राजा विक्रमादित्य की कहानी – दोषी कौन | Raja Vikramaditya Ki Kahani
विक्रम दौड़ता-दौड़ता एक बार फिर उसी श्मशान भूमि में जा पहुंचा, जहां बेताल उल्टा वृक्ष से लटका हुआ था ।
राजा विक्रम बड़ी फुर्ती से पेड़ पर चढ़ा और एक बार फिर उसे गिराकर दबोचा और अपनी पीठ पर लादकर चल दिया ।
बेताल उसके चंगुल से छूटने का भरसक प्रयत्न कर रहा था, मगर सब व्यर्थ, विक्रम की पकड़ इतनी मजबूत थी कि इस बार वह हिलने में भी कठिनाई महसूस कर रहा था ।
बेताल ने कहा – “तुम नाराज क्यों होते हो ? मैं जो कुछ भी कर रहा हूं, तुम्हारी भलाई के लिए ही कर रहा हूं । इसके लिए समय आने पर तुम स्वयं मेरा एहसान मानोगे।”
“आखिर तुम सीधे क्यों नहीं चलते ?”
“वक्त आने दो, सीधा ही चलूंगा, मगर फिलहाल तुम एक कहानी सुनो।”
“नहीं-मुझे नहीं सुननी कहानी – फिर तुम जवाब मांगोगे, मगर मैं कोई जवाब नहीं दूंगा।”
“जवाब नहीं दोगे तो तुम्हारा सिर फट जाएगा।” बेताल ने शीघ्रता से कहा-“तुम्हारे नाम पर कलंक लगेगा।”
विक्रम को क्रोध का घूंट पीकर चुप रह जाना पड़ा ।
बेताल कथा सुनाने लगा–“सुनो राजा विक्रम !”
चूड़ापुर नामक एक नगर में कृष्णदत्त नामक एक अत्यन्त विद्वान ब्राह्मण रहता था । उसका एक पुत्र था जिसका नाम हरिदत्त था । हरिदत्त अपने पिता के समान ही मेधावी और शास्त्रज्ञ था । साथ ही वह अत्यन्त रूपवान भी था । वह युवा हो गया तो कृष्णदत्त ने उसके विवाह की चिन्ता शुरू कर दी । उसके योग्य कन्या की खोज शुरू कर दी । किन्तु विधि की इच्छा ही कुछ ऐसी थी कि कृष्णदत्त अपने जीवनकाल में पुत्र का विवाह न देख सका । उसका देहान्त हो गया ।
पिता की मृत्यु के उपरान्त हरिदत्त ने अपना सम्मान कायम रखा । उसने पिता की प्रतिष्ठा पर आंच न आने दी । वह योग्य पिता का योग्य पुत्र निकला ।
हे राजा विक्रमादित्य ! मनुष्य पर काम का हमला यदा-कदा होता ही रहता है । किन्तु इस संसार में विरले ही काम से अपनी रक्षा कर पाते हैं । एक दिन हरिदत्त एक निमन्त्रण में गया । वहां एक अत्यंत रूपवती कन्या को देखकर वह उस पर मोहित हो गया । कन्या भी उससे अपना प्रेम प्रकट कर गई ।
हरिदत्त ने उस कन्या के पिता के समक्ष विवाह की इच्छा प्रकट की, जिसे उसके पिता ने सहर्ष स्वीकार कर लिया । इस प्रकार हरिदत्त का विवाह हो गया । वह लीलावती नामक उस परम सुन्दरी को पत्नी बनाकर ले आया और राग-रंग में डूब गया ।
सभी दिन एक समान नहीं होते । एक दिन हरिदत्त अपनी पत्नी लीलावती के साथ सरोवर में स्नान करने गया । भाग्य की लीला सरोवर में केलि करते समय लीलावती डूब गई । उसकी देह सरोवर के तल में जाकर फंस गई ।
हरिदत्त पागल सा हो गया । वह सरोवर किनारे बैठा रह गया । भूख-प्यास मर गई । फिर एक दिन वह पागलों की भांति चीखता-चिल्लाता जंगल की ओर भाग गया । काफी समय हो गया, हरिदत्त जंगल में भटकता रहा । उसकी दशा भिखारी के समान हो गई ।
जंगल-जंगल भटकने के उपरान्त एक देश से दूसरे देश भटकने लगा । वह विक्षिप्तों की भांति हर समय लीलावती को पुकारता रहता था । इसी प्रकार भटकता-भटकता वह कंचन पुर पहुंच गया । वहां उसके पिता का एक परम मित्र वासुदेव रहता था ।
उसने हरिदत्त को पहचान लिया और उसकी ऐसी दशा देखकर वह अत्यन्त दुखी हुआ । उसकी ऐसी दशा देखकर उसे अपना मित्र-धर्म याद आ गया । उसने सोचा कि मित्र का पुत्र ऐसे घोर संकट में है, यदि ऐसे अवसर पर, ऐसी विपदा में मैं इसे अपने घर से इसी दशा में जाने देता हूं और बाद में मेरे मित्र को यह बात पता चली तो बड़ा नाराज होगा । मन ही मन उसने सोचा कि मैं इसे ऐसे नहीं जाने दूंगा ।
तब उसने हरिदत्त को अपने पास रहने का प्रस्ताव रखा, मगर हरिदत्त तैयार न हुआ । वह अपना होश खो बैठा था । उसे तो हर तरफ अपनी पत्नी दिखाई देती थी । हर पल, हर घड़ी वह उसी के गम में डूबा रहता था । स्नानादि की तो क्या कहें, उसे तो अपने खान-पान तक का होश नहीं था । जब वासुदेव ने उससे बहुत अधिक आग्रह किया तो वह कुछ दिन वहां रुकने के लिए तैयार हो गया ।
हे राजा विक्रम ! तब वासुदेव ने अपनी पत्नी से कहा – “आज मंगलवार है । हरिदत्त को खीर बनाकर खाने को दो।”
वासुदेव की पत्नी ने खीर बनाई और खाने के लिए हरिदत्त को दी । मगर हरिदत्त ने वह खीर नहीं खाई और खीर का पात्र उठाकर एक बगीचे में आकर बैठ गया । और वहीं एक पेड़ के नीचे खीर का पात्र रखकर वह लीलावती के लिए रोने लगा ।
उस पेड़ के नीचे एक भयानक विषधर रहता था । वह बिल से बाहर आया । उसने खीर के उस पात्र में जहर उगल दिया हरिदत्त को इसका पता ही न चला । विषधर विष उगल कर चला गया, तो हरिदत्त ने उस पात्र की खीर खा ली । खीर खाने के बाद उसे पसीना आने लगा । उसका शरीर ऐंठने लगा । हरिदत्त समझ गया कि यह विष का प्रभाव है । वह भागकर दरवाजे पर आया ।
चीखने लगा-–“तुमने मुझे जहर दिया है…मुझे जहर दे दिया।”
और वह वहीं दरवाजे पर गिर गया । उसका शरीर निष्प्राण हो गया । इस प्रकार का दृश्य देखकर वासुदेव घबरा गया । वह अपनी पत्नी को धिक्कारने लगा कि उसने ब्रह्महत्या की है । हरिदत्त को खीर में जहर दे दिया है । यह आरोप सुनकर वासुदेव की पत्नी ने कुएं में कूदकर आत्महत्या कर ली ।
विक्रम बेताल के सवाल जवाब
बेताल के सवाल :
हे राजा विक्रम ! न्याय करो इस आत्महत्या का पाप वासुदेव पर आया या नहीं ? वासुदेव को इसका दण्ड मिलना चाहिए अथवा नहीं या इसके लिए हरिदत्त जिम्मेदार है कि उसने अनजाने ही वासुदेव की पत्नी पर आरोप लगा दिया ? तुम्हारा न्याय क्या कहता है ?”
राजा विक्रमादित्य के जवाब :
बेताल का प्रश्न सुनकर राजा विक्रम अपने होंठ काटने लगा । बोला- “इसमें किसी का नहीं।”
बेताल बोला—” क्या सर्प भी दंड का भागी नहीं है ? “
“नहीं।” विक्रम ने कहा—”सर्प का तो काम ही है, जहर निकालना । यह उसका स्वभाव है ।
“तब कौन दोषी है?”
“स्वयं हरिदत्त ! उसको खीर का पात्र वहां नहीं रखना था, पर हरिदत्त भी दोषी नहीं है।”
“क्यों ?”
“वह पागल हो गया था । पागल को ज्ञान नहीं होता । इस कारण इसमें किसी का भी दोष नहीं है।”
कहकर विक्रम चुप रह गया ।
इस बार बेताल ने भयानक अट्टहास नहीं किया वरन् चुप रह गया । केवल इतना बोला—“ तुम ठीक कहते हो राजा विक्रम ।”
राजा विक्रम उसे कंधे पर लादकर तेजी से श्मशान की ओर चलता जा रहा था । सर्वत्र अन्धकार फैला था । विक्रम ने बेताल को शांत देखकर चैन की सांस ली कि इस बार उसने भागने की कोशिश नहीं की । उसे लेकर वह शीघ्र श्मशान पहुंच जाना चाहता था ।
बेताल का व्यवहार देखकर राजा को विश्वास हो गया कि अब वह शरारत नहीं करेगा । तांत्रिक साधु के पास ले जाने में बाधा उत्पन्न नहीं करेगा । अतएव वह तेज कदमों से उस ओर बढ़ चला ।
आधे से ज्यादा रास्ता पार हो गया था कि बेताल बोला, “राजा विक्रम, दाहिनी ओर से चलना यह रास्ता बदल दो । यह समय भयंकर विषधर के आने का है।”
राजा विक्रम ने वैसा ही किया । बेताल उसकी प्राण रक्षा भी कर रहा था । इस कारण वह मन-ही-मन बेताल पर खुश भी था ।