मैं बहुत रोई गिड़गिड़ाई ।

उन्होंने श्राप तो दे दिया, लेकिन बाद में उन्हें पछताना भी पड़ा । फिर कुछ देर के बाद जब उनका क्रोध शान्त हुआ, तो उन्होंने मुझ पर कृपा करके एक वरदान भी दिया कि कोई राजकुल का वीर पुरुष आकर तुम्हें उस दैत्य के चंगुल से मुक्ति दिलाएगा और उस दिन से आज तक मैं हर रोज समुद्र में से निकलकर कल्पवृक्ष के ऊपर बैठकर, किसी वीर राजपुरुष के आने की प्रतीक्षा किया करती थी कि कब कोई वीर राजपुरुष मुझे इस राक्षस के अत्याचारों से मुक्ति दिलाएगा।”

राजा वीरभद्र उसकी आपबीती सुनकर उसे अपने राजमहल में ले आए और पत्नी के रूप में अपनाकर, उसके साथ काम-क्रीड़ा में खो गए ।

महामन्त्री सत्यमणि ने जैसे ही यह सब देखा-सुना तो उसके मुंह से एक आह निकली और वह उसी समय स्वर्ग सिधार गया । उसकी जीवन लीला समाप्त हो गई।”

विक्रम बेताल के सवाल जवाब

बेताल के सवाल :

इतनी कथा सुनाकर बेताल ने कहा – “विक्रम ! अब तुम्हें बताना यह है कि मंत्री को ऐसा क्या दुख हुआ कि उसका कलेजा फट गया और वह स्वर्ग सिधार गया ?”

राजा विक्रमादित्य के जवाब :

विक्रम ने कहा—‘‘सुनो बेताल ! मन्त्री को दुख इस बात का हुआ कि यदि वह हिम्मत से काम लेता तो आज वह सुन्दरी उसकी पत्नी होती, आखिर वह भी तो एक वीर राजपुरुष था, मगर उसने इसकी चर्चा राजा से कर दी । बस, अपनी गलती पर पछताते हुए ही सदमे के कारण उसकी मृत्यु हुई।”

विक्रम के उत्तर से संतुष्ट होकर बेताल ने कहा – “बिल्कुल ठीक कहा विक्रम ! लेकिन तू एक बार फिर चूक गया । तुझे वही पुरानी शर्त तो याद होगी न… । तू बीच में बोल पड़ा है अतः मैं चला ।

मैं जा रहा हूं विक्रम! हा…हा…हा…।” यह कहकर बेताल विक्रम की पीठ से आकाश में ऊपर की ओर उठता चला गया और हवा में तैरता हुआ फिर श्मशान भूमि की ओर चल दिया । विक्रम बेताल के पीछे-पीछे नंगी दुधारी तलवार लिए दौड़ा जा रहा था ।

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